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आयातित सांस्कृतिक आक्रमण – “jagranjunction Forum”

नई दिशा की ओर
नई दिशा की ओर
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        विदेशी आयातित संस्कृति के भारत पर हो रहे निरन्तर हमलों का ही परिणाम है, कि आज लियोन जैसी शख्सियतों को हमारे उस देश में सेलीब्रिटी बनने का गौरव हासिल हो पा रहा है, जहाँ अभी मात्र कुछ दशक पूर्व ही सिनेमा के पर्दे पर महिला कलाकारों की मामूली बेपर्दगी और बोल्ड सीन्स पर पूरे देश में बावेला मच जाया करता था । सिने पत्रकार से लेकर देश के बुद्धिजीवी व जागरूक सामाजिक गणमान्य व्यक्तियों का एक स्वर से किया गया विरोध सेन्सर बोर्ड को झेलना पड़ता था । यह सब कुछ कल ही की बात जैसा प्रतीत होता है । परिदृश्य इतनी तेज़ी से बदल चुके हैं, तथा बदलते जा रहे हैं, कि सम्भवत: बहुत निकट भविष्य में ही जागरण जैसे मंच भी ऐसे विषय पर बहस कराना एक आउटडेटेड कवायद की श्रेणी का मानने लगेंगे । ऐसे विषयों पर चलाई जा रही बहस आज की एक अपडेटेड आवश्यकता है, जिसपर अभी कल तक खुली चर्चा करने की भी हमारे समाज में किसी की हिम्मत नहीं हो पाती थी । हँसी आती है यह सोच कर, कि हमारे समाज में अब पोर्न संस्कृति भी परदा उतारकर अपनी स्वतंत्रता की मांग करने लगी है, जबकि आज भी हमारा बहुसंख्यक समाज अपनी त्याज्य रूढ़ियों तक से भी बाहर निकल पाने में खुद को असमर्थ पाता है । दरअसल इस मांग की प्रवृत्ति भी उसी वर्ग-संघर्ष का एक लक्षण मात्र है, जिसने आज हमारे समाज को अभिजात्य व परम्परावादी नाम के दो खेमों में बाँट दिया है, और जिसके बीच की खाई दिन पर दिन अलंघ्य बनती जा रही है ।
          तस्लीमा नसरीन एक विवादित लेखिका रही हैं । अपनी बेबाक़ प्रस्तुतियों ने उन्हें अपने देश से निर्वासित होने को बाध्य किया । उनकी बिन्दास अभिव्यक्ति भारत की भी एक बड़ी आबादी को रास नहीं आती, हम सभी जानते हैं । परन्तु यह तो मानना ही पड़ता है कि उनके निशाने पर हमेशा समाज की ऐसी दुखती रग ही रही है, जिसका कटु सत्य से बड़ा क़रीबी रिश्ता हुआ करता है । ‘लज्जा’ भी एक ऐसी ही कड़वी सच्चाई थी, जो सामाजिक कठमुल्लेपन के हिमायतियों को हजम नहीं हुई । सनी लियोन के संदर्भ में की गई उनकी टिप्पणी का सामाजिक हाजमे से कोई रिश्ता है या नहीं, यह तो आने वाला समय बताएगा, परन्तु उनकी टिप्पणी ने हमें हमारे वास्तविक खतरों की तस्वीर से रूबरू कराने का कार्य किया है, इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिये ।
भूमन्डलीकरण, आर्थिक उदारीकरण के परिणामस्वरूप हमारे लिये स्वाभाविक रूप से प्रतिकूल सुविधाओं व आदतों से जुड़ी सामग्री का जबरन परोसा जाना, तथा संचार और आवागमन के द्रुत माध्यमों के कारण सिमट कर एक छोटे से गाँव में तब्दील हो चुकी दुनिया एक अजीब से पीड़ा के दौर से गुजर रही है । इस पीड़ा को हर शख्स, हर समाज महसूस कर रहा है, और इसका एहसास कुछ-कुछ प्रसव-पीड़ा, या फ़िर विजातीय ट्रांस्प्लान्टेशन के पश्चात शरीर द्वारा किसी प्रत्यारोपित अंग विशेष को स्वीकार न कर पाने के बावज़ूद उसे स्वीकार करने की विवशता भरी छटपटाहट जैसा प्रतीत होता है । यह द्रुत गति से हो रहा सांस्कृतिक ट्रान्सप्लान्टेशन का दौर है, जो कब तक पीड़ादायी बना रहेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता । फ़िलवक़्त हमारे घरों में दो काम एक साथ हो रहे हैं । एक तरफ़ म्यूजिक सिस्टम पर भगवद्भजन की स्वरलहरियाँ गूँज रही हैं, आरती का कर्णप्रिय गायन सुना जा रहा है, तो उसी घर के एक कमरे में किसी एक पीढ़ी का कोई प्रतिनिधि अपना लैपटाप खोलकर पश्चिमी से लेकर देसी पोर्नस्टार्स के चौरासी आसनों का छुप-छुप कर आनन्द लेने में मग्न है । क्या पहले भी ऐसा कभी हुआ था ? निश्चय ही जवाब नकारात्मक ही होगा । फ़ेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स का इस्तेमाल हर शख्स अपनी-अपनी ज़रूरत के हिसाब से कर रहा है । बहुआयामी सुविधाएं मुहैया कराने वाली इन साइट्स पर हर व्यक्ति और संस्था की ज़रूरतों के हिसाब से सुविधाएं उपलब्ध हैं । व्यापारी और कार्पोरेट से लेकर खबरची, लेखक रचनाकार तथा वल्गरिटी और पोर्न के शौकीन सभी अपने-अपने हिसाब से नेट पर भिड़े हुए हैं । यूट्यूब पर रामायण, महाभारत, गीता, बाइबिल और कुरान से सम्बन्धित आडियो-वीडियो की यदि भरमार है, तो एक ही क्लिक पर आप सीधे विश्व भर के पोर्नस्टार्स एवं नानस्टार्स के साथ प्राकृतिक-अप्राकृतिक जैसी भी आपकी रुचि है, वैसी रतिक्रिया का प्रशिक्षण व आनन्द लेने के लिये पलक झपकते पहुँच सकते हैं । अब यह आप सोचिये कि दो ध्रुवों की दूरी सदृश अलग-अलग मानसिक आवश्यकताओं को आप कैसे एक साथ जी पाते हैं, वह भी विकृतियों की पराकाष्ठा के साथ । यह वही देश और समाज है, जहाँ पति घर के अन्य वरिष्ठ-कनिष्ठ सदस्यों की नज़र में रात को सोने के लिये घर से बाहर हो जाया करता था, और रात को कब, कैसे घर में घुसकर निकल भी आया, किसीने नहीं देखा । बच्चों की पैदाइश ही इस बात का प्रमाण होती थी, कि उसने पत्नी का मुँह भी देखा है । आज संस्कारों से सम्पन्न इस देश की ‘लज्जा’ का चीरहरण होता देखकर यदि तस्लीमा व्यथित हैं, तो इसपर बहस की गुंजाइश कहाँ है ?
          उपरोक्त तथ्यों के परिपेक्ष्य में कहा जा सकता है कि, सनी लियोन जैसी शख्सियतों को यदि इस देश में महत्व प्राप्त होना शुरू हो चुका है, तो यह इस बात का प्रमाण है कि भूमन्डलीकरण और संचारक्रांति के बाई प्रोडक्ट आयातित सांस्कृतिक इन्फ़ेक्शन ने अब हमारे समाज पर अपना असर डालना शुरू कर दिया है, जो विश्व बिरादरी में अपनी एक विशिष्ट पहचान रखने वाले इस देश के स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त घातक है । यह देश सदियों से विश्व भर के भटके पथिकों को सुख-शांति व आध्यात्मिक शिक्षा का संदेश देने वाली धरती के रूप में जाना जाता रहा है, और सच कहा जाय, तो इससे इतर हमारी अपनी कोई पहचान है भी नहीं । गहराई से देखा जाय, तो इंफ़ेक्शन की जड़ें इतने गहरे उतर चुकी हैं, कि उपचार यदि असम्भव नहीं, तो इतना कठिन ज़रूर हो चुका है, कि अत्यन्त दृढ़ सामाजिक व राजनीतिक इच्छाशक्ति ही हमें इस संक्रमण से निज़ात दिला सकती है, जो फ़िलहाल कहीं नज़र नहीं आती । दूसरे कुछ देश अपनी आन्तरिक सांस्कृतिक पहचान को इस महामारी से बचाने के लिये हमसे बहुत पहले सजग हो चुके थे, और उन्होंने यथासम्भव बीच का रास्ता निकाल पाने में बिना कोई क्षति उठाए, सफ़लता भी प्राप्त की है । उनसे सीख लेकर भी हम कुछ कर पाएंगे, इसमें संदेह है, क्योंकि दृढ इच्छाशक्ति के मामले में हम उनके आगे आज कहीं नहीं ठहरते ।

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