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खाते-पीते घर के हैं………(व्यंग्य)

Ruchi Shukla
Ruchi Shukla
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नया साल आया तो क्या ? हर 365 दिन बाद नया साल आता है, इसमें कौन सी बड़ी बात है ? लेकिन एक बात तो है जनाब ! हर साल पहली जनवरी को दुनिया के तमाम सुधारवादी लोग नए-नए रेज़ल्यूशन लेते हैं और इस साल तो मैंने भी एक रेज़ल्यूशन ले ही लिया, वो ये कि इस साल मैं अपनी निरंतर विकासशील काया को विशालकाय काया बनने से रोकूंगी। हालांकि इतिहास गवाह है, वादे तो होते ही हैं तोड़ने के लिए। फिर भी पहली ही जनवरी को तड़के उठकर अपने एक दोस्त के साथ मॉर्निंग-वॉक के इरादे से पार्क पहुंची, पर ये क्या ? यहां तो मुझ जैसों का मेला लगा था। सब के सब खा-पीकर तैयार थे। हम दोनों तो उनके आगे करीना-करीना (बेबो) सा महसूस कर रहे थे। तभी एक चचा दिखे। वो भी अपनी डील-डौल से परेशान अकेले में कुछ बड़बड़ा रहे थे। हमें भी मसखरी सूझ रही थी। सोचा क्यों न आज चचा से मॉर्निंग-टॉक हो जाए, वॉक तो कल भी हो जाएगी। वैसे भी आज नए साल का श्री गणेश है।
हमनें भी अपने चेहरे पर हमदर्दी की चंद लकीरें खींची और पहुंच गए चचा के पास। मैंने पूछा- क्या बात है चचा ? कुछ परेशान लग रहे हो। वो भी जैसे हमारे पूछने का इंतजार कर रहे थे, तपाक से बोल पड़े- क्या करूं ? तंग आ चुका हूं। ये भी कोई जिंदगी है भला ! कोई भी मुंह उठाकर कुछ भी कहकर निकल जाता है। साला अपनी तो जैसे कोई इज्ज़त ही नहीं है। मैंने पूछा- किसने, क्या कह दिया चचा ? कुछ तो बताओ। चचा- कौन बोलेगा ? यही साले आजकल के छोकरा लोग, तमीज़ बेचकर कमीज़ पहनने वाले सिरफिरे। मैंने पूछा- ऐसा भी क्या कह दिया चचा जो आप इतना परेशान हो गए। चचा बोले- मैं तो चुपचाप जॉगिंग कर रहा था। दो छोकरा लोग आए और मेरी तरफ इशारा करके मालूम क्या बोले ? बोले, यार आजकल तो हाथी भी पार्क में जॉगिंग करने लगे हैं। अब तुम्हीं बताओ क्या मैं हाथी जैसा दिखता हूं ? मैं बोली- क्या बात करते हो चचा ? हाथी दिखें आपके दुश्मन। आपकी तो बात ही बिल्कुल अलग है। हृष्ट-पुष्ट, बलवान काया के धनी हो, और क्या चाहिए। ये सुनकर तो चचा एकदम से द्रवित हो उठे, बोले- बेटा तुमने तो मुझे उस जमाने की याद दिला दी। हाए….. क्या जमाना हुआ करता था……
एक अलग ही रुतबा हुआ करता था मोटापे का। शान से कहते थे “खाते-पीते घर के हैं”। राजे- महाराजे क्या ठाट से सीना तानकर चलते थे अपनी फैली हुई भारी- भरकम काया के साथ। एकदम रौबदार तरीका, पूरे दम-खम के साथ निकला करती थी उनकी सवारी। आगे- पीछे सलामी ठोंकने वालों का तांता लगा रहता था। उतने तो राजा के सर पर बाल नहीं होंगे जितने उनके नौकर हुआ करते थे। राजा केवल एक काम खुद करते थे, और वो था ‘सांस लेना’। खाने से लेकर निकालने तक का सारा कर्म बेचारे नौकरों के ही मत्थे था। जिसकी जितनी हैसियत उतने ही नौकर। और तो और बेटा हमनें तो सुना था, कि कुछ महाराजे तो धुलवाते भी नौकरों से ही थे। अरे भई इसी बात के तो वे शहंशाह थे। फिर भी उनकी लोग इज्ज़त करते थे। जिसके तोंद की सल्तनत जितनी ज्यादा विस्तृत वो उतना ही बड़ा बादशाह। वैसे भी शहंशाह होना कोई मजाक तो था नहीं, क्या कुछ नहीं करना पड़ता था। देश से लेकर दुश्मनों तक, कितना कुछ संभालना होता था। ऊपर से हजार-हजार रानियों की पलटन। यहां तो एक नहीं संभलती और वहां….! खैर…जैसा कि मैंने आपसे पहले ही कहा था, कि बाकी नौकर तो होते ही थे सब संभालने के लिए।
संभालने से याद आया कि हाथी- घोड़े जो राजा की शान की सवारी होती थी, बहुत परेशानी में रहते थे बेचारे। उनके बिगड़ने की कहानी तो सुनी होगी आपने। हाथी जब बिगड़ता था तो काबू करने वालों की खटिया खड़ी कर देता था। बेचारा गुस्से में लाल हाथी क्यों बिगड़ता था, कभी सोचा क्या ? अरे इतनी बड़ी सल्तनत में खाने-पीने की कभी कोई कमी तो होती नहीं थी, फिर क्यों बिगड़ते थे उस जमाने के हाथी ? हम बताते हैं बेटा क्योंकि हमें ही पता है। होता यूं था कि उन दिनों हाथी भी कॉम्प्लेक्स में आ जाते थे।दिनदहाड़े राजे-महाराजे हाथियों की रौबदार पर्सनॉलिटी को चैलेंज कर देते थे। फिर जानवर भी तो एक जानवर ही है न भाई। सेल्फ-रेस्पेक्ट नाम की भी कोई चीज होती है न दुनिया में। हाथी तो फिर भी ठीक पर उन बेचारे किस्मत के मारे घोड़ों की सोचो, जो गाहे-बगाहे राजा की सवारी बनते थे। “हाए मैं मर जावां तुवानु बिठा के” यही बोलते थे बेचारे मन ही मन। महीनों का खाया-पीया सब एक ही दिन में निकल पड़ता था। फिर भी पुत्तर हम जैसों की जो इज्जत थी न, अहा ! बस पूछो मत। शान-ओ-शौकत पर कोई आंच नहीं आ सकती थी। चलती-फिरती मटन की दुकान, मेरा मतलब है बादशाह सलामत । क्या मजाल कि कोई छींटाकसी करने की सोच भी ले। अब वो जमाना कहां रहा बच्चा, जब मोटापा अमीरी का लक्षण हुआ करता था, अब तो मुंआ बीमारी का लक्षण बन कर रह गया है।
मैंने कहा- चचा अब जमाना बदल गया है, प्रगति जो कर रहा है दिन-दिन। अजी कौन सी प्रगति, कैसी प्रगति ?(चचा जोर से बोले)। टेक्नोलॉजी के नाम पर रोज नई-नई मशीनों की पैदावार जरूर बढ़ गई है। आदमी से ज्यादा मशीने दिखाई देने लगी हैं आजकल। ये भी कोई जिंदगी है भला। मशीन से शुरू, मशीन पर खत्म।
आजकल के युवा……
सारे काम मशीनों से ही करवाते हैं, बैठे-बैठे चिंपाजी जैसे बन जाते हैं
फिर मशीन से ही चर्बी गलाते हैं,आधी कमाई मशीन, आधी मेडिसिन,
बाकी की कमाई मैक-डॉनल्स में लुटाते हैं। जी भर के पिज्जा-बर्गर खाते हैं, एसी चलाते हैं और सो जाते हैं। इसी तरह वे अपना जीवन बिताते हैं। और…………. अगर तुम इसी को प्रगति कहते हो तो सचमुच तुम प्रगति पर हो।
माफ करना चचा। बात तो आपकी सोलह आने सच है। मोटे लोगों की सचमुच बड़ी दुर्दशा है आजकल। कोई भी ऐरा-गैरा मुंह उठाकर पूछ पड़ता है, “ कौन सी चक्की दा आट्टा खांदे ओ पाजी”। बस ! सुलगाने के लिए तो इतना ही काफी है पर यहां से तो ज़लालत का सिलसिला शुरू होता है चचा। अब कल की ही बात ले लो। एक वेचारी आंटी चली जा रही थीं। पैदल, अपनी ही धुन में। गलती उनकी बस इतनी कि जरा तगड़े व्यक्तित्व की धनी थीं। वैसे तो वो सड़क से बिल्कुल परे चल रही थीं पर हाए रे जमाना। कहां छोड़ता है, दे मारा एक करारा उन पर भी। हुआ यूं कि दो साइकिल सवार आंटी की साइड से ये चिल्लाते हुए आगे निकल गए कि ‘अबे बचा के ट्रक है,मरेगा’। आंटी भी सतर्क होकर थोड़ा और परे हट गईं। काफी देर तक जब कोई ट्रक नहीं आया तो समझीं कि वो दोनों तो आंटी को ही ट्रक बोलकर निकल गए थे। क्या करोगे चचा। अब मुझे ही ले लो। कोई भी आजू-बाजू से ‘मोटी’ कहकर तेजी से निकल जाता है। खून उबलकर काला पड़ जाता है पर करें भी तो क्या। मन मसोस कर रह जाते हैं।
खास हमारे लिए जनता-जनार्दन ने कुछ बेहतरीन प्रयास किए हैं, अगर इज़ाजत हो तो बताऊं चचा। चल बोल भी दे बेटा, पता तो चले कि आपुन लोग कितने फेमस हो रहे हैं आजकल। मैंने कहा- चचा सबसे पहले तो कुछ प्रमुख उपाधियां जिनसे हमें 24 घंटे नवाजा जाता है, जैसे कि पहलवान, हाथी, गैंडा, ट्रक, सांड, बुल्डोजर, एनाकोंडा, टैंकर, क्रेन, कद्दू …..और न जाने क्या-क्या। इतना सम्मान तो आज भी हमें मिलता है। पर कमाल तो ये है चचा कि बस हम ही जानते हैं कि पेट पूजा से बड़ा सुख इस धरती पर कोई दूसरा नहीं है। तभी तो इतनी बेइज्ज़ती के बाद भी भोजन से हमारा प्रेम परवान चढ़ता जा रहा है। भोजन और हमारा प्रेम “लैला-मज़नू” की तरह अमर-प्रेम बन चुका है। और अब जब प्यार कर ही लिया है तो डरना क्या। बड़े-बूढ़ों ने ये कहावत हम जैसों के लिए कह छोड़ी है, कि “हाथी चले बाजार, तो कुत्ते भौंकें हजार ”। तो बुर क्या मानना। पर चचा एक बात का तो बहुत बुरा लगता है। मालूम कब, जब बिन मांगे लोग पतले होने के लिए हेल्थ-टिप्स देने लगते हैं। सब के सब स्वास्थ्य-सलाहकार बने फिरते हैं। कितनों की तो रोजी-रोटी ही हमसे है।
न जाने कितने जिम, स्लिमिंग-सेंटर और डॉक्टर-वैद्यों की तो दुकान ही हमारी वजह से चलती है। रामदेव बाबा की तो निकल पड़ी हमारी कृपा से। सब हमारी काया की माया है। इतने पर भी एहसान मानना तो दूर यहां तो लोग हमें इंसान मानने से भी इंकार करते हैं। मैं पूछती हूं चचा, हमने किसी का बिगाड़ा ही क्या है ? जो भी बिगाड़ा अपना बिगाड़ा, फिर भी लोग…..। दो टांगों पर चार का बोझ उठाना कोई बच्चों का खेल नहीं है। हिम्मत चाहिए होती है जो सिर्फ अपुन लोग के पास है। मेरी माने तो हर मोटे इंसान को इज्ज़त से “रेड एंड व्हाइट” बहादुरी पुरस्कार मिलना चाहिए। खैर…. कोई बात नहीं। हमारा तो जन्म ही खाने के लिए हुआ है, फिर चाहे पकवान हो या अपमान ! क्या फ़र्क पड़ता है। अपनी तो एक ही जुबानी है………..

कल खाए सो आज खा, आज खाए सो अब।
कल को मंदी होएगी, फिर तू खाएगा कब।।

अच्छा चचा ! फिर मिलेंगे। तब तक के लिए प्रणाम ! नमस्कार ! चचा बोले- जाओ बेटा दिन दूना रात चौगुना घटो। चचा का आशीर्वाद भी उनकी ही तरह तगड़ा था। मैं भी घर वापस आ गई। न जाने क्यों बहुत हल्का महसूस हो रहा था। शायद वॉक से तन हल्का होता है पर टॉक से मन बिल्कुल ही हल्का हो गया था। इस तरह नया साल यादग़ार बन गया।

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