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महाभारत: कर्ण को पूर्वजन्म की इस गलती के लिए मिली थी सजा, इसलिए था उनका संघर्षपूर्ण जीवन

कुंती पुत्र कर्ण जिन्हें सूर्यपुत्र, राधेय, वासुसेना, अंगराज, जैसे कई नामों से जाना जाता है, उन्हें अर्जुन से श्रेष्ठ धनुर्धर और महान यौद्धा माना जाता था. कर्ण को धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ व उनकी पत्नी राधा ने पालन-पोषण किया. कुंती के ज्येष्ठ पुत्र कर्ण ने घोर भेदभाव और अपमान का सामना किया. उन्हें अपने जीवन में अपने ही भाइयों से युद्ध करना पड़ा. लेकिन क्या आप जानते हैं कि कर्ण को इतना दुख इसलिए सहना पड़ा क्योंकि उनका जन्म ही अपने पापों के प्रायश्चित करने के लिए हुआ था.


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दंबोघव नाम के एक असुर ने सूर्यदेव की बेहद कठिन तपस्या की और सूर्यदेव से एक वरदान हासिल किया कि उसे सौ कवच हासिल होंगे. इन कवचो पर केवल वही व्यक्ति प्रहार कर सकता था जिसने इसमें हजारों वर्षों तक तप किया हो. उसने भगवान सूर्य से यह भी वरदान मांगा था कि अगर कोई उसके कवच को भेदने का प्रयास करे तो उसकी उसी समय मृत्यु हो जाए.


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इसके बाद दंबोघव ने लोगों पर अपना अत्याचार शुरू किया, जिसके परिणामस्वरुप प्रजापति दक्ष की पुत्री मूर्ति ने भगवान विष्णु की आराधना कर उनसे दंबोधव के अंत का वरदान मांगा. मूर्ति, माता पार्वती की बहन थीं और उनका विवाह ब्रह्माजी के मानस पुत्रों में से एक धर्म के साथ हुआ था. कुछ समय बाद मूर्ति ने नर-नारायण नाम के दो जुड़वां बच्चों को जन्म दिया. नर-नारायण के शरीर भले ही अलग थे, लेकिन मन, आत्मा और कर्म से ये दोनों एक थे.


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दंबोघव सहस्त्र कवच से युद्ध में व्यस्त थे, तब नारायण योग निद्रा में लीन थे. नर ने सहस्त्र कवच के 999 सुरक्षा कवच काट दिए . जब एक कवच शेष रह गया तो सहस्त्र कवच ने सूर्य लोक में शरण ली. अब तक नारायण योग निद्रा से जाग चुके थे. नर-नारायण सूर्य लोक पहुंचे. उन्होंने सूर्यदेव से असुर दंबोधव को लौटाने की प्रार्थना की.


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सूर्यदेव ने नर-नारायण की प्रार्थना का नहीं स्वीकार जिसके फल स्वरुप नर-नारायण ने दंबोधव को शाप दिया कि उन्हें अगले जन्म में अपनी निशाचर करनी का दंड भोगना होगा. इस तरह द्वापर युग में असुर दंबोधव का कर्ण के रूप में जन्म हुआ, जिसके शरीर पर वो शेष एक कवच मौजूद था…Next


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