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अन्ना आंदोलन ने दिखाई देश को ‘उम्मीद’ की राह
लोकपाल बिल के मुद्दे पर 2011 मे अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में ‘जनलोकपाल’ की मांग रखने वाला आंदोलन एक देशव्यापी भ्रष्टाचार-उन्मूलन-आंदोलन मे तब्दील हो गया जिससे मानो समूचा-भारत एकजुट हो कर ‘अन्ना’ के साथ खड़ा हो गया। सरकार ने भी आंदोलन को मिलती जबर्दस्त प्रतिक्रियाओ को देखते हुए आनन-फानन मे ‘टीम अन्ना’ से वार्ताए प्रारम्भ की।
लोगो को उम्मीद थी की अब देश को एक ‘सशक्त’ लोकपाल मिलेगा, और ‘भ्रष्टाचार-मुक्त-भारत’ का सपना साकार होगा पर असल मायनो में अन्ना आंदोलन को वो सफलता नहीं मिल पाई जिसकी उसने ‘उम्मीद’ और ‘आस’ जगाई थी। लोगो ने अन्ना को ‘आधुनिक गांधी’ तक मान लिया था। गौरतलब है की पूर्व आयकर आयुक्त और समाजसेवी और अब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने इस आंदोलन मे ‘सारथी’ का रोल निभाते हुए आंदोलन में अहम भूमिका निभाई थी। अंतत: बेशक राजनीति के जानकार इसे एक ‘असफल-आंदोलन’ करार दे पर सत्यता यह है कि इस आंदोलन ने ही देश और देश की राजनीति को एक अलग राह दिखाई।
गैर-राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन की कोख से निकली ‘आप’
उल्लेखनीय है कि सरकार के रवैये से निराश हो कर अरविंद केजरीवाल ने अन्ना से अलग होते हुए ‘आम आदमी पार्टी’ नामक राजनीतिक पार्टी बना ली। हालाकि उस समय आंदोलन मे उनकी अहम साथी रही पूर्व आईपीएस ऑफिसर एवं समाजसेवी किरण बेदी और अन्ना हज़ारे ने खुद को राजनीति से दूर रखना ही बेहतर समझा।
केजरीवाल ने कहा था कि हम देश की राजनीति को बदलने आये हैं……एक स्वच्छ, भ्रष्टाचार मुक्त और सिद्धान्तयुक्त राजनीति करने आये हैं… उन्होंने आम आदमी पार्टी के मूल्यों और सिद्धांतो को अन्य राजनितिक पार्टियो से अलग बताया। यही नहीं केजरीवाल ने सभी नेताओ को ‘चोर’ और ‘भ्रष्टाचारी’ के रंग में भी ‘रंग’ डाला। एक के बाद एक कई खुलासे किये और कई राजनेताओ पर सबूतो के साथ अलग-अलग दोषारोपण किए। महत्वपूर्ण है कि उन्होंने किसी भी मामले को उसके ‘अंजाम’ तक नहीं पहुँचाया. चाहे वो ‘रोबर्ट वाडरा-डीएलएफ़ से जुड़ा मामला हो या फिर नितिन गडकरी से, मीडिया में मामले आते, सुर्खियां, बनाते, केजरीवाल सुर्खियां बटोरते और चले जाते। नितिन गडकरी से जुड़े एक मानहानि के मामले में तो केजरीवाल को जेल की हवा तक खानी पड़ी थी। याद रहे उन्होंने किसी भी नेता पर आरोप लगाने से पहले किसी भी विश्वसनीय जांच एजेंसी से सबूतो की जांच नहीं कराई थी। संभवत: सबका सत्यापन स्वयं अरविंद केजरीवाल ने ही किया था।
लोकसभा चुनाव से मिला ‘आप’ को राजनीति का सबक
2013 के नवंबर मे हुए दिल्ली विधान सभा चुनावो मे आम आदमी पार्टी ने 28 सीट जीत कर सभी राजनीतिक समीकरणों को एकदम से बदल दिया। महत्वपूर्ण था कि उन चुनावो मे दिल्ली मे किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था। दूसरी तरफ बीजेपी के सरकार बनाने से मना करने के बाद, आप पार्टी पर भी दबाव बढ्ने लगा था। इसके लिए पार्टी ने सरकार बनाने के मुद्दे पर लोगो से राय भी मांगी थी। जिसके बाद इतिहास रचते हुए अरविंद केजरीवाल ने काँग्रेस के समर्थन के साथ दिल्ली मे ‘आप’ की पहली सरकार बनाई। केजरीवाल ने ‘जनलोकपाल’ के समर्थन के मुद्दे पर 49 दिन मे ही मुख्यमंत्री पद से हड़बड़ाहट मे इस्तीफा दे दिया। शायद उन्हे इल्म था कि लोगो की सहानुभूति का फायदा उन्हे आगामी 2014 के लोकसभा चुनाव मे मिलेगा, पर ऐसा नहीं हुआ, पार्टी की झोली मे केवल पंजाब से 4 सीटें आयी। इस चुनाव से आप को सबक मिला की राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने के लिए उन्हे सबसे पहले राज्यो मे अपनी जड़े मजबूत करनी पड़ेगी। अरविंद केजरीवाल को दिल्ली की क्षेत्रीय राजनीति मे दोबारा लौटना पड़ा।
दिल्ली मे ‘आप’ की ऐतिहासिक जीत
दिल्ली मे लगभग एक साल तक राष्ट्रपति शासन रहा जिसके बाद आखिरकार नसीब जंग ने विधान सभा भंग करने की सिफ़ारिश करते हुए दिल्ली मे पुनः चुनावो का रास्ता खोल दिया। गौरतलब है लोकसभा चुनावो के नतीजो के बाद से ही आम आदमी पार्टी दिल्ली मे दोबारा चुनाव कराने की मांग करने लगी थी। 7 फरवरी को दिल्ली मे मतदान हुए और 10 को नतीजो के ऐलान के साथ ही देश मे एक नया राजनीतिक इतिहास लिख गया। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली मे सभी पार्टीयो का सफाया करते हुए 70 मे से 67 सीटे जीत कर अपना दमखम दिखा दिया।
‘आप’ मे क्या है विवाद पनपने की ‘जड़’?
उल्लेखनीय है कि जब दिल्ली में आप की सरकार भारी बहुमत के साथ बनी तो राजनीतिक रणनीतिकरों ने अनुमान लगाया कि भविष्य मे देश को भाजपा के समक्ष एक मजबूत विपक्ष आम आदमी पार्टी के रूप में मिल जरूर सकता है। मसलन सभी को मालूम है कि राष्ट्रीय पार्टी का तमगा लिए बैठी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की हालत राज्य और केन्दीय स्तर पर लगातार दयनीय होती जा रही है। यहाँ तक की इस बार पार्टी संसद के लोकसभा सदन में विपक्ष के नेता का पद हासिल करने में भी नाकामयाब रही है.
अब बड़ा प्रश्न यह है की आप पार्टी मे इतनी भारी जीत मिलने के बाद भी ‘टूटन’ के असर क्यों आ गए हैं। गौरतलब है दिल्ली में सफलता के बाद पार्टी के वरिष्ठ नेता और तत्कालीन पी.ए.सी. सदस्य योगेन्द्र यादव ने मीडिया में बयान दिया की आम आदमी पार्टी दिल्ली के अलावा देश के अन्य राज्यो मे भी पार्टी का विस्तार करेगी। वहीँ अरविन्द केजरीवाल का मानना था कि पार्टी को अपना पूरा ध्यान दिल्ली में लगाना चाहिए। दिल्ली के सीएम के तौर पर एक भाषण में उन्होंने कहा, “हमारे कुछ नेता विस्तार की बात कर रहे हैं. मैं कहता हूं ये सब ग़लत है. हम केवल दिल्ली में काम करेंगे.” पार्टी के कुछ और वरिष्ठ नेता इस मुद्दे पर केजरीवाल के साथ खड़े दिखाई दिए।
‘आप’ के ‘हमराज़’ बने केजरीवाल के लिए ‘संकट’?
इसके तुरंत बाद पार्टी के एक और वरिष्ठ नेता शांति भूषण ने मीडिया में बयान दिया की केजरीवाल को संयोजक के पद से इस्तीफा देकर योगेन्द्र यादव को जिम्मेदारी सौप देनी चाहिए। असली विवाद यहीं से शुरू हुआ, केजरीवाल ने गुस्से में आकर संयोजक पद छोड़ने की पेशकश कर दी। इस के उलट पार्टी ने प्रस्ताव पारित कर केजरीवाल को पी ए सी का पुनर्गठन का विशेषाधिकार दे दिया. पी ए सी की मीटिंग से पहले ही केजरीवाल अपना इलाज़ कराने बैंगलोर चले गए इधर पी ए सी ने सर्वसम्मति के साथ प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव को पी ए सी से निष्काषित कर दिया.
इसके बाद विवाद ने एक ‘विकराल’ रूप ले लिया। योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण के समर्थन में आप के कई ‘वालंटियरो’ ने आगे आकर अपना विरोध दर्ज कराया। केजरीवाल के ऊपर पार्टी के भीतर से ही तानाशाही के आरोप लगने लगे। आई ए सी आंदोलन से ही जुड़े रहने वाले पार्टी के वरिष्ठ नेता मयंक गांधी ने इशारो-इशारो में केजरीवाल पर अपने ब्लॉग के माध्यम से निशाना साधा। बाद में बेशक उन्होंने सफाई देते हुए कहा है कि उनका मकसद केजरीवाल पर हमला करना नहीं बल्कि पार्टी में पारदर्शिता और सिद्धांतों को बढ़ावा देना है।
आप ने सही ठहराया ‘यादव’ और ‘भूषण’ का निष्काषन
आम कार्यकर्ता के भारी विरोध को देखते हुए पार्टी ने प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव के निष्काषन को सही ठहराया। तर्क दिया गया की दोनों दिल्ली चुनाव से पूर्व पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल थे जिससे पार्टी दिल्ली विधानसभा चुनाव में हार जाए और केजरीवाल को संयोजक के पद से हटाने के लिए आधार बनाया जा सके। दूसरी तरफ योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण ने खुद का बचाव करते हुए सफाई दी की उन्होंने कभी पार्टी के खिलाफ कोई काम नहीं किया अपितु अरविन्द केजरीवाल ने बहुत सारे जरुरी मुद्दों पर पार्टी के मूल्यों और सिद्धांतो पर समझौते किए जो उन्हें पार्टी हित में स्वीकार नहीं थे। योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण ने भी ‘आप’ को साझा पत्र लिखकर करारा जवाब दिया जिसमे उन्होने केजरीवाल पर पार्टी के मूल्यो और सिद्धांतों को आहुति देने का आरोप लगाया है।
केजरीवाल पर स्टिंग का आया सनसनीखेज ‘टेप’
इसी बीच आप के अंदर ‘विवाद’ कुछ हद तक थमा ही था कि आप के ही पूर्व विधायक राजेश गर्ग ने सनसनीखेज ऑडियो टेप जारी करते हुए दावा किया है दिल्ली में विधानसभा भंग होने से पहले अरविंद केजरीवाल कांग्रेस के 6 विधायकों को तोड़ कर दिल्ली मे सरकार बनाना चाहते थे। इस टेप ने दिल्ली की राजनीति मे और सरगर्मी पैदा कर दी। इसके बाद काँग्रेस के पूर्व विधायक आसिफ मोहम्मद खान ने अरविंद केजरीवाल एवं आप के नेताओं के दो और टेप होने का दावा किया किन्तु वह मीडिया मे अभी तक कोई भी ऐसा टेप नहीं पेश कर पाए हैं जिससे उनकी बात सत्यापित की जा सके।
क्या दम तोड़ देगी ‘आप’ की जन्मी ‘उम्मीद’?
एक तरफ पूर्व विधायक राजेश गर्ग ने आरोप लगाया है कि यह ऑडियो पार्टी के वरिष्ठ नेता और कविवर कुमार विश्वास ने लीक करवाया है तो दूसरी ओर कुमार विश्वास ने अपनी सफाई मे कहा है कि राजेश गर्ग चुनाव से पहले हमें टिकट पाने के लिए ब्लैकमेल कर रहे थे। उन्होने एक न्यूज़ चैनल पर दावा किया कि वह यह ‘टेप’ पार्टी को पहले ही सौप चुके थे। सवाल उठता है कि कुमार विश्वास और पार्टी ने यह बात ‘मीडिया’ और ‘जनता’ के बीच मे क्यों नहीं रखी? क्या वह इस सच को दबाना चाहते थे कि केजरीवाल इस ‘तथाकथित-स्टिंग’ मे काँग्रेस के विधायकों को तोड़ने की बात कर रहे हैं। केजरीवाल को जनता को बताना चाहिए था कि वह काँग्रेस के विधायकों को कैसे तोड़ने वाले थे? इसी नई राजनीति की बात केजरीवाल अपनी चुनावी भाषणो मे करते थे? केजरीवाल ने कहा था ‘हम स्वच्छ राजनीति करना सिखाने आए है”… क्या जोड़-तोड़ स्वच्छ राजनीति का प्रतीक है? यही जोड़ने-तोड़ने की राजनीति सिखाने आए थे ‘आप’ राजनीति मे?
लेखक: रोहित श्रीवास्तव
(आलेख मे प्रस्तुत विचार लेखक के निजी विचार है)
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