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अन्ना नहीं, अरविन्द की जरूरत है

अंगार
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अब जब अरविन्द केजरीवाल राजनीति में उतर चुके हैं तो बहुत से घरघुस्सू क्रांतिकारी विचारकों के पेट में दर्द होने लगा है| घरघुस्सू क्रांतिकारी वे होते हैं जो घर के भीतर घुस कर बैठे रहते हैं और खिड़की से बाहर लड़ने वालों को सलाह देते रहते हैं कि कैसे लड़ना चाहिए| इन घरघुस्सू क्रांतिकारियों में बहुत से तथाकथित बुद्धिजीवी लेखक भी हैं और कुछ टीवी चैनलों में बैठकर विश्लेषण करने वाले रिपोर्टर भी| ये खुद कुछ नहीं कर सकते, बस कुछ कर गुजरने वालों की कमरों में बैठकर आलोचना करते रहते हैं|


पिछले दिनों एनडीटीवी पर अन्ना हजारे का रालेगन सिद्धि में लिया गया एक साक्षात्कार प्रसारित किया गया था जिसे शायद बहुत से लोगों ने देखा होगा| एनडीटीवी ने इस साक्षात्कार में से अन्ना हजारे की एक आधी-अधूरी बात को लगातार अपने टीवी चैनल पर प्रसारित किया कि ‘….अरविन्द को सत्ता का स्वार्थ हो सकता है…..’ जबकि जिन लोगों ने पूरा साक्षात्कार यदि देखा हो तो उन्हें मालूम होगा कि अन्ना हजारे की बात का यह मतलब नहीं था| बाद में यही बात अखबारों में भी छपी| इसके अलावा भी टीवी चैनल्स और कई अखबार लगातार इस बात पर विश्लेषण करते रहते हैं कि केजरीवाल को राजनीति में उतरना चाहिए या नहीं|


करीब दो वर्ष पहले जब जन लोकपाल की मांग को लेकर देश में अभूतपूर्व आन्दोलन हुआ तब तक अधिकाँश लोग जानते ही नहीं थे कि अन्ना हजारे है कौन, जबकि केजरीवाल से सभी परिचित थे| अन्ना हजारे को तब रालेगन सिद्धि से बाहर ना के बराबर लोग जानते थे| वास्तव में जन लोकपाल आन्दोलन के सूत्रधार तो केजरीवाल ही थे पर अन्ना हजारे की ऐसी एंट्री हुई कि पूरा देश ‘मैं भी अन्ना- मैं भी अन्ना’ करने लगा, लोगों ने इन्टरनेट पर अन्ना हजारे को खंगालना शुरू कर दिया| अन्ना हजारे ही नहीं, इस जन लोकपाल आन्दोलन ने पूरी टीम को एक नई पहचान दी| एक समय तो जन लोकपाल आन्दोलन अपने चरम पर था और पूरा देश इस टीम के साथ जुड़ चुका था, लेकिन प्रकृति का नियम है कि शीर्ष पर कोई भी ठहर नहीं पाया फिर ये तो मात्र एक आन्दोलन ही था, दूध के उफान की तरह उठा और पतीले से बाहर गिर गया| टीम के सदस्य एक-२ कर एक-दूसरे पर दोषारोपण करने लगे और धीरे-२ अलग हो गए| केवल एक केजरीवाल ही थे जो अपनी जगह जमे रहे और अपने सिद्धांतों पर अड़े रहे| वो अन्ना हजारे ही थे जिन्होंने मंच से राजनीति में उतरने की हुंकार भरी थी और वो किरण बेदी ही थी जो नाच-२ कर राजनीतिज्ञों की हंसी उड़ा रही थी| लेकिन अफ़सोस कि अन्ना हजारे पहले तो कदम बढ़ाकर पीछे हट गए और केजरीवाल का साथ छोड़ दिया और अब बार-२ टीवी चैनलों को इन्टरव्यू देकर सठियाने वाली भाषा बोल रहे हैं| ईमानदार होना अपनी जगह है और दिमागदार होना अपनी जगह| इस देश में एक अफवाह फैलते ही अनपढ़ भिखारी भी चमत्कारी बाबा बन जाता है और पत्थर की मूर्तियाँ भी दूध पीने लगती हैं| किरण बेदी को भी डर था कि केजरीवाल के साथ रहकर उनके व्यक्तिगत हित में किये गए कार्य ज्यादा दिन तक सुरक्षित नहीं रह पायेंगे तो वे भी केजरीवाल से अलग हो गईं| जहाज डूबने और चूहे भागने वाली कहावत पुनः चरित्रार्थ हुई|


लेकिन केजरीवाल डटे हुए हैं| केजरीवाल आज उस आम आदमी की आवाज बन चुके जो कहना तो चाहता है पर कहने से डरता है| एक पुरानी समस्या रही है कि ‘who will bell the cat?’ और इसका जवाब अब है – Arvind Kejriwal has belled the cat. बहुत सामान्य सी बात है कि बिना राजनीति के तो देश चल नहीं सकता और मात्र आन्दोलनों से भी देश नहीं चल सकता| यदि आप को लगता है कि राजनीति में भ्रष्टाचार और गंदगी फ़ैल चुकी है तो इसकी सफाई मात्र आन्दोलनों से नहीं हो सकती| इसकी सफाई के लिए आपको राजनीति में उतरना ही पडेगा| राजनीति में आकर ये दिखाना होगा कि कि राजनीति कैसी होनी चाहिए| देश की जनता के सामने आदर्श राजनीति की मिसाल पेश करके दिखानी होगी, प्रतिमान स्थापित करने होंगे| अरविन्द केजरीवाल वही करने की कोशिश कर रहे हैं तो बेवकूफ गीदड़ उनकी टांग खींचकर उन्हें गिराने की कोशिश में लगे हुए हैं| इन बेवकूफ गीदड़ों को ये बात समझ में नहीं आती कि ये बन्दा उनके लिए ही अपनी जान की बाजी लगाए हुए है|


भविष्य में अरविन्द केजरीवाल का स्वार्थ किस ओर करवट लेगा ये अभी तो नहीं कह सकते पर फिलहाल तो अरविन्द अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा को भी दांव पर लगाए हुए हैं| तत्कालीन क़ानून मंत्री और कांग्रेस के कद्दावर नेता की खूनी धमकी के बावजूद अरविन्द केजरीवाल फर्रुखाबाद गए, ये बहुत बड़े जिगर का काम था| घरघुस्सू क्रांतिकारियों और गीदड़ों को इस बात को समझना चाहिए कि कोई उनके अधिकारों के लिए अपनी जान दांव पर लगाए हुए है| साथ नहीं दे सकते तो कम से कम मौन रहकर ही सही नैतिक समर्थन तो दे ही सकते हो| लेकिन हो क्या रहा है? टीवी चैनलों पर और अखबारों में गीदड़ों की बहस जारी है कि अरविन्द को क्या करना चाहिए और क्या नहीं, क्या बोलना चाहिए और क्या नहीं, उनकी भाषा कैसी होनी चाहिए, कैसी मर्यादा होनी चाहिए| कुछ स्वयंभू अक्लमंद पत्रकार और रिपोर्टर जो मात्र अपने टीवी चैनल पर ही शेर हैं और अपनी ही बुलाई गई चर्चा में अपने से ज्यादा किसी को बोलने नहीं देते, अरविन्द केजरीवाल के कार्यों/वक्तव्यों का विश्लेषण करते हैं और उनकी टांग खींचकर खुदको बहुत होशियार समझते हैं| ऐसे रवीश कुमारों और अभिज्ञान प्रकाशों को मैं कहना चाहूंगा कि अगर तुम्हारी पत्रकारिता में इतना ही दम है तो इसे समाज की भलाई के लिए इस्तेमाल करो, सही को सही और गलत को गलत कहना सीखो, सिर्फ खुद की तारीफ़ करने में नहीं| जो समाज की भलाई के लिए खुद अपनी जान को दांव पर लगाए हुए है उसके साथ नहीं आ सकते तो कम से कम ऐसी कमरों में बैठकर थूक लगाकर अपना विश्लेषण जनता पर चिपकाने की कोशिश मत करो|


कुछ लोगों को ये भ्रम है कि देश को आजादी सत्याग्रह से मिली जबकि हकीकत में आजादी मिली क्रान्ति से| सुभाषचंद्र बोस, लाला लाजपत राय, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव जैसे क्रांतिकारियों ने अपनी जान की बाजी लगाकर देश को आजाद करवाने में अहम् भूमिका निभाई| आज भी यही स्थिति है| भ्रष्टाचार से लबालब हो चुकी राजनीति से स्वतंत्रता सिर्फ आन्दोलनों, झंडे लहराने और भारत माता की जय के नारों से नहीं मिलेगी, इसके लिए एक नहीं कई अरविन्दों को सर पे कफ़न बाँध कर सामने आना पडेगा| सिर्फ उपदेश और सलाह देने से काम नहीं चलेगा, इसे राजनीति में आकर और अमल में लाकर साबित भी करना होगा| जनता को अपने सच्चे प्रतिनिधि को पहचानना होगा| हर कांग्रेसी और भाजपाई को ईमानदारी से इस बात को समझना चाहिए कि इस देश और इसकी जनता का कद उनकी पार्टी से कहीं ऊंचा है और व्यक्ति विशेष या परिवार विशेष के तलवे चाटने के बजाय देश और देश की जनता की सेवा कर अपना जीवन सार्थक करना चाहिए|

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चलते-२ आज की एक बेतुकी बहस का जिक्र करना चाहूँगा, हालांकि इसका लेख से कोई सम्बन्ध नहीं है| आज एक प्रमुख टीवी चैनल पर एक धर्मगुरु, एक फिल्म-निर्माता और भाजपा की एक प्रतिनिधि के बीच फिल्म ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर’ के एक गाने में ‘राधा’ नाम का प्रयोग करने पर तीखी बहस देखने को मिली| धर्मगुरु और भाजपा की प्रतिनिधि इस बात पर नाराज थे कि राधा नाम भारतीयों की आस्था से जुडा है अतः फ़िल्मी गीतों में इसका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए जबकि फिल्म निर्माता इसे कलाकार, लेखक और निर्माता की अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ मानकर बड़े जोश में इसका विरोध कर रहे थे| मैं इन अकल के अंधों से पूछना चाहूंगा कि सिर्फ राधा के नाम पर ही क्यों बहस कर रहे हैं? शीला, मुन्नी इत्यादि नामों पर अश्लील और फूहड़ गानों पर क्यों किसी को आपत्ति नहीं है| इस प्रकार के गानों की वजह से शीला, मुन्नी जैसे नामों वाली संभ्रांत घरों की महिलाओं को कितनी फब्तियों और शाब्दिक छेड़-छड का सामना करना पड़ता है, सबको पता है| क्या स्त्री नामों का कामुक और अश्लील तरीके से प्रयोग कर ऐसे बेतुके, फूहड़ और अश्लील गानों के बिना फिल्म नहीं बन सकती?

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