बैरागी स्याही
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क्यों झुक जाऊंं मैं करोड़ों की इस भीड़ में आखिर क्यों छुप जाऊंं मैं
क्यों ना सर उठाऊंं मैं क्यों इन किताबों के बोझ तले दब जाऊंं मैं
क्यों डर जाऊंं मैं समाज, रीत, रिवाज़ की परवाह आखिर क्यों कर जाऊंं मैं
क्यों ना इस दौड़ में सबसे आगे निकल जाऊंं मैं
क्यों ना भेड़ चाल से परे सिंह चाल चल जाऊंं मैं
क्यों ना इस रेतीली दुनिया में खुद का महल बनाऊंं मैं
क्यों ना इन बनावटी तारों में एक जुगनू बन जाऊंं मैं
क्यों ना इस खारे समुन्दर में एक ओस की ही बूंद बन जाऊंं मैं
क्यों ना बेरंगी सी इस दुनिया में खुदके रंग भर जाऊंं मैं
पैसों की दुनियां ना सही, क्यों ना सुकून से भरा खुदका एक टीला बनाऊंं मैं
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