KANAK
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एक दिन मेरी बात हुई
नगर के कोतवाल से
मैंने पूछा क्या खुश हो
नगर के हालचाल से
उसने कहा क्या बताऊँ
दुविधा बड़ी भारी है
कहीं लगती खुशहाल जिंदगी
कहीं विपदा ही न्यारी है
कहीं होते जलसे
बड़े बड़े शामियानो में
कहीं सोते भूखे बच्चे
खंडर बने मकानों में
महापुरुषों की मूर्तियों को
पंछी गंदा करते हैं
फाइलों में बनता है सच
मनमाना धन्धा करते है
ऊँची ऊँची बनी इमारत
जहां जगहं थी हरी भरी
गुज़रती गलियों से लडकियां
अब बहुत ही डरी डरी
मंदिर अब सूने पड़े हैं
लोग सिनेमा जाते हैं
वेद कुरान छोड़कर लोग
अंग्रेजी गीत गाते हैं
शिक्षा बनी बड़ा व्यापार
वसूल बनाते हैं ठेकेदार
खूंटी पर टंगे नैतिक मूल्य
बढ़ रहा नारी दुराचार
रसूक के घर भरते पानी
खुद्दार के घर कंगाली अब
इस नगर को कैसे बचाऊँ
कैसे करूं रखवाली अब
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