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तू कितनी अच्छी है… तू कितनी भोली है…

नई दिशा की ओर
नई दिशा की ओर
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       प्राय: पुराने समय की सभी की माँ सीधी ही होती थीं, या होती हैं, परन्तु मेरी माँ कुछ ज़्यादा ही सीधी थीं । इतनी कि कभी-कभी कोफ़्त होती कि आज के युग में ऐसा भी क्या सीधा होना, कि कोई जो चाहे समझा ले और फ़ायदा उठा ले । अपने जीवन के बीच-बीच के कुछ वर्ष ही मुझे माँ के साथ रहने का मौक़ा मिला था, और आज इस एहसास से परम संतोष होता है, कि माँ के आखिरी वक़्त में मुझे उनकी सेवा का भरपूर मौका भी मिला, साथ ही उन्होंने अपनी अन्तिम साँस भी मेरी मौज़ूदगी और सेवा के दौरान ही ली थी । संयोग या दुर्भाग्य कहा जाय, पिताजी या मेरे बड़े भाई साहब को यह सौभाग्य प्राप्त नहीं हो पाया,  माँ के आकस्मिक निधन तथा अलग-अलग स्थानों पर काफ़ी दूर होने के कारण । अन्य संस्कार ही उनके हाथों सम्पन्न हो पाए ।

      बचपन के दिनों में हमारा सबसे पसन्दीदा समय वह होता था, जब सरयू माई को सेहरा चढ़ाने का कार्यक्रम बनता । कार्यक्रम की प्रमुख संचालिका तो घर की मालकिन दादी (ईया जी) होतीं, परन्तु क्रियान्वयन की बागडोर माँ ही संभालतीं । पाँच मील दूर सरयू के तीर तक जाने के लिये किसकी लढ़िया (बैलगाड़ी) जाएगी, उसमें बैल अपने वाले जुतेंगे, या गाड़ी वाले के, कौन-कौन महिलाएं और बच्चे तिरपाल ढंकी लढ़िया के अन्दर बैठकर जाएंगे, तथा कौन-कौन से पुरुष सदस्य लढ़िया के साथ साइकिल से या पैदल चलेंगे, यह सारा फ़ैसला ईया जी लेती थीं । वही यह भी तय करतीं कि इस बार कड़ाही चढ़ाने का पड़ाव सरयू तीर के किस हिस्से की तरफ़ होगा । कड़ाही चढ़ाने अर्थात सरयू माई को चढ़ाए जाने वाली सामग्री पूड़ी, सब्ज़ी और शुद्ध देसी घी से बने आटे के हलवे को तैयार करने की ज़िम्मेदारी माँ सम्भालतीं । आँख में जलती लकड़ी के धुएं की चुभन के बावज़ूद हम कड़ाही के पास ही बैठे माँ को हलवा-पूरी बनाते देखते रहते, और सरयू माई को चढ़ने से पूर्व ही देसी घी की वातावरण में फ़ैलती खुशबू का जी भरकर लुत्फ़ उठाते । फ़िर सारे पकवान सहित घर से ही माई को चढ़ाने के लिये लाई गई तैयार पियरी (पीले रंग एवं हल्दी से रंगी धोती, जिसके नाम पर एक भोजपुरी फ़िल्म ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो’ भी बन चुकी है) और सेहरे के फ़ूल, तथा सरपत और मूंज से बटी हुई बहुत लम्बी रस्सी के साथ पूरा लावलश्कर एक बड़ी सी नाव पर सवार होकर सरयू माई को सेहरा बाँधने के लिये धार के बीच उतर जाता । नदी में उतरने से पूर्व रस्सी का एक छोर इस पार गड़े एक खूंटे के साथ बाँध दिया जाता, और मंसूबा यह होता कि दूसरा छोर उस पार पहुँचकर दूसरे खूँटे के साथ बाँध कर माई का सेहरा पूरा करना है । लेकिन ऐसा कभी हो नहीं पाया । सरयू माई के काफ़ी चौड़े पाट के बीच या तो कभी मंझधार में, या उनकी बहुत कृपा हो गई, तो दूसरे किनारे से कुछ ही दूर रहते रस्सी टूट जाती । फ़िर भी यह मान लिया जाता था कि माई ने सेहरा स्वीकार कर लिया है, और नाव वहीं से वापस इस किनारे पर लौट आती ।

      इस नाव यात्रा में मेरा व्यक्तिगत संस्मरण मात्र वह एहसास है, जो तब माँ के प्रति उपजती खीझ, परन्तु आज उस ममत्व को सोचकर भर आती आँखों के साथ पैबस्त है ।  जैसे-जैसे नाव धार के बीच गहरे उतरती जाती, नाव के चारों ओर किनारे बैठे बड़े लोगों के बीच जाकर उन्हीं की तरह सरयू माई की लहरों का आनन्द लेने के लिये मेरी अकुलाहट भी बढ़ती जाती । लेकिन माँ ने मेरी यह इच्छा कभी पूरी नहीं होने दी । मैं रो-रो कर छिटकने के लिये मचलता जाता, और माँ मुझे उतनी ही दृढ़ता के साथ अपने कलेजे से लगाकर भींचती जाती, कि कहीं उसका लाल अपनी अबोध चपलताओं के कारण उसकी गोद से छिटक कर सरयू माई की उफ़नती धार में न समा जाय । मुझे आज ये पंक्तियाँ याद आती हैं–

‘अपना नहीं तुझे सुख-दुख कोई,

मैं मुस्काया तू मुस्काई, मैं रोया तू रोई,

मेरे हँसने पे, मेरे रोने पे, तू बलिहारी है,

ओ माँ… ओ माँ… !’

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