महत्व होता है ‘स्वाहा’ शब्द का? प्राचीन समय से ही यज्ञ वेदी में हवन सामग्री डालने के दौरान ‘स्वाहा’ का बोला जाता था.
दरअसल, स्वाहा का निर्धारित नैरुक्तिक अर्थ होता है, सही रीति से पहुंचाना. स्वाहा’ शब्द उच्चारित करते हुए हवन सामग्री का भोग अग्नि के जरिए देवताओं को पहुंचाया जाता है. कोई भी यज्ञ तक तक सफल नहीं माना जा सकता है. जब तक कि हविष्य का ग्रहण देवता न कर लें, पर देवता ऐसा हविष्य तभी स्वीकार करते हैं जबकि अग्नि के द्वारा स्वाहा के माध्यम से अपर्ण किया जाए. पौराणिक कथा के मुताबिक स्वाहा अग्निदेव की पत्नी हैं. ऐसे में स्वाहा का उच्चारण कर निर्धारित हवन सामग्री का भोग अग्नि के माध्यम से देवताओं को पहुंचाते हैं.
हमारे पुराणों में बताया गया है कि ऋग्वैदिक काल में इंसानों और देवताओं के बीच माध्यम के रूप में अग्नि का चुनाव किया गया था और इसके पीछे कारण है कि अग्नि में जो कुछ भी जाता है वह सब पवित्र हो जाता है. अग्नि में डालने से देवताओं को दी जानेवाली सभी वस्तुएं उनतक पहुंच जाती हैं, लेकिन ये तभी संभव होता है जब स्वः कहते हैं. इस शब्द के उच्चारण से देवताओं तक हमारी दी हुई सभी आहुतियां पहुंच जाती हैं.
इससे सम्बंधित कई कथाएं श्रीमद्भागवत और शिवपुराण में बताई गईं हैं. इसके अलावा ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि वैदिक ग्रंथों में भी अग्नि के महत्व के बारे में बताया गया है. इसके अलावा एक पौराणिक कथा भी इस शब्द से जुडी हुई है. जिसमें बताया गया है कि, ‘स्वाहा’ दक्ष प्रजापति की पुत्री थीं, जिनका विवाह अग्निदेव के साथ किया गया था, इसलिए ऐसा कहा जाता है कि अग्निदेव हम मनुष्यों से तभी हवन सामग्री ग्रहण करते हैं, जब उनकी पत्नी का नाम लिया जाए, इसलिए यज्ञ के बाद स्वः का उच्चारण अनिवार्य कर दिया गया…Next
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