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बदलते समीकरण

राजनीतिक सरगर्मियॉ
राजनीतिक सरगर्मियॉ
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लालू प्रसाद परिदृश्य से ओझल दिख रहे हैं. नीतीश कुमार का कद बढ़ चुका है. राजनीतिक दलों  में ये संदेश फैल चुका है कि अब सत्ता में वही आएगा जो विकास की राजनीति करेगा. भाजपा अपनी उपलब्धि पर फूल के कुप्पा है और केन्द्र में पुनः सत्तासीन होने का ख्वाब देखने लगी है. लालटेन में तेल चुक गया और विकास की लहर उसे बहा ले गयी. पासवान मुर्झा गए. कांग्रेस अपनी इज्जत ये कह के बचा रही है कि उसने तो बस अभी जमीन तैयार की है और वो पहले से जानती थी कि इस बार उसे कुर्सी नहीं मिलने वाली.


लेकिन इन सब के बीच कुछ मूलभूत बातों पे गौर किए बिना बिहार और खासकर उत्तर भारत की राजनीति का विश्लेषण अधूरा ही रहेगा. उत्तर भारत में सभी राज्यों में आजादी के बाद से लगातार सवर्ण मुख्यमंत्री चुने जाते रहे. पिछड़े-दलितों की राजनीति में केवल इतनी भागीदारी थी कि वे अपना शासक चुनते थे या राजनीतिक दलों में निचले पदों पे कहीं बैठे रहते थे. किंतु बीपी सिंह ने जब मंडल आयोग की रिपोर्ट को बन्द बक्से से निकाल के सामने किया तो पिछड़े-दलितों में एक नई चेतना का संचार हुआ. खासकर पिछड़ा तबका जो अब तक राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं था उसमें अचानक बेहद सक्रियता देखी जाने लगी. वोट की राजनीति ने जातीय विभाजन की नींव मजबूत की और जातीय तनाव का स्तर भी बढ़ा. इसने एक साथ कई नए और अप्रत्याशित परिणाम दिए.


लालू प्रसाद ने बिहार में पिछड़ों के अंदर स्वाभिमान जगा दिया साथ ही साथ इससे नव धनाड्य और नव सामंती वर्ग का भी उद्भव हुआ. अब दलित वर्ग पहले से कहीं ज्यादा प्रताड़ित होने लगा. क्योंकि इस नए दबंग वर्ग के लिए मानवता और सबको अपना समझने के भाव का कोई अर्थ नहीं था. उत्तर प्रदेश सहित अन्य उत्तर भारत के राज्यों में दलितों के विरुद्ध अत्याचार में भारी वृद्धि हुई प्रतिक्रियास्वरूप दलित चेतना भी विकसित होने लगी.


चूंकि लालू प्रसाद अपनी नीति को आगे नहीं ले जा सके और उन्होंने उसे केवल सत्ता के लिए इस्तेमाल कर छोड़ दिया इसलिए नीतीश कुमार के पास एक बेहतर अवसर था कि वे स्वाभिमान के साथ विकास की भी राजनीति कर मुख्य परिदृश्य में आ जाएं. एक समय जब किसी व्यक्ति का स्वाभिमान जाग जाता है तब उसे आर्थिक विकास की भी जरूरत दिखने लगती है. लेकिन लालू भ्रम में रहे और यहीं उनसे चूक हो गयी. लेकिन नीतीश की जीत से लालू द्वारा जगाए गए स्वाभिमान को आगे चल सकने की ताकत मिली क्योंकि कोई भी स्वाभिमान बिना आर्थिक विकास के जिन्दा नहीं रह सकता है.


नीतीश की जीत ने एक बात और सिद्ध किया है कि अब शायद ही आने वाले दशक तक उत्तर भारत के राज्यों में कोई मुख्यमंत्री ऊंची जाति का होगा. यानी दलित-पिछड़ी चेतना अब ताकत बन चुकी है और वह स्वयं सत्ता में रह के अपने वजूद का उद्घोष कर रही है. लेकिन एक बात पर जरूर विचार करने की जरूरत है. वह है कि कहीं इस ताकत का कोई गलत लाभ ना उठा सके. स्वाभिमान को जगाने और राष्ट्र के विकास में सीधी भागीदारी की बात तक तो सब ठीक है किंतु गलत इरादों से लैस कोई भी राजनीतिक दल या व्यक्ति इस उभरती ताकत का रुख व्यर्थ के विवादों की ओर ना मोड़ दे. यदि ऐसा हुआ तो फिर एक संघर्ष की धारा फिर से चल पड़ेगी जो अंततः राष्ट्र हित के विरुद्ध ही होगी.

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