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शिक्षा —

विचारों का संसार
विचारों का संसार
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आज हर व्यक्ति अपने संतान को खूब शिक्षित करना चाहता है, ये विशेष कार्य नहीं कर रहे है, यह उनका धर्म है, देव वाणी भी यही कहती है, लेकिन इस धर्म के पीछे अधर्म भी छिपा हुआ है, जो हर किसीको दिखता है, फिर इस महाजंग में धकेल देते है, आज किसी भी शाला में धर्म की शिक्षा, हनुमान की भक्ति अथवा विवेकानंद का ज्ञान नहीं सीखया जाता नहीं कृष्ण के उपदेश को बताया जाता है, सारी शिक्षा नौकरी का माध्यम बन कर रह गयी है, किसको कैसे अपने और मोड़ा जाये यही कवायद चल रही है, हर रोज समाचार पत्रों में विज्ञापन आ रहे है, एक व्यापार हो गया है, हर व्यापारी अपने शिक्षार्थी के बजाय अपनी दुकान को चमका रहा है, किसी भी पद के लिये महिलाओ को प्राथमिकता दी जाती है, क्या पुरुष ज्ञान शून्य हो गये है, मै यह कहकर महिलाओ का अपमान नहीं कर रहा हूँ, केवल महिलाये ही आवेदन करे इस वाक्य की और मेरा इशारा है, अनेक स्थानों पर इनका शोसन हो रहा है, कभी अपने इज्ज्त के खातिर तो कभी जमी हुयी नौकरी के कारण को बचाए रखने के कारणों में से यह एक तो नहीं नहीं है ? यदि ऐसा है तो चिता का विषय हो सकता है ? बड़ी पढाई में यह एक आम हो गया है? कुछ पाना है तो कुछ खोना पड़ेगा का सिद्धांत चल रहा है ? कोई अपनी जमीर बेच रहा है तो कोई खरीद रहा है। यह शिक्षा के आड में दूसरे व्यापार का उद्गम हो रहा है, इसे हम स्वीकार भी कर रहे है, बड़े बड़े धुरंदर इस विषय में पारंगत हो गये है, क्या ऐसी शिक्षा पर कभी विराम लगेगा ?

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