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सुलह (मेरी आठ कहानियाँ)

मेरी कहानियां
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घडी पर नजरे जब मैंने दौडाई तो चौक गई l शाम की पांच बज रहा था l मुझे ध्यान आया आज सुरुचि और प्रशांत के साथ मेरा बाहर जाने का प्रोग्राम हैं l कितने मुश्किल में यह प्रोग्राम बना था l

लपकते हुए मैं सिटी बस पर चढ़ गयी l चांदमारी से गणेशगुडी तक पहुँचने के दरमियान अनेक सारी कल्पना में खोयी रही l आँखों के सामने महाविद्यालय की वह हसीं जोड़ी सुरुचि और प्रशांत की खिलखिलाहट कानों में गूंजने लगी ल सुरुचि बी .एस .सी प्रथम वर्ष की छात्रा थी और प्रशांत बी .ए अंतिम वर्ष का छात्र l दोनों की दोस्ती अजीबो – गरीब परिस्थिति में हुई थी l
सुरुचि लाइब्रेरी से सीडिया पार करती हुई नीचे आ रही थी कि अचानक उसकी पाँव फिसल गई l नीचे से आते प्रशांत ने उसे न थामा होता तो नजाने क्या हो जाता l इस हादसे के दौरान एक दुसरे के करीब आ जाते है l गणेशगुडी …….गणेशगुडी ……. नामा आसे ?(उतरने वाला कोई हैं) कंडक्टर की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हो गई l मैं उतरकर जल्दी-जल्दी पग भरती हुई सुरुचि के घर की तरफ आगे बढ़ने लगी l
दरवाजा खुला था l
मैं घर के अन्दर प्रविष्ट हुई , कुछ अजीब सा लगा मुझे l सुरुचि और प्रशांत के चेहरे से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि दोनों में लड़ाई हुई हो l
मुझे देख सुरुचि सामान्य होने का नाटक करने लगी l
“तुम दोनों अभी तक तैयार नहीं हुए ? ”
“मैं तो तैयार हूँ पर सरू का अभी तक हुआ नहीं हैं “, प्रशांत ने कहा l
“तो तुम्हे कुछ मदद कर देना चाहिए आखिर वह तुम्हारी अर्धांगिनी हैं l”मैंने मजाक करते हुए कहा l
“कोई जरुरत नहीं l ” सुरुचि ने गुस्से भरे लहजे में कहा l
“देख रही हो श्वेता उसे मदद की क्या जरुरत l ” प्रशांत ने बुरा सा मुह बनाते हुए कहा l
“मैं नहीं जाती तुम लोग जाओ” अचानक सुरुचि मेकअप बाक्स को ड्रावर में रखते हुए बोली l
यह क्या कह रही हो सरू ? तुम्हारे बिना हम क्यों जायेंगे l प्रशांत तुम ही समझाओ न सरू को l हमारी सुरुचि तो ऐसी नहीं थी l ”
“बन रही हैं l ” प्रशांत ने व्यंगवान छोड़ा l “नहीं प्रशांत तुम्हे ऐसा नहीं कहना चाहिए l दोनों की वाक् कटुता को देखकर मैं फिर खो गयी अतीत की ओर………………………

सुरुचि और प्रशांत धीरे – धीरे एक दुसरे को चाहने लगे थे l पढाई के साथ – साथ दोनों का प्यार भी प्रगाढ़ होता गया l साइंस की छात्रा होने के वावजुत सुरुचि कला में रूचि रखती थी l उसकी द्वारा बनाई गई पेंटिंग कितना जीवन सा लगता था साथ ही कत्थक नृत्य में भी निपुण थी l और प्रशांत !
महा विद्यालय में उससे अचछी कविता भला कौन लिख सकता था l साहित्य का छात्र होने के कारन वह साहित्य में काफी रूचि रखता था l कई – कई कविताएँ गुवाहाटी से निकले दैनिक समाचार पत्रों से निकलता था l”क्या सोचने लगी शवेता ? प्रशांत की आवाज़ ने मुझे चौका दिया “कुछ नहीं l”सुरुचि तैयार हो चुकी थी l तो चले मैंने कहा l”बिलकुल l ” प्रशांत ने कहा l सुरुचि का मुड अब भी आँफ था l हम तीनो ओटो रिक्शा द्वारा श्याम मंदिर की ओर चल पड़े क्योंकि मैंने ही यह स्थान चुना था l
भीड़भाड़ से दूर श्याम मंदिर पहाड़ की एक टीले पर अवस्थित हैं l जब हम वहां पहुंचे शांत शीतल परिवेश ने हमारा स्वागत किया l मंद-मंद हवाएं वातावरण में ड़ोल रही थी l
भगवान् के सामने माथा टेक कर हम पार्क में आकर बैठ गए l पहाड़ी के सुदूर सूर्यास्त हो रहा था l प्रशांत दुसरे छोर में बैठकर प्रकृति का मनोरम द्रश्य का उपभोग करने लगा तो मैंने सुरुचि से पूछा l
“क्या बात है सरू ? तुम सचमुच बहुत गुस्से में हो?”
“मैं और प्रशांत एक साथ नहीं रह सकते l ” जैसे ज्वालामुखी फट पड़ी l
“क्यों?” ऐसी क्या बात हो गयी हैं सरू ?” मैंने प्रश्न किया l
“कभी भी मुझे कुछ नहीं बताता l कॉलेज से आकर अक्सर घंटों बाहर रहता हैं l हो सकता हैं काम से गए हो ,फिर भी तो बताकर जाना चाहिए l मैं तो नहीं रोकूंगी न उसे l तुम आने के पहले इसी बात पर हमारी झड़प हो रही थी l ”
“बस इस बात पर चिड़ी हो l “मैंने समझाने वाले लहजे में उससे कहा – “सरू जिंदगी से तुम इतनी जल्दी घबडा गई ? कुछ तो दोनों को अन्डरस्टेंड करना होगा l
“मैं ही सिर्फ क्यों करू?वह तो कभी नहीं करताl”गुस्से में ही वह बोली l
“क्योंकि तुम उनकी धर्म पत्नी हो l घर -संसार की बागडोर जो तुम्हारे हाथ में हैं l वैसे भी तुम तो एक अच्छी कलाकार हो ,तुम्हे इतना संकीर्ण नहीं होना चाहिए l अपने बचे समय में पेंटिंग में और जान डालों,तुम्हे अच्छा लगेगा l “मैंने उसका हौसला बढाते हुए कहा l
“संकीर्ण मैं नहीं हालत ने बनाया हैं मुझे l क्या कभी प्रशांत को इसकी परवाह हैं ?”वह उल्टा समझाते हुए मुझे कहने लगी – “कला तो आखिर कला हैं l चाहे पेंटिंग हो या लेखन l ”
“एक्जेटली l ”
“प्रशांत कभी मुझे समझने की कोशिश नहीं करता l जुड़े तो हम दोनों कला से ही हैं मगर कभी कोई आग्रह ही नहीं दिखाता वह l पता नहीं किस मिटटी से बना हैं l ”
“सरू तुम मुझे गलत नहीं समझना मैं यही बात तुमसे पूछना चाहती थी l
क्या तुमने कभी प्रशांत की रूचि में दिलचस्पी ली हैं l ”
“क्या मतलब ?”
“हो सकता हैं वह भी तुमसे यही उम्मीद रखता हो l कॉलेज के दिनों में वह बहुत कवितायेँ लिखता था न!तो तुम उसकी प्रेरणा बन सकती हो l उसकी कलम में जादू भर सकती हो l देखना वह कैसे तुम्हारे नजदीक आएगा वही पहले जैसा प्रशांत l कभी-कभी छोटी-छोटी बातों को भी छोड़ना होगा l ”
सुरुचि चुप थी शायद उसे बात समझ में आ गयी थी l पर काले बादल के झुण्ड तैरने लगा था l मैंने इशारा किया प्रशांत को l वह हमारी तरफ ही निहार रहा था l
“चलना हैं की नहीं ?” करीब आते प्रशांत से मैंने पुछा l “समय कह रहा हैं चलना चाहिए l उसने सुरुचि की तरफ देखते हुए कहा l
सरू अब भी चुप थी l हम तीनों ऑटो से लौट रहे थे l तीनों चुप थे सिर्फ ऑटो की आवाज सुनाई पड़ रहा था l और मैं पहले की स्मृति में फिर से खो गई l
प्रशांत ने बी.ए. करने के बाद एम् .ए . कर ली l पढाई में तेज होने के कारण उसने एम् .ए . में नोर्म्स के साथ फर्स्ट क्लास फर्स्ट पोजीशन मिला l सुरुचि भी बी.एस.सी . में अच्छे पोजीशन लेकर पास हुई l
फिर प्रशांत को एक दूर के कॉलेज में लेक्चरार की नौकरी मिल गई l उसका सपना साकार हुआ l वह बहुत खुश था l फैसला किया अब वह सुरुचि से शादी करेगा l सुरुचि भी बहुत खुश थी l क्योंकि उसे मनपसंद साथी जो मिला था l
शानदार ढंग से दोनों की शादी हो गयी l पर मैं एक जरुरी काम से बाहर गयी थी l शादी में शरीक ही नहीं हो पायी l
अरसे बाद एकदिन दफ्तर में सुरुचि का फोन आया l बता रही थी उसका भी गुवाहाटी के किसी स्कूल में नौकरी लगी हैं l प्रशांत भी यही के स्थानीय कॉलेज में ट्रान्सफर होकर आ गया हैं l
मैंने कहा अच्छा ही हुआ l काफी दिनों से तीनों मिले नहीं थे l सो आज का प्रोग्राम बना था l
“उतरना नहीं हैं क्या ?”सुरुचि के स्वर ने मुझे वर्तमान में खींच लाया l
गणेशगुडी आ गया था l हम उतर कर घर पहुंचे l सुरुचि किचेन की ओर चली गई l मौका पाते ही मैंने प्रशांत से बाते शुरू की l यह सरू कैसे इतनी बदल गई ?”
“बनती हैं !हमेशा कुछ न कुछ तर्क लेकर बैठ जाती हैं l ”
“अच्छा एक बात बताओ प्रशांत , क्या तुमने कभी उसकी रूचि में ध्यान दिया हैं ?”
“इसकी जरुरत मैंने नहीं समझा l ”
“इसी बात का तो रोना हैं l ”
“क्या मतलब ?”
“देखों वह तुम्हारी अर्धांगिनी हैं l एक दुसरे का पूरक l क्या तुम्हे उसकी रूचि का ख़याल नहीं रखना चाहिए ?” मैं कहती रही और प्रशांत चुपचाप शून्य में निहारने लगा l सुरुचि चाय और गरमा -गरम समोसे लेकर ड्राइंगरूम में प्रविष्ट हुई l “वाह समोसे ! मैंने झट से एक समोसे उठा ली l मुझे महाविद्यालय वाला दिन याद आया l हम कुछ लडकियां सुरुचि और प्रशांत की मुलाक़ात का एक -एक समोसा लिया करते थे l सच वह दिन कितना सुहाना था l
आसमान पर काले बादल छट चुके थे l दोनों से विदा लेकर मैं लौट पढ़ी l
एक महीने बाद एकदिन अचानक मेरे दफ्तर में सुरुचि का फोन आया l उसने कल लंच पर आने का न्योता दिया l मेरे लाख पूछने पर की यह अचानक प्रोग्राम कैसा ? वह सिर्फ खिलखिलाकर हंसकर कहने लगी – कल आना तुम्हे खुद-बी-खुद पता चल जाएगा l मैं सोच में पड़ गई l क्या बात हो सकती हैं l महीने भर पहले वह कितनी बदली लगी थी मगर आज फिर पहले जैसे सुरुचि कैसे हो गई l जो भी हो कल इतवार है l छुट्टी हैं कल पता लग जाएगा l मन को आश्वस्त किया मैंने l
दुसरे दिन जैसे ही मैंने प्रशांत के घर में प्रवेश किया ,दोनों ने बड़े गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया l
“बड़े खुश नजर आ रहे हो दोनों ,क्या बात हैं ? ” सोफे में बैठते हुए मैंने पूछा l
“हमदोनों तुम्हारा बहुत शुक्रगुजार हैं l “सुरुचि ने कहा l
“किस बात के लिए ?”
सुरुचि कहने लगी – “उसदिन तुमने हमें न समझाया होता तो हम कभी एकदूसरे के करीब न होते l जानती हो प्रशांत ने मेरी पेंटिंग की प्रदर्शनी के लिए काफी दौड़ -धुप किया और मेरा हौसला बढ़ाया l एक-एक पेंटिंग पुरे करने में काफी मदद की l ”
“और तुमने मेरी मरी हुई भावना को कलम द्वारा जीवंत कराई ,प्रशांत ने बीच में ही बात काटते हुए कहा l
मैं दोनों की बात चुपचाप सुनती रही l दोनों में गजब का सुलह हो गया था l डाइनिंग टेबल पर तीनों बैठकर खाना खा रहे थे l पर मैं एक ही बात सोच रही थी कि मेरे समझाने का असर इतनी जल्दी होगी मैंने कभी सोचा ही न था l

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