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राष्ट्रपति की ओर से विशिष्ट सेवाओं के लिए पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों को 15 अगस्त को ‘पुलिस पदक’ और 26 जनवरी को ‘दीर्घ एवं सराहनीय सेवा पदक’ प्रदान किये जाते हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय राज्यों के गृह सचिवों से ऐसे पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों के नामों का प्रस्ताव मांगता है। ये पदक आईपीएस से लेकर पीपीएस, इंस्पेक्टर, दरोगा, हेड कांस्टेबल और कांस्टेबल तक को प्रदान किये जाते हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय राज्यों की ओर से भेजे गये प्रस्तावों पर स्वीकृति की मुहर लगाकर राज्यों को भेजता है और राष्ट्रीय पर्व पर राज्य मुख्यालयों पर राज्यपाल अथवा मुख्यमंत्री ये पदक प्रदान करते हैं। चौंकाने वाली बात ये है कि इस बार गणतंत्र दिवस पर यूपी में तैनात कई ऐसे आईपीएस अफसरों को राष्ट्रपति की ओर से ‘दीर्घ एवं सराहनीय सेवा पदक’ प्रदान किये गये जो बीते 2-3 साल में दंगों और कानून व्यवस्था की बिगड़ी हालत के लिए न सिर्फ ज़िम्मेदार रहे हैं, बल्कि खुद राज्य सरकार ने इनके ख़िलाफ कार्रवाई भी की।
राष्ट्रपति की ओर से ‘दीर्घ एवं सराहनीय सेवा पदक’ 20 वर्षों की निर्धारित सेवा अवधि पूरी करने वाले ऐसे पुलिस अफसरों और कर्मियों को दिया जाता है जिनकी सेवा का उत्कृष्ट रिकार्ड रहा हो और सेवा अवधि में कहीं कोई दाग़ न लगा हो। 19 फरवरी 2009 में ही राज्य पुलिस मुख्यालय इलाहाबाद ने भारत सरकार से प्राप्त निर्देशों के अनुपालन में इस आशय का सर्कुलर भी जारी किया था। इसमें साफ तौर पर उल्लेख किया गया था कि पुलिस पदक हेतु नामों की सिफारिश करते समय सभी स्तरों पर और सभी पहलुओं पर सावधानी से विचार किया जाए। साथ ही गोपनीय बिंदुओं पर सतर्कता से जांच कर निपुणता, उत्कृष्टता, कर्त्तव्यपरायणता, दीर्घकाल और समर्पण भाव से की गई विशिष्ट देयता के मद्देनजर ही नामों की संस्तुति की जानी चाहिए। ऐसे अफसरों, कर्मियों के नामों की सिफारिश न की जाए जिनका रिकार्ड खराब हो या जिनके विरुद्ध प्रतिकूल टिप्पणी दर्ज हो, किसी प्रकार की जांच व कार्रवाई चल रही हो। इसी सर्कुलर में यह भी चेताया गया था कि 2008 तक राष्ट्रपति पुलिस पदक हेतु प्राप्त संस्तुतियों पर पाया गया कि 20 वर्ष की निर्धारित सेवा अवधि पूर्ण करने वाले अफसरों, कर्मियों की आंख मूंद कर सिफारिश कर दी गई।
इन निर्देशों के आने के बाद पहली बार भी ऐसी कोई सतर्कता नहीं बरती गई। राज्य के गृह विभाग ने ऐसे आईपीएस अफसरों को राष्ट्रपति की ओर से ‘दीर्घ एवं सराहनीय सेवा पदक’ दिला दिये जो शायद निर्धारित पात्रता की श्रेणी में नहीं आते। ये अफसर कानपुर, आगरा, इलाहाबाद, गोरखपुर आदि महानगरों में पिछले 4-5 साल में तैनाती के दौरान विवादों और असफलताओं से घिरे रहे हैं। दो साल पहले कानपुर में तैनात एसएसपी पीसी मीणा के कार्यकाल में डा. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा टूटने पर दंगा हुआ था। 2007 में आगरा में 12 वफात के मौके पर नो-एंट्री में ट्रक घुसने पर हुए हादसे के बाद जमकर बवाल हुआ था और वहां के डीएम अकेले दंगाईयों से जूझते रहे थे लेकिन तात्कालिक एसएसपी हरिराम शर्मा घंटों बाद मौके पर पहुंचे थे। 2007 में ही इलाहाबाद में 6 थाना क्षेत्रों में कर्फ्यू लगाना पड़ा था। तब वहां के.एस. प्रताप एसएसपी के पद पर तैनात थे। 2006 में गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ के काफिले पर हमले के बाद दंगा हुआ था। तात्कालिक एसएसपी राजा श्रीवास्तव निलंबित भी किये गये थे। मगर इन सब आईपीएस अफसरों को गणतंत्र के 60 बरस पूरे होने पर राष्ट्रपति की ओर से राज्य सरकार ने ‘दीर्घ एवं सराहनीय सेवा पदक’ प्रदान किये हैं। है कोई? जो इन हालात पर जवाब मांगे। सबसे अफसोस की बात तो ये है कि इन पदकों के सम्मान को बचाने के वास्ते न तो यूपी का कोई आईपीएस अफसर ही बोला और न ही दिल्ली और लखनऊ में मीडिया की नज़र ही इस पर गई। आईपीएस अफसरों की तो मजबूरी हो सकती है कि उन्हें सरकार के अधीन रहना है तो मुंह बंद रखना पड़ेगा, लेकिन विपक्ष के सारे बड़े नेता भी तो इस पर चुप की चादर ओढ़े पड़े हैं। विधानसभा और विधान परिषद में बजट सत्र के दौरान विपक्षी दलों ने वो तमाम मुद्दे तो जोर शोर से उठाये जिन पर साल दर साल चर्चा होती रहती है और नतीजा या हल कुछ नहीं निकलता, लेकिन राष्ट्र के सम्मान से खिलवाड़ के इस मुद्दे पर किसी का भी ध्यान तक नहीं गया। यह मामला तब और महत्वपूर्ण हो जाता है जब देश में पद्मश्री और पद्मभूषण जैसे सम्मानों को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बहस चल रही है। क्या लखनऊ और दिल्ली में बैठे पक्ष और विपक्ष के नेता बतायेंगे कि इतनी बड़ी चूक पर उनकी चुप्पी को गणतंत्र के साथ विश्वासघात क्यों नहीं माना जाए? अगर देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान की पात्रता को लेकर राष्ट्रव्यापी बहस छिड़ सकती है तो फिर पुलिस नौकरशाहों को दिये जाने वाले सर्वोच्च सेवा पदकों की पात्रता क्यों विवादों के घेरे में रहे? इस बाबत अपनी जिज्ञासा शांत करने के वास्ते मैंने अपने कुछ आईपीएस मित्रों से संपर्क किया। पहले तो कमोबेश सभी इस बहस पर कुछ कहने को तैयार नहीं हुए। मगर, बाद में दबी ज़बान में उन्होंने कुछ ऐसे आईपीएस अफसरों के नाम गिनाये जो अपनी ईमानदारी और कर्त्तव्यपरायणता के वास्ते तो जाने जाते हैं लेकिन ज्यादा इस बात के लिए विख्यात हैं कि हर तीन-चार महीने में उनका बिस्तर बोरिया अगली तैनाती के वास्ते बंध जाता है। कारण पूछा तो पता चला कि वे न तो बड़े अफसरों की चमचागिरी करते हैं और न ही शासन की कठपुतली बनते हैं। यानी इन्हें पंगेबाज के तौर पर जाना जाता है। इसलिए राष्ट्रपति पदक के वास्ते पात्र होते हुए भी इनसे बेहतर दंगे कराने वाले अफसर हैं। क्या कहते हैं आप?
-एम. रियाज़ हाशमी
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