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गांव की चौपाल सूनी है। मुखिया बीते दो महीनों का सिंहावलोकन कर रहा है, जिनमें चौपाल गुलजार रहती थी। नेता आते-जाते रहते थे, पर चौपाल की रौनक बादस्तूर बनी हुई थी।
चौधरन उस खाट (चारपाई) को निहार रही थी, जो दो माह पहले बुनी गई थी, लेकिन आज इसका हाल उस सड़क जैसा है जिसके बनने से पहले 80 फीसदी कमीशन खा ली जाती है और वह दो महीने बाद इसी चारपाई की तरह उधड़ जाती है। मगर इस चारपाई के उधड़ने के कारण कमीशन नहीं, बल्कि उस पर दो महीने तक लगातार नेताओं के गुनाहों का बोझ पड़ना था।
अंबेडकर गांव की इस चौधरन का असल नाम रमा है। पास ही शहर में मायका है और थोड़ा बहुत पढ़ी-लिखी है तो दो-चार अंग्रेजी के शब्द बोलकर समाजसेवा कर देने के जज्बे ने रमा को गांव वालों की चौधरन बना दिया है। गांव में आने वाले नेताओं को चौधरन के शहरी लटके-झटके आकर्षित करते हैं। चौधरन भी समाजसेवा से सियासत में जाना चाहती है, इसलिए पूरे दो महीने चुनाव के दौरान उसने नेताओं के लिए खाट बिछाए रखी।
इस गांव में दलित नाम चारे को हैं, लेकिन जितने हैं उन्हें बताने की जरूरत नहीं पड़ती। कारण, गांव की तमाम पक्की गलियां दलितों के दस-बारह घरों के पास आकर कच्ची हो जाती हैं। गांव का यहीं सबसे निचला इलाका भी है, जहां पानी भरा रहता है। पक्की नालियों का पानी जब इस कच्ची गली में ज्यादा भर जाता है तो दलितों के घरों में भी घुस जाता है। दलितों को घरों तक पहुंचने के लिए पानी से गुजरना और धोती-पाजामे को टखनों से ऊपर उठाना जरूरी होता है, नहीं तो गंदे पानी में भीग जाएंगे। इन दस-बारह घरों में इसीलिए कोई जूते, चप्पल भी नहीं पहनता। आते-जाते वक्त जूते उतारकर कच्ची गली पार कर भी लें तो गंदे पांव में इन्हें पहन भी तो नहीं सकते। एक अदद सरकारी नल विधायक निधि ने वोटबैंक वाले इलाके में लगवाया भी, लेकिन वहां गांव भर के कपड़े धुलते हैं, लिहाजा गंदे पांव धोने की इजाजत नहीं।
मेरे शहर तक जाने वाले हाइवे का हाल चार साल से चौधरन की खाट जैसा है। बनने के एक साल में ही टूट गया था। लिहाजा मुझे भी चौधरन के गांव और दलितों की गली से होकर गुजरना पड़ता है। 60 किलोमीटर के खस्ताहाल हाइवे के सफर से बेहतर है कि गांव-देहात की चक रोड पर पड़ने वाली दलितों की 20-30 मीटर की टूटी सड़क से गुजरा जाए। फिर रास्ते भर खेतों की हरियाली और तालाब भी देखने को मिल जाते हैं।
गांव की दलित बस्ती की कीचड़-पानी भरी गली से सारे नेताओं की गाड़ी बेरोक टोक गुजरी। मगर, आज मेरी गाड़ी फंस गई। छोटी जो है, नेताओं जैसी बड़ी होती तो शायद वह भी निकल जाती। गाड़ी का शीशा खोला, इधर-उधर देखा पार्टियों के अधफटे झंडे झोपड़ियों, पक्के घेरों पर मुरझाए हुए लटक रहे थे।
दूर खड़ा मुखिया चौपाल को निहार रहा था और चौधरन चारपाई को देख रही थी। पास ही गन्ने के कोल्हू पर एक बड़ा सा बैनर और एक पार्टी का झंडा लगा था। बैनर शायद विधायक जी की जीत का था और झंडा उनकी पार्टी का। मैंने मदद की आस में मुखिया को आवाज दी, सुनिए ताऊ जी!
सिंहावलोकन में गुम ताऊ ने शायद मेरी आवाज नहीं सुनी थी। मगर चौधरन आवाज की दिशा में पलटकर जरूर देखा। समझ गई कि गाड़ी फंसी है। बोली, ‘कोई ट्रैक्टर वाला आता होगा, खींचकर निकाल देगा। तब तक मैं चार ईंटें रख देती हूं, उतरकर पानी पार कर लो।’
दरअसल, जहां गाड़ी फंसी थी, वहां से जलभराव वाली गली चार कदम पर ही खत्म हो रही थी। चौधरन ने हर एक कदम पर चार ईंटें फेंकी और मैं इन पर पांव धरते हुए पानी से पार हो गया। अब इंतजार किसी ट्रैक्टर वाले का था। अब तक मुखिया की तंद्रा भी टूट चुकी थी और मंद-मंद मुस्कुरा रहा था। सोच रहा होगा, ‘टूट गया शहरी लौंडे का स्टाइल।’
बिना किसी औपचारिकता के मैं चौधरन से मुखातिब हुआ, ‘इस गली का विकास क्यों नहीं होता?’
चौधरन तो कुछ नहीं बोली, अलबत्ता मुखिया के मुख से निकला, ‘गरीब की मुनिया (बेटी) और विकास (डवलपमेंट) दोनों ही दिक्कत हैं। और ये दिक्कत हर रोज विस्तार लेती है। हम मुनिया की चिंता करें या विकास की।’
अब बारी चौधरन की थी और ताऊ के नहले पर अपनी भावनाओं का दहला मारा, ‘मुखिया अबके तो मैंने नेताजी से कह दिया था कि पिछली बार विकास होने का वादा कर गए थे, लेकिन पूरे गांव में मुनिया ही हुईं। अबके विकास होना चाहिए।’
दूर से आते एक ट्रैक्टर की आवाज पर बोली, ‘जाओ, कोई ट्रैक्टर आ रहा है।’ पास ही पड़ा एक रस्सा देते हुए बोली, ‘बांधकर गाड़ी खिंचवा लो। रस्सा यहीं छोड़ जाना, किसी दूसरे के काम आ जाएगा।’
मेरी गाड़ी निकल चुकी थी और मैं रस्सा देकर अपनी मंजिल की तरफ जा रहा था। सोच रहा था कि जब मैं इस रास्ते पर पहली बार गुजरा था, तब वह गली इतनी नहीं टूटी थी और न इतना पानी भरा रहता था, जितना अब। वाकई गरीब की मुनिया इतनी ही तेजी से बढ़ती है, जितनी तेजी से विकास न होने का दर्द। मैं ऐसा इसलिए भी सोच रहा था कपड़ों पर प्रेस करने वाली ने कल ही कहा था, ‘बेटी का ब्याह है, कुछ आर्थिक मदद चाहिए।’ अब मैं पसीनों-पसीन था, क्योंकि मार्च का महीना और प्रेस वाली से कह भी नहीं सकता था कि हाथ तंग है। खैर, मेरी मंजिल आ चुकी थी और सोचा कि प्रेस वाली की मदद को तो जुगाड़ कर लूंगा, लेकिन दलितों की गली में समाजवाद कैसे आएगा?
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