Shivendra Mohan Singh
- 6 Posts
- 39 Comments
अहंकार की थी पराकाष्ठा
उन्मत्त थे बोल
शासन बना था कुशासन
मेढ़ खाती थी खेत
रखवाला बना था सेंधमार
सीमाएं थी असुरक्षित
शत्रु हो रहे थे प्रबल
सर ऊंचे हो रहे थे बागिओं के।
प्रजा थी परेशां
एक आंधी सी आई
छंटा तब कुहाषा
काली बदली से निकला
आशाओं का सूरज
मन की उमंगों ने ली
एक अंगड़ाई
सुनहले दिनों की
एक आभास आई।
Read Comments