जैसा कि हम सभी जानते हैं कि महाभारत को 18 खड़ों में बांटा गया है। इसमें हर एक खंड में जीवन से जुड़ी हुई कुछ बातें बताई हुई है। इसी प्रकार महाभारत के ‘अनुशासन पर्व’ में भी भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को श्राद्ध के संबंध में कई ऐसी बातें बताई हैं, जो वर्तमान समय में बहुत कम लोग जानते हैं-
महाभारत के अनुसार ऐसे शुरू हुई थी श्राद्ध की परंपरा
सबसे पहले श्राद्ध का उपदेश महर्षि निमि को महातपस्वी अत्रि मुनि ने दिया था। इस प्रकार पहले निमि ने श्राद्ध का आरंभ किया, उसके बाद अन्य महर्षि भी श्राद्ध करने लगे। धीरे-धीरे चारों वर्णों के लोग श्राद्ध में पितरों को अन्न देने लगे। लगातार श्राद्ध का भोजन करते-करते देवता और पितर पूर्ण तृप्त हो गए।
श्राद्ध का भोजन लगातार करने से पितरों को अजीर्ण (भोजन न पचना) रोग हो गया और इससे उन्हें कष्ट होने लगा। तब वे ब्रह्माजी के पास गए और उनसे कहा कि ‘श्राद्ध का अन्न खाते-खाते हमें अजीर्ण रोग हो गया है। इससे हमें कष्ट हो रहा है. आप हमारा कल्याण कीजिए। ‘ देवताओं की बात सुनकर ब्रह्माजी बोले- ‘मेरे निकट ये अग्निदेव बैठे हैं। ये ही आपका कल्याण करेंगे। ‘ अग्निदेव बोले- ‘देवताओं और पितरों अब से श्राद्ध में हम लोग साथ ही भोजन किया करेंगे। मेरे साथ रहने से आप लोगों का अजीर्ण दूर हो जाएगा.’ यह सुनकर देवता व पितर प्रसन्न हुए, इसलिए श्राद्ध में सबसे पहले अग्नि का भाग दिया जाता है।
पिंडदान में ध्यान रखने योग्य बातें
महाभारत के अनुसार श्राद्ध में जो तीन पिंडों का विधान है, उनमें से पहला जल में डाल देना चाहिए। दूसरा पिंड श्राद्धकर्ता की पत्नी को खिला देना चाहिए और तीसरे पिंड की अग्नि में छोड़ देना चाहिए। यही श्राद्ध का विधान है। जो इसका पालन करता है उसके पितर सदा प्रसन्नचित्त और संतुष्ट रहते हैं और उसका दिया हुआ दान अक्षय होता है।
1. पहला पिंड जो पानी के भीतर चला जाता है, वह चंद्रमा को तृप्त करता है और चंद्रमा स्वयं देवता तथा पितरों को संतुष्ट करते हैं।
2. इसी प्रकार पत्नी गुरुजनों की आज्ञा से जो दूसरा पिंड खाती है, उससे प्रसन्न होकर पितर पुत्र की कामना वाले पुरुष को पुत्र प्रदान करते हैं।
3. तीसरा पिंड अग्नि में डाला जाता है. उससे तृप्त होकर पितर मनुष्य की संपूर्ण कामनाएं पूर्ण करते हैं…Next
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