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भारतीय राजनीति की प्रकृति सर्वदा ही ‘अपूर्वानुमेय’ रही है, कई बार कुछ ऐसे राजनीतिक घटनाक्रम होते हैं जो आपको अचंभित कर एक बार सोचने पर अवश्य विवश करते हैं। मसलन, सत्यता यह भी है कि भारतीय राजनीति अचंभो और करिश्मों के मिश्रण से फलती-फूलती है। हाल मे ही केजरीवाल की आप पार्टी द्वारा दिल्ली मे 70 मे से 67 सीट जीतना भी किसी करिश्मे से कम नहीं था।
आखिरकार काफी वार्ताओ के बाद जम्मू-कश्मीर को मुफ़्ती मोहम्मद सईद के रूप मे अपना मुख्यमंत्री मिल गया। गौरतलब है कि दिसंबर मे हुए विधानसभा चुनावो मे घाटी के लोगो ने किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं दिया था। भाजपा एवं पीडीपी का यह राजनीतिक-संगम किसी ‘अजूबे’ से कम नहीं है। दो विपरीत-विचारधाराओ की पार्टियो का ‘कॉमन मिनिमम प्रोग्राम’ के सहारे एक साथ सरकार बनाने की पहल करना भारत मे पहली बार नहीं हुआ है। पहले भी ऐसे राजनीतिक-गठबंधन देखे जा चुके हैं। वामदलों ने भी काँग्रेस नेत्रत्व वाली यूपीए-1 सरकार को इसी आधार पर बाहरी समर्थन दिया था। अक्सर ‘राजनीतिक-फायदे’ के लिए दो कट्टर-प्रतिद्वंदी एक मंच पर साथ आ ही जाते हैं। मसलन, राजनीति मे ‘राजनीतिक-मजबूरी’ या ‘विवशता’ नाम की बला भी होती है। संभवत: इसी बला ने भाजपा और पीडीपी को साथ आने के लिए मजबूर किया है।
राजनीति के जानकारो की माने तो भारतीय राजनीति मे ‘नैतिकता’’ और ‘विचारधारा’ का अब कोई स्थान नहीं है। यह कोई पहला वाकया नहीं है जब किसी पार्टी विशेष ने ‘सत्ता के लोभ’’ मे नैतिकता और विचारधारा का गाला घोटा हो। याद रहे दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री और ‘आप’ पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने एक समय मीडिया के सामने अपने बच्चो की कसम खाते हुए काँग्रेस से समर्थन न लेने का वादा किया था। फिर उन्होने ही काँग्रेस के समर्थन के बलबूते दिल्ली मे अपनी 49 दिन वाली पहली सरकार बनाई थी।
‘नैतिकता की हत्या’ का सबसे बड़ा उदाहरण तो आपको बिहार मे देखने को मिलता है जहां एक समय एक-दूसरे के सबसे बड़े राजनीतिक-दुश्मन रहे नितीश और लालू एक ही ‘नांव’ पर सवार हैं। भारत के राजनीतिक इतिहास मे ऐसे कई उदाहरण हैं जिसमे पार्टियों ने ‘नैतिकता’ ताख पर रख कर सत्ता हाथ मे ली है।
बड़ा प्रश्न यह है कि क्या राजनीतिक पार्टियो द्वारा ऐसे ‘राजनीतिक-संगम’, गठबंधन, मेल-मिलाप राजनीति के स्तर को कम नहीं करते हैं? प्रधानमंत्री और तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगो पर वर्षो से घेरते रहे लोजपा अध्यक्ष राम विलास पासवान आज उनके ही मंत्रिमंडल मे केंद्रीय मंत्री है। ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय राजनीति मे नैतिकता ‘सुविधानुसार’ प्रयोग मे लाई जाती है।
अंतिम मे निष्कर्ष के तौर पर यही कहूँगा कि इस ‘नैतिकता’ के जीव को जीवित रखने के लिए कौन पहल करेगा? चुनाव आयोग: जिसके पास कानून बनाने का अधिकार नहीं हैं। यह संवैधानिक संस्था केवल प्रस्ताव बना सरकार को सिफ़ारिशे भेज सकती है। महत्वपूर्ण है कि आयोग द्वारा पूर्व मे भेजी गई कई सिफ़ारिशे केंद्र-सरकार के पास पहले ही विचारधीन हैं। केंद्र मे स्थापित सरकार से उम्मीद लगाना बैमानी जैसे होगा मसलन सरकारे भी हमारे राजनीतिक-तंत्र का ही तो हिस्सा होती हैं।
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