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लाख बातें कर लो मगर हासिल क्या?

राजनीतिक सरगर्मियॉ
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दुनियां के बारे में भले ही आपकी समझ कुछ कम हो लेकिन जिस समाज में आप रहते हैं और जिस दुनियादारी का ज्ञान आपको बस चलते-फिरते हो जाता है उसके बारे में अकसर आपकी समझ बिलकुल सटीक बैठती है. सदियों से दबी-कुचली नारियों को देखते, समझते और उनकी बेचारगी भरी हालत पर अफसोस जताते लोगों से आपका पाला भी पड़ा ही होगा. अफसोस जताने वाले भी बेहद होशियार हो चुके हैं इसलिए उनके अफसोस जाहिर करने का अंदाज कुछ ऐसा होता है कि आप ये नहीं समझ सकते कि उनका अफसोस सच्चा है या बस खानापूर्ति या कि फिर वे मज़ा ले रहे हैं. हॉ, आप को जैसे भी समझना हो आप समझ लीजिए, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता.


कहा जाता है कि स्त्री-पुरुष एक गाड़ी के दो पहिए हैं और जीवन की गाड़ी को रफ्तार देने के लिए दोनों पहियों का ठीक रहना जरूरी है, लेकिन अकसर ऐसा नहीं होता. जहॉ आपको लगे कि यहॉ तो सब ठीक होगा वहॉ की हकीकत पर जरा गहराई से नजर दौड़ाइए. आपको कुछ भी ठीक नजर नहीं आएगा. जहॉ प्रगति की राह ज्यादा तेज रही वहॉ नारी की अस्मिता अधिक खतरे में पड़ी है.


अभी एक उदाहरण भारत का लेते हैं. भारत के पिछड़े कहे जाने राज्यों में मादा भ्रूण हत्या नहीं के बराबर है. ये अलग बात है कि इन  पिछड़े राज्यों में चिकित्सा सुविधाओं की कमी के कारण ज्यादातर मौतें होती हैं लेकिन यदि आप विकसित कहे जाने वाले हरियाणा-पंजाब जैसे राज्यों से इनकी तुलना करें तो आपको पिछड़े राज्य स्त्री अस्मिता की रक्षा के मामले में बेहतर नजर आएंगे.


दिल्ली की बात करना बेमतलब है. कहने को राष्ट्र की राजधानी लेकिन महिलाओं की सुरक्षा के लिहाज से सबसे अधिक बदनाम. महिलाओं के साथ बदतमीजी और छेड़छाड़ की सर्वाधिक घटनाओं के लिए कुख्यात.  लेकिन आप इसे दिल्ली तक सीमित मत समझिए. लगभग सभी मेट्रो शहर एक जैसे हैं और स्त्रियों के लिए बराबर रूप से असमान व्यवहार के लिए बदनाम. हॉ, इनकी चमक के आगे नारी की कराह का क्या मोल?


एक बार विकसित देशों की ओर निगाह डालें. इन देशों में नारी स्वातंत्र्य और नारी अस्मिता और अस्तित्व की बाते खूब जोर-शोर से की जाती हैं लेकिन “नारी केवल और केवल भोग की वस्तु है” ये कॉंसेप्ट भी यहीं मजबूत हुआ है. इन देशों की आधुनिकता की चकाचौंध में अंधी होती पीढ़ियां केवल भोग को सब कुछ मान नारी के साथ दुराचार की नई-नई कहानियां लिख रही हैं. और हम हैं कि नारी स्वातंत्र्य और नारी अभिव्यक्ति का मानक इन्हें ही मान बैठे हैं. ये वाकई शर्मनाक है.


अभी सरकारी स्तर पर नारी के उत्थान के कॉंसेप्ट पर नजर दौड़ाइए तो आपको सबसे ज्यादा निराशा यहीं होगी. नारी अस्मिता  और नारी उत्थान के नाम पर चलाए जा रहे कार्यक्रम केवल कागजी खानापूर्ति भर हैं. और नारी उत्थान के नाम पर केवल आर्थिक पक्षों को सामने रखा जाता है जबकि मामला आर्थिक से कहीं अधिक है.


सवाल नजरिए का है. आप नारी के सम्मान और नारी के अस्मिता के सवाल को झुठला नहीं सकते और किसी अन्य देश की परंपरा के अनुसार अपनी नीतियां नहीं बना सकते. ध्यान रहना चाहिए कि हर संस्कृति की अपनी अनूठी विशेषता होती है और समाज की मनोदशा तय करने में उस देश की हजारों बरस से चली आ रही परंपरा और रीति-रिवाजों का खासा योगदान होता है.


भारत की स्त्रियों के बारे में कोई भी समझ कायम करते समय हमें उन वस्तुनिष्ठ कारकों को जरूर देखना होगा जिनसे समाज की दिशा निर्धारित होती है. और शायद तभी हमें वो राह नजर आ सकती है जिन पर चलकर नारी उत्थान का सपना साकार हो सकता है.



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