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वक्त है नादां अब भी संभल जा

राजनीतिक सरगर्मियॉ
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प्राचीन भारत की गौरवशाली संस्कृति की गवाह बिहार की भूमि पर चुनाव की रणभेरी बज चुकी है. सरकारी स्तर पर पारदर्शी और निष्पक्ष चुनाव करवाने की पूरी तैयारियां की गयी हैं. सुरक्षा तंत्र को सचेत और सतर्क कर दिया गया है. चुनाव आयोग कमर कस कर खड़ा है कि कहीं से भी कोई फर्जी मतदान या बूथ कैप्चरिंग की घटना नहीं होने देगा. दागी उम्मीदवारों पर निरीक्षण तेज कर दिया गया है,  हमेशा निष्क्रिय रहने वाली सरकारी मशीनरी भी सक्रिय है. कुल मिलाकर जोर इस बात पर है कि कैसे भी चुनाव बिना किसी दन्द-फन्द के निपट जाए तो खैर…………..


कांग्रेस के युवराज राहुल ने सभी सीटों पर अपने प्रत्याशियों को जिताने के लिए अपनी मशहूर छवि के खिलाफ जाते हुए कई अपराधियों और दागी लोगों को टिकट दे रखा है. लालू यादव अपनी खोई ताकत पाने के लिए पैंतरे बदल रहे हैं. पासवान के साथ उनका गठबंधन कितना रंग दिखाएगा ये तो वक्त ही बताएगा. नितीश कुमार दुबारा सत्तासीन होने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं. भाजपा के साथ उनका अभियान कितना आगे बढ़ेगा और मुसलमान उनके कितने साथ रहते हैं इसका आंकलन चल ही रहा है.


बिहारी मजदूरों का अपने राज्य से पलायन लालू प्रसाद के वक्त से होना आरंभ हुआ. बिहार में काम धन्धे के नाम पर अपहरण, फिरौती, लूट, बलात्कार का साम्राज्य स्थापित कर लालू ने पूरा पन्द्र्ह साल का लंबा समय निकाल लिया. अच्छा हुआ जो जेपी जिन्दा नहीं हैं वरना उन्हें आत्महत्या ही करनी पड़ती अपने इस शिष्य की कारस्तानी को देखकर. जीजा-सालों की मनमानी और फिर पेटीकोट सरकार का शासन………….बड़े दुर्दिन देखे हैं बिहार ने.


राहुल से जनता को कुछ आशाएं बंध रही थी. कांग्रेस ने सभी सीटों पर अकेले लड़ने का फैसला किया तो आस जगी कि शायद राहुल कुछ तो बेहतर करेंगे ही. कम से कम कोई अपराधी उनकी शरण तो नहीं ही पाएगा. लेकिन उम्मीदों के विपरीत उन्होंने भी सामान्य चलन को अपनाया और दुनियां भर के अपराधियों को टिकट दे डाला. कुल मिलाकर वही पहले का माहौल दिखाई दे रहा है लेकिन एक बात शायद अधिकांश नेता और राजनीतिक दल भूल रहे हैं और वह यह है कि अब बिहार का मतदाता एक पीढ़ी पहले वाला नहीं रहा जिसे विकास की बजाय विनाश में उलझा कर मतों का ध्रूवीकरण कर लिया जाता था.


बिहारी शब्द जिसे दुनिया गाली की तरह इस्तेमाल करने लगी है उसी बिहारी शब्द को गौरव और सम्मान का शब्द बनाने को आतुर नई पीढ़ी सच जानती है. अब जाति, धर्म, क्षेत्र से ऊपर उठकर विकास का सूरज उसने देख लिया है. उसे पता है कि आज बिहारी होना निंदात्मक क्यूं है. और इसी अभिशाप से मुक्त होने की छटपटाहट बिहार में देखी जा रही है. हालांकि नेता भी इतनी आसानी से हार मानने वाले नहीं हैं और वो अपनी पुरजोर कोशिश में लगे हैं कि कैसे भयादोहन कर सत्तासीन हुआ जाए.


बिहारी लोगों की पीड़ा एक उदाहरण से समझा जा सकता है. एक बार मैं वैशाली ट्रेन में चढ़ा उसमें बिहार के कई लोग पहले से बैठे थे (ये ट्रेन बिहार से दिल्ली तक जाती है). उनमें आपसी परिचर्चा हो रही थी. एक सज्जन जो कि बिहार के मुजफ्फपुर जिले के थे उन्होंने कहा कि बिहारी होना अपमान जनक क्यूं माना जाता है आप जानते हैं? पुनः उन्होंने जवाब देते हुए कहा कि क्यूंकि आज बिहार का अर्थ है पिछ्ड़ा, जंगली, असभ्य और गंवार………..जिसे कोई सऊर ना हो. लेकिन ये हमारी वास्तविक हालत नहीं बल्कि हमारे नेताओं द्वारा दिया गया उपहार है. यदि हमारे लोग इस सच को समझ लें और अपना उद्धार खुद के हाथों में ले लें तो स्थिति बदल सकती है.


उनका आक्रोश जायज था. वो अपने लोगों की मूर्खता या यूं कहें कि नादानी से विक्षुब्ध थे और चाहते थे कि नई पीढ़ी तो इस सच को समझ ही जाए. वो चाहते थे कि बिहारी शब्द गाली ना होकर गौरव का प्रतीक बन जाए. समृद्ध, विकसित, चमकता बिहार उसी प्राचीन गौरव को फिर से पा ले और जिस तरह कभी वह भारत का सिरमौर हुआ करता था उसी तरह आने वाले दशकों में विश्व का सिरमौर बन जाए.

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