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आक्रोश, उन्माद और प्रपंच – सत्याग्रह पर ग्रहण

राजनीतिक सरगर्मियॉ
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अन्ना से चली सुधार की बयार शायद आंधी में तब्दील हो गयी कि आखिरकार सरकार को तानाशाही रवैया दिखाना ही पड़ा. रामलीला मैदान पर मौजूद भीड़ को तितर-बितर कर बाबा रामदेव की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को खत्म करने का सरकारी प्रयास रंग लाया और योग गुरु को हरिद्वार के अपने आश्रम तक सीमित होना पड़ा. हालांकि इस पूरे घटनाक्रम के दौरान सरकारी दमन का चक्र आम जनता को भुगतना पड़ा जो योगाचार्य के आह्वान पर दिल्ली में इकट्ठे हुए थे.


सत्याग्रह का राजनीतिक इस्तेमाल पहले भी होता रहा है लेकिन अभी हाल की घटनाओं ने इसकी सारी सीमाओं को पार लिया है. अन्ना हजारे ने सत्याग्रह को हथियार बनाया और सरकार ने झुकने का नाटक करते हुए देश को भ्रमित किया. बाबा रामदेव ने जारी जनाक्रोश को देखते हुए सही समय पर एक और सत्याग्रह का आयोजन किया ताकि इस समय देश में चल रही परिस्थिति का राजनीतिक तौर पर फायदा उठाया जा सके. और सरकार की उनके आंदोलन के प्रति अपनायी गयी कठोरता ने उन्हें ये मौका दे भी दिया है.


यकीनन देश में भ्रष्टाचार को लेकर एक तरह का तनाव व्याप्त है. जनता राजनीतिज्ञों से आजिज आ चुकी है और उसकी मनोदशा तो ऐसी हो चली है कि राजनीति और राजनीतिज्ञों का नाम आने पर उसका मुंह वितृष्णा से भर जाता है. लेकिन व्यवस्था के आगे उसकी बेबसी इतनी ज्यादा है कि वह चर्चा और बहस करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकती. यही कारण है कि ऐसा कोई भी व्यक्ति या संगठन जो भ्रष्टाचार को एक एजेंडे के रूप में लेकर सामने आएगा जनता उसी का समर्थन करने लगेगी. अन्ना के अनशन के मामले में हम ऐसा देख चुके हैं और अब बाबा रामदेव के अभियान के दौरान भी ऐसा ही कुछ देखने को मिल रहा है.


जहॉ तक बात सरकार और राजनीति की है तो सभी को ये भली-भांति मालूम है कि उनके भरोसे कुछ भी छोड़ने लायक नहीं क्योंकि गत छः दशक के दौरान उन्होंने लगातार जनता के साथ विश्वासघात किया और अपना विदेशी और देशी एकाउंट भरते रहे. इसलिए ऐसी सरकार से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह खुद के लिए कोई मुसीबत पैदा करेगी. जनलोकपाल कानून हो या भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई अन्य कठोर कदम, सरकार का रुख बिलकुल साफ है कि वह ऐसा कोई भी कदम नहीं उठाने वाली जिससे उसके मंत्री घेरे में आ जाएं. आखिर सत्ता भी कोई चीज होती है और सत्ता को ये अधिकार है कि जनता के ऊपर कैसा भी अत्याचार करे, लेकिन जनता को उसे सहना होगा. कांग्रेस नीत गठबंधन वाली यूपीए सरकार के भ्रष्टाचरण और धनलोलुपता के बारे में कोई दो राय नहीं हो सकती.


बाबा रामदेव को मिला जनसमर्थन इसी दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए. हालांकि बाबा रामदेव की राजनीतिक आकांक्षा के बारे में पूरा देश जानता है लेकिन आज जबकि भ्रष्टाचार केवल आर्थिक मामला ना रहकर भावनात्मक मामला बन चुका है तो इस प्रकरण पर जो भी सामने आएगा उससे जुड़ना ना केवल जरूरी है बल्कि ऐसा होना भी चाहिए. राजनीति के अपराधीकरण, मंत्रियों, नेताओं के अनैतिक कृत्यों में लिप्त होने और वोट की राजनीति के कारण देशद्रोह में शामिल हो जाने को कैसे नजरअंदाज कैसे किया जा सकता है.  कैसे देश उन दुष्टों को माफ कर सकता है जो भारत मां की वंदना करने की बजाय उसका चीरहरण कर रहे हैं.


बात व्यक्ति या उसके व्यक्तित्व की नहीं बल्कि सार्वभौम उद्देश्य की होनी चाहिए. और भारत राष्ट्र के लिए सबसे आवश्यक उद्देश्य है उसकी राजनीतिक सुचिता और पवित्रता. देश सेवा जैसे वचनों का सहारा लेकर सत्ता में आए राजनेताओं की महत्वाकांक्षा इस कदर बढ़ चुकी है कि अब उनके लिए दंडात्मक प्रावधान के अतिरिक्त कोई और चारा नहीं…. और देश उसी रास्ते पर आगे जा रहा है जिसके विरुद्ध आरोपित की जा रही बाधाएं सरकार और उसके सलाहकारों की पोल खोलने के लिए काफी हैं.

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