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क्रूर प्रतिआक्रमण की नीति वैकल्पिक नहीं बल्कि अनिवार्य बनानी होगी – Jagran Junction Forum

राजनीतिक सरगर्मियॉ
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बात जब निकली है तो दूर तलक जाएगी ही. बात हो रही है पाकिस्तान पर अमेरिका जैसी कार्यवाही की. मतभेद की बड़ी स्थिति मौजूद है, बौद्धिक जगत इस मसले पर दो फांट में बंटा हुआ है. कहीं भी एक राय हो पाने की स्थिति पैदा नहीं हो रही है इसलिए लोकमत भी कुछ निश्चित कह पाने का साहस नहीं कर पा रहा है. कट्टर राष्ट्रवादी कह रहे हैं कि पाकिस्तान को उसके किए की सजा मिलनी चाहिए और उसके जमीन पर पोषित हो रहे आतंकी अड्ड़े नष्ट कर दिए जाने चाहिए. उदार राष्ट्रवादियों की राय एकदम जुदा है. वे किसी भी आक्रामक कार्यवाही की बात सिरे से नकारते हैं और एक नियंत्रित संतुलन की बात करते हैं.


ऐसे में बिना दोनों पक्षों की बात सुने जाने और पर्याप्त चिंतन के एकतरफा निर्णय लोकतंत्र के विरुद्ध माना जाएगा और जनआवाज को अनदेखा किए जाने का मामला पैदा हो सकता है. हमें देखना होगा कि क्या पाकिस्तान-अमेरिका-भारत का त्रिकोण और भारत-पाकिस्तान, भारत-अमेरिका तथा अमेरिका-पाकिस्तान के बीच सीधा समीकरण स्थापित हो रहा है या कोई ऐसे पेंच हैं जिनके बिना पर अमेरिका तो कार्यवाही करके भी प्रशंसा पा रहा है वहीं कहीं भारत कार्यवाही करके आलोचना और उपहास का पात्र ना बन जाए.


शक्ति संतुलन का सिद्धांत और वैश्विक कूटनीति ये वे पहलू हैं जिनके आलोक में पूरी स्थिति पर गहराई से नजर डाली जा सकती है. भारत और अमेरिका का रिश्ता कैसा है ये भी उतना ही महत्वपूर्ण तत्व है जिसके आधार पर हम किसी निर्णय पर पहुंच सकते हैं. पहली बात ये है कि भारत हमेशा से कमजोर विदेश नीति संचालित करता रहा जिसमें कभी किसी मजबूत इच्छा शक्ति वाले प्रधानमंत्री के काल में थोड़ा सा फर्क जरूर देखने को मिला. यानि नेतृत्व के संकल्प शक्ति का अभाव भी इसमें एक प्रेरक तत्व है.


अमेरिका की ताकत और उसकी राष्ट्रवादी नीतियों पर किसी को कोई शक नहीं हो सकता. वह किसी भी हालत में अपने हितों से कोई समझौता नहीं करता ये जगजाहिर है और यही कारण है कि समय-समय पर उसके द्वारा की गयी कार्यवाहियों की निंदा होने के बावजूद उसने किसी के आगे सर नहीं झुकाया. जहां तक बात सामरिक क्षमता की है तो पूर्व सोवियत गणराज्य के बाद उसके लिए कोई चुनौती नहीं. वह आराम से कभी भी कहीं भी विचरण कर सकता है और किसी के भी संसाधनों का इस्तेमाल करने की हिमाकत भी जब तब कर ही लेता है. यानि अमेरिका से पंगा लेने की सोचना भी किसी देश के लिए घातक सिद्ध हो सकता है.


पाकिस्तान में अमेरिकी कार्यवाही के बाद पाकिस्तान केवल गीदड़ भभकी ही दे सकता है जबकि अमेरिका पुनः ऐसी सैकड़ों कार्यवाहियां अंजाम दे सकता है. ओसामा को मार गिराने का मामला कुछ इसी नजरिए से देखा जाना चाहिए. जबकि भारत एक सॉफ्ट स्टेट के रूप में पहले ही बदनाम हो चुका है. जो देश अपनी तमाम आंतरिक समस्यायों से खुद निपटने में सक्षम ना हो उससे ये कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वो पाकिस्तान पर आक्रमण करके उसके यहॉ मौजूद आतंकी अड्डों को नेस्तनाबूद कर देगा. और यदि मान लिया जाए कि भारत ऐसा करने की हिम्मत कर भी जाए तो क्या वह उसके बाद होने वाले विनाशकारी अंजाम से पार पाने में सक्षम है. मुझे नहीं लगता कि जिस देश में शीर्ष नेतृत्व भ्रष्ट और स्वार्थी है और जिसे अपना बैंक अकाउंट भरने से फुर्सत नहीं वो किसी कड़े कदम की सोच भी पाएगा. इसलिए इस मुद्दे पर वाद-विवाद और बहस चाहे जितनी हो जाए किंतु ये कभी भी कार्यरूप में परिणत नहीं होगा.


जहॉ तक बात भारत और पाकिस्तान के बीच सामरिक संतुलन और क्षमता की बात है तो इस मामले में भी भारत कोई खास मजबूत नहीं. भारतीय सैन्य प्रतिष्ठान पहले ही कह चुके हैं कि किसी भी सैन्य कार्यवाही की दशा में भारत का पलड़ा बहुत मजबूत नहीं रहेगा इसलिए यदि कोई ऐसा कदम उठाया जाता है इसे दुस्साहस ही कहा जाएगा. भारत को अंतरराष्ट्रीय जगत में कोई विशेष समर्थन नहीं मिलने वाला और वैश्विक प्रतिबंध आरोपित होंगे ये भी निश्चित है. पाकिस्तान के समर्थन में पूरा अरब समुदाय एकजुट होकर सामने आ जाएगा और फिर भारत को अपनी लाज बचानी मुश्किल हो सकती है.



किंतु सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि वस्तुस्थिति कुछ भी हो लेकिन क्या भारत को हर ज्यादती चुपचाप सह लेनी चाहिए और याचना की पुरानी नीति का अनुसरण करते रहना चाहिए. क्या भारत निरीह की भांति पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठनों के छद्म युद्ध को बर्दाश्त करता रहे और जब तब जेहाद के नाम होने वाले हमले निर्दोष मासूमों का खून बहा कर खुश होते रहें. कतई नहीं, ये हरगिज नाकाबिले बर्दाश्त है. कोई भी राष्ट्रवादी अपनी धमनियों में उबल रहे रक्त को यूं ही पानी नहीं होने देगा. विवेकसम्मत कार्यवाही और देखो और इंतजार करो की नीति उसे मंजूर नहीं हो सकती बल्कि अब वह सीधी कार्यवाही चाहता है. राष्ट्रवादी देशभक्तों की जमात अब ना तो किसी भी आंतरिक गद्दार को सहन करने की हालत में है और ना ही विदेशी घुसपैठियों को. पाकिस्तान में पल रहे भारत विरोधी किसी भी दुश्मन की आंख निकाल कर ही उसे खुशी मिलेगी और ऐसा करने के लिए विवेक को ताक पर रखे बिना काम नहीं चलने वाला.


बार-बार राष्ट्रवादियों को कमजोर बौद्धिक जमातें विभिन्न तर्कों से हतोत्साहित करने का प्रयास करती रही हैं क्योंकि उन्हें कोई भी परेशानी नहीं चाहिए. युद्ध तो हमेशा  समस्या लाता है लेकिन क्या दुष्टों को दंड दिए बिना काम चलेगा? क्या समर्पण और अहिंसा की नीति से वे सुधर जाएंगे. नहीं, इसे सिर्फ हमारी कायरता मानेंगे वे और पहले से कहीं ज्यादा उग्र रूप अख्तियार कर हम पर हमले करेंगे. हमारी सहिष्णुता और संयम का उनके लिए कोई अर्थ नहीं क्योंकि जेहादी मानसिकता से पोषित आतंकी और उनके आकाओं को केवल क्रूर प्रतिआक्रमण की बात समझ में आती है.

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