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जीना इसी का नाम है : 75 बरस के नेत्रहीन का अनुभव ‘मुहब्बत ऐसा दरिया है
‘बादशाहों का इंतज़ार करें, इतनी फुर्सत कहां फ़क़ीरों को’
ये शेर डा. नवाज़ देवबंदी का है लेकिन इसकी मिसाल हैं ग़मग़ीन कुरैशी। एक ऐसा शख्स जो 75 बरस उम्र और नाबीना (नेत्रहीन) होने के बावजूद गज़ब का हौसला रखता है। गुमनामी के अंधेरों में अपने जज्बात की रोशनी कम नहीं होने देता। उसकी सूनी आंखों में अहसास का समंदर है और एक लहर आकर बता रही है, ‘मुहब्बत ऐसा दरिया है।’ ताज्जुब तो ये भी है कि यह एकमात्र शख्स है जिसने कबीर की जीवनी को 1975 में काव्य संग्रह का रूप दिया।
बेहद गऱीब इस नाबीना शख्स ने अपनी जवानी में कभी लाठी का सहारा नहीं लिया तो बुढ़ापे में किसी की आर्थिक मदद का मोहताज क्यों रहे। शनिवार को ग़मग़ीन कुरैशी की गज़लों के एक संग्रह ‘मुहब्बत ऐसा दरिया है’ का सीडी फॉरमेट में पहली बार लोकार्पण होने जा रहा है। शायरी ऐसी कि आंखें नम हो जाएं। आप भी अंदाज़ लगाइये कि जीवन भर अकेले जीने वाला कोई शख्स क्या मुहब्बत की गहराईयों में इस कद्र उतर सकता है।
‘मुहब्बत ऐसा दरिया है
कि बारिश रुक भी जाए तो
मुहब्बत कम नहीं होती।
कभी फरजाना होता है
कभी परवाना होता है
जुनून-ए-इश्क में ये हाल
दीवानों का होता है।
के अपना घर जलाकर भी
किसी को ग़म नहीं होता
मुहब्बत ऐसी वादी है
मुहब्बत ऐसा सहरा है
कोई रुत हो, कोई मौसम
मुहब्बत ऐसा जज्बा है
जहां फूलों के खिलने का
कोई मौसम नहीं होता।’
कुछ ऐसी ही और गज़लें भी इस दरिद्र के अहसास की झोली से निकलीं जिन्हें एम. नौशाद मलिक ने गाया है। इसी लोकार्पण समारोह का कार्ड हमें ग़मग़ीन कुरैशी तक ले गया। सहारनपुर के निवर्तमान कमिश्नर आरपी शुक्ल की कविता और गज़लों की पिछले दिनों रिलीज़ हुई सीडी से ग़मग़ीन कुरैशी भी प्रेरित हुए। मगर, दरिद्रता आड़े आ गई। कईं लोगों से संपर्क किया कि एलबम बनवाने में कितना खर्च आता है और खर्च सुनकर खामोश बैठ गये। कुछेक लोगों से आग्रह किया तो सबने हाथ खींच लिए। कहते हैं, ‘मैं भी कोई अफसर होता तो कई संगठन खर्च उठाने को तैयार हो जाते।’ बहरहाल, मुश्किल से ही सही कई लोग मिले। एक सामाजिक संस्था और नौशाद मलिक के प्रयासों से यह हसरत भी पूरी हुई।
मूल रूप से शाहजहांपुर की तहसील जलालाबाद के धींवरपुरा गांव में पैदा हुए ग़मग़ीन कुरैशी के पिता नवाब रामपुर के खानसामा थे। 8 बरस की उम्र में यहीं से उन्हें अलीगढ़ में अहमदिया ब्लाइंड स्कूल में पढऩे भेजा गया। ब्रेल लिपि से इंटर तक शिक्षा हासिल की और पिता की मौत के बाद पहले दिल्ली फिर रुड़की रहते हुए 35 बरस पहले सहारनपुर में आकर बस गये थे। अलीगढ़ में रहते हुए ही शायरी का शौक हुआ। परिवार में अकेले हैं और शादी भी नहीं की। 1974 में 128 पेज का काव्य संग्रह ‘नशेब-ओ-फऱाज़’ लिखा। 1986 में 100 गज़लों का संग्रह ‘दर्द-ओ-ग़म’ लिख डाला।
1975 में ‘कबीर पर शायरी’ शीर्षक से नज्म (कविता) संग्रह लिखा। इसमें कबीर की जीवनी को पहली बार काव्य रूप में पेश किया गया जिसे कबीर एकेडमी आगरा ने प्रकाशित किया था। इसमें लिखा, ‘पाला था जिसकी पत्नी ने सतगुर कबीर को, नीरू उसी गऱीब जुलाहे का नाम था।’ दूरदर्शन और आकाशवाणी पर अक्सर बुलाये जाते हैं। नेत्रहीनता कितनी रुकावट बनती है? इस पर कहते हैं, ‘तूफां का खौफ यूं मेरे दिल को जऱा नहीं, अल्लाह तो है साथ अगर नाखुदा नहीं।’ मन की आंखों से देखकर और लोगों की ज़बानी सुनकर आम आदमी के दर्द को महसूस किया और लिखा, ‘हमको चमन में रह के हुए हैं ये तजुर्बात, खुशबू गुलों में होती है लेकिन वफा नहीं।’ मगर ग़मग़ीन का यह अंतिम तजुर्बा नहीं, वे कहते हैं, ‘जिसकी फितरत में जऱा सी भी वफ़ा मिलती है, उसको दुनिया में बड़ी सख्त सज़ा मिलती है।’
जि़दगी की कड़वी सच्चाई को चार पंक्तियों में ग़मग़ीन कुरैशी इस तरह बयान करते हैं, ‘पीना पड़ा ये सोच के ज़हर-ए-जुदाई को, सुनता है कौन टूटे दिलों की दुहाई को। पत्थर की तरह काट दी मैंने तमाम उम्र, लेकिन तरस ना आया खुदा की खुदाई को।’ पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल के परिचितों में रहे इस शख्स को 1975 में तत्कालीन केंद्रीय शिक्षा मंत्री प्रो. नूरुल हसन ने 2 हजार रुपये की डिस्टिंक्शन ग्रांट से नवाज़ा था। सबसे अहम बात ये है कि यह शख्स आज तक कभी न तो चर्चाओं में रहा और न ही इसकी उपलब्धियों पर कोई ख़बर लिखी गई। पहली बार दैनिक जागरण ने इस शख्सियत से दुनिया को रू-ब-रू कराया है।
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