नई दिशा की ओर
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माता मेरी पुन: बंदिनी …
आज़ादी की साँस मिली थी, पल भर की मुस्कान लिये
बाल अरुण की आभा बिखरी जैसे नया विहान लिये
निकली जैसे सदा सुहागन, निज अपनी पहचान लिये
पूतों पर थी गर्व कर रही चौहद्दी का मान लिये
सिंह वाहिनी, हाथ तिरंगा, पथ प्रशस्त बढ़ चली गर्विणी …
नहीं जानती थी वो भोली ऐसे दिन भी आएंगे
जब उसकी संतानों के ही रक्त नीर बन जाएंगे
ज़ाफ़र मीर कोई उनमें, और कुछ जयचंद बन जाएंगे
अपनी माँ को ही राहों में, कर निर्वस्त्र घुमाएँगे
छाती पीट-पीट कर देखो बिलख रही वो राजनंदिनी …
बाट जोहती रोती जाती ज़ार-ज़ार वो लट खोले
सवा लाख से एक लड़ाने वाला कोई तो बोले
सवा सौ करोड़ पुत्र हों जिसके, बने नपुंसक से ढोले
मारो वो हुंकार कि अबकी थल काँपे, अम्बर डोले !
बना अभागा देश पुकारे, माता मेरी पुन: बंदिनी …
(चित्र गूगल इमेजेज़ से साभार)
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