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अंतिम यात्रा

कुछ मेरे भी मन की बातें ....
कुछ मेरे भी मन की बातें ....
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हे संगिनी!/
तो क्या हुआ /
जो चार कंधे ना मिले/
मैं अकेला ही बहुत हूँ/
चल सकूँ लेकर तुझे/
मोक्ष के उस द्वार पर/
धिक्कार है संसार पर/

सात फेरे जब लिए थे/
सात जन्मों के सफर तक/
एक जीवन चलो बीता/
साथ यद्यपि मध्य छूटा/
किन्तु छः है शेष अब भी/
तुम चलो आता हूँ मैं भी/
करके कुछ दायित्व पूरे/
हैं जो कुछ सपने अधूरे/
चल तुझे मैं छोड़ आऊँ/
देह हाथों में उठाकर/
टूट कर न हार कर/
धिक्कार है संसार पर/

तू मेरी है मैं तुझे ले जाऊँगा/
धन नहीं पर हाँथ न फैलाउंगा/
है सुना इस देश में सरकार भी/
योजनाएं है बहुत उपकार भी/
पर कहीं वो कागज़ों पर चल रहीं/
हम गरीबों की चिताएँ जल रहीं/
मील बारह क्या जो होता बारह सौ भी/
यूँ ही ले चलता तुझे कंधों पे ढोकर/
कोई आशा है नहीं मुझको किसी से/
लोग देखें हैं तमाशा मैं हूँ जोकर/
दुःख बहुत होता है मुझको/
लोगों के व्यवहार पर/
धिक्कार है संसार पर/

सचिन कुमार दीक्षित ‘स्वर’
/https:/m.facebook.com/sachindixit84/
(उड़ीसा में दाना मांझी द्वारा अपनी पत्नी के शव को कंधे पर उठा कर 12 किमी तक पैदल चलने पर एक कवि की वेदना )
आज दिनांक 28/08 /2016 को जब यही कविता मेरे ही व्हाट्सएप्प पर मेरा नाम एडिट करके सर्कुलेट हो रही है और मुझे ही किसी ने भेज दी तो थोडा और मन व्यथित हुआ, पर क्या कर सकते है अब |

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