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भाग… डीके बोस..!

meri awaaj
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फ़िल्म अभिनेता आमिर खान आजकल एक टीवी शो पर बहुत चिंतित नजर आ रहे हैं. कन्याभ्रूण हत्याओं से, दहेजलोभियों से, डॉक्टरों की मनमानी से, प्यार के दुश्मनों से. लोगबाग बागबाग हुए जा रहे हैं कि आमिर जैसे कलाकार के कितने उच्च विचार हैं. टीवी शो से बाहर आमिर भी बागबाग हैं. आखिर फ़िल्मस्टार्स को न्यूज में बने रहने के लिये तरह-तरह के हथकंडे अपनाने होते हैं. मि.परफ़ेक्शनिस्ट बिजनसमैन हैं और जनता की नब्ज पकड़ना जानते हैं. उन्हें पता है कि पब्लिक का इमोशनल दोहन कैसे किया जाता है. इस टीवी शो से वे यही काम कर रहे हैं.

कन्याभ्रूण हत्या, दहेज प्रथा तथा ऑनर किलिंग लिंग, जाति और धर्म की विसंगतियों से पोषित सामाजिक मुद्दे हैं. अपने पक्ष में उनके अलग तर्क हैं. लेकिन कुछ गलत लोगों की वजह से एक पूरे प्रोफ़ेशन पर, एक ऐसे नोबल प्रोफ़ेशन पर जिसकी नींव ही विश्वास पर टिकी हो, ब्लैटेंट हमले करने से पहले आमिर को सोचना चाहिये कि अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिये वे रक्षा में हत्या तो नहीं कर रहे. वे विद्रूपता हटाने का प्रयास कर रहे हैं या गलतफ़हमियां बढ़ाने का. इसका नतीजा सकारात्मक होगा या नकारात्मक? मैं बात कर रहा हूं चिकित्सासेवा में फ़ैले भ्रष्टाचार के लिये डॉक्टरों को दोषी ठहराने वाले आमिर के आरोपों की.

निंदक कहते हैं: फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़े 90% लोग कास्टिंग काउच में लिप्त हैं. कास्टिंग काउच यानि यौन शोषण. पहले सिर्फ़ लड़कियां इसका शिकार होती थीं, अब लड़कों के होने के मामले भी सामने आये हैं (प्रसिद्ध गायक सोनू निगम ने एक जानेमाने फ़िल्मी पत्रकार पर ये आरोप लगाये थे). तो क्या मान लिया जाये कि आमिर भी इसमें लिप्त हैं? उनके खिलाफ़ तो सबूत भी है. ’दिल है कि मानता नहीं’ के बाद अभिनेत्री पूजा भट्ट ने खुद आमिर पर ऐसे आरोप लगाये थे. एक ब्रिटिश महिला पत्रकार से आमिर के अवैध संबंधो और उससे उत्पन्न एक बच्चे तक की चर्चा मीडिया में छाई रही और आमिर इसका समर्थन या खंडन तक नहीं कर सके. दो बच्चों के पिता, 18 साल बाद अपनी ‘प्रेम’विवाहित पत्नी को तलाक देकर अपनी सेक्रेटरी से ‘पुन:प्रेम’विवाह करनेवाले आमिर जनता को ‘प्रेम’ की कद्र करना सिखा रहे हैं, घोर आश्चर्य की बात है! करोड़ों की कमीशन खाकर कीटनाशक मिली पांच रुपये की कोकाकोला को साठ रुपये में खरीदकर पीने के लिये उकसानेवाले आमिर दवा की बढ़ी कीमतों से चिंतित हैं ये और भी घोर आश्चर्य की बात है. ’थ्री इडियट्स’ में शूशू करने, चड्ढी उतारने, ‘स्तन तो सभी लड़कियों को होते हैं लेकिन यह वे किसी को देती नहीं’ जैसे फ़ूहड़ डायलॉग भरनेवाले, ‘देलही बेली’ जैसी सड़कछाप फ़िल्म बनानेवाले व्यापारी आमिर टीवी पर संस्कृति और सदाशयता के झंडाबरदार बने हुए हैं..! वाट ए जोक..!

खैर, आमिर पर कीचड़ उछालना मेरा मकसद नहीं है. जो कुछ आमिर ने कहा वो पूरी तरह गलत भी नहीं है. निश्चित रूप से डॉक्टर्स के बीच भी ऐसे भ्रष्ट तत्व मौजूद हैं जो इस पेशे की छवि मलिन करते हैं. लेकिन पूरी डॉक्टर बिरादरी पर उंगली उठाना सिर्फ़ सस्ती लोकप्रियता पाने का प्रयास है. डॉक्टर-रोगी के नाजुक संबंध को संदेह से भरने के अलावा इसने कुछ नहीं किया. क्या आमिर ने सोचा कि जो डॉक्टर पूरी ईमानदारी से काम करते हैं अब उन्हें भी शक की नजर से देखा जायेगा. इसका खामियाजा सिर्फ़ मरीज को भुगतना होगा क्योंकि आमिर की तरह सब अमेरिका/��ूरोप जाकर दसगुणा सस्ता(?) इलाज नहीं करा सकते.

अगर आमिर को लगता है कि भारत में अच्छी स्वास्थ्य सुविधायें मंहगी हैं तो उन्हें बताना चाहिये कि क्यों आज सस्ते इलाज के लिये पश्चिमी देशों से लोग भारत आ रहे हैं? आमिर को कोई बढ़िया अस्पताल खोलने में होनेवाले खर्चे का भी अंदाजा होना चाहिये. एक डॉक्टर को प्रारंभिक पढ़ाई और उसके बाद अच्छी ट्रेनिंग लेने में १०-१२ साल का बेहद कठिन परिश्रम करना होता है ऑलमोस्ट फ़ाकाकशी की स्थिति में, तबतक खासकर महिला डॉक्टर्स की शादी की उम्र भी निकल जानेवाली होती है. ये हाल उनका है जो 50 लाख का डोनेशन देकर नहीं बल्कि प्रतियोगिता परीक्षाओं में कंपीट कर (जिसमें अभी आरक्षित और अनारक्षित कुल सीटों को मिलाकर भी सफ़लता की औसत दर मात्र 0.8% है), मेडिकल कालेज में एडमीशन लेते हैं. इतने त्याग के बाद भी क्यों डॉक्टर्स से ही हमेशा चैरिटी करने की उम्मीद की जाती है? क्या उन्हें अच्छा जीवन जीने, बच्चों की अच्छी पढ़ाई कराने का हक नहीं है? इसके बावजूद जो अच्छे डॉक्टर चैरिटी करते हैं क्या उन्हें सरकारी तंत्र से प्रोत्साहित किया जाता है? नीम हकीमी से केस को जटिल बना देनेवालों पर क्या अंकुश है? सरकारी नौकरियों में ट्रेंड डॉक्टरों को वरीयता न देकर ‘कुछ और’ ही को वरीयता दी जाती है, ऐसा क्यों? अनट्रेंड डॉक्टर को किसी अनुभवी सीनियर की अनुपस्थिति में प्रैक्टिस करने की सरकारी इजाजत क्यों है? और एक गंभीर आरोप कि डॉक्टर कमीशन खाकर घटिया दवा लिखते हैं…आखिर ऐसी घटिया कंपनियां अस्तित्व में हैं क्यों? किसने दिया है उन्हें लाइसेंस? किसी दवा का मूल्य क्या डॉक्टर निर्धारित करते हैं? भ्रष्ट सरकारी तंत्र की बदौलत आज बीस हजार से ज्यादा सरकारी लाईसेंसशुदा फ़ार्मास्युटिकल कंपनियां बाजार में हैं. क्या ये हर डॉक्टर के लिये संभव है कि वह हर कंपनी की विश्वसनीयता अपने स्तर पर जांचता फ़िरे?

टीआरपी के लिये सिस्टम की अनियमितताओं का ठीकरा डॉक्टरों के सर मत फ़ोड़िये मि.आमिर. डॉक्टर सबसे कम उग्र प्रोफ़ेशनल्स हैं इस दुनिया में तभी आपकी हिम्मत हुई बिना सबूत उन्हें टारगेट करने की. कभी नेताओं, अंबानियों, इस्लामी कट्टरवादियों या अपनी ही फ़िल्म बिरादरी में व्याप्त कुकर्मियों पर ऐसी हल्लेबाजी करके दिखाओ तो पता चल जायेगा कि आपका यह टीवी शो समाज का सुधार है या आपका व्यापार.

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