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तेरे अस्तित्व को कुचला गया

Roop ki baatein
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अस्तित्व को कुचला गया,
और जिस्म को नोचा बहुत।
अस्मत लूटी, बाजार में,
सरेराह फिर, सोचा बहुत।।

 

 

जो हो गया, वो गलत था,
अब विरोध का भी स्वर तना।
वो मूक दर्शक हाथ में, लिए मोमबत्ती साथ में,
फिर चल पड़े इंकलाब को,
जैसे हाथों में ले आफ़ताब को।।

 

 

ऐसा लगा हुई क्रांति अब,
की कैसे मिलेगी शांति अब।
हर ओर एक ही स्वर सुना,
मिले फांसी की सजा अकसर सुना।

 

 

चारों ओर हाहाकार था,
अब न्याय ही अधिकार था।
मगर चीखें बदली शोर में,
कुछ ना कर सके तुम और मैं।।

 

 

हुआ कुछ नहीं, हुई मौत फिर,
और झुक गया हर एक सिर।
सब खामोश थे हार पर,
कुछ दिन तक कहा बुरा हुआ,
फिर सवाल उठाया श्रृंगार पर।।

 

 

जैसे हर रोज ही मरती हैं,
एक और ने दम तोड़ दिया।
फिर उठाकर सवाल उसके किरदार पर,
सब ने लड़ाई को छोड़ दिया।।

 

 

फिर कुछ देर मातम का शोर था,
क़ातिल एक नहीं, हर ओर था।
सवाल उठाया कपड़ों पर,
और कहा कुछ तो शर्म कर।।

 

 

निर्लज्ज कहा, कहा तू गलत,
थी तुझमें ही हर एक कमी।
तेरी ही हर भूल है,
क्यों तू एक औरत बनी।।

 

 

अब इंतज़ार था नई लड़ाई का,
किसी नए जिस्म की चढ़ाई का।
कुछ सपने रौंदने बाकी थे,
और अरमान कुचलने काफी थे।।

 

 

ये पल भर का ही जोश है,
यहां कोई भी बेदाग नहीं।
सब खामोश थे, खामोश है,
मोमबत्ती में बची अब आग नहीं।।

 

 

हर रोज ही ये अपराध है होता,
इसे रोकना असम्भव नहीं।
मिले दण्ड कोई कठोर बहुत,
मगर वक्त पर मिल जाए सम्भव नहीं।।

 

 

तू ही बदलाव कोई लाएगा,
ये आग दिल में लगा कर चल।
चल कर्म कर,
वाणी से विरोध को छोड़ दे,
तब आएगा एक बेहतर कल।।

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