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आज कृषक दिवस है , पूर्णतया विस्मृत कर गया था मै भी, आपकी ही तरह , सहसा फेसबुक पर ही एक चित्र देखकर स्मरण हुआ और तत्काल मन में उठते शब्दों के ज्वार को कीबोर्ड पे उँगलियों ने साकार रूप प्रदान कर दिया , अब निर्णय आपको करना है , इस कविता का भी और हमारे कृषकों की वर्तमान परिस्थिति का भी …
श्रम बिंदु बहाते खेतो में हे ! कृषक तुम्हे करता हूँ नमन |
यह देश तुम्हारे दम पर है , तद्यपि होता तेरा ही दमन ||
यह विकास की अंध दौड़ , नहीं छोड़ रही कृष भूमि कहीं
हल, बैल रुके से थमें से खड़े ,नवनिर्माणों से पटी है जमीं
हे ! कृषक तुम्हारे स्वप्नों को है रौंद रहे ऊँचे ये भवन
श्रम बिंदु बहाते खेतो में हे ! कृषक तुम्हे करता हूँ नमन |
यह देश तुम्हारे दम पर है , तद्यपि होता तेरा ही दमन ||
तुम विवश आत्महत्या को हो कहीं स्वयं, कहीं तो कुटुंब संग
जिन पर रक्षा का भार तेरा, वे भ्रष्ट लूटते रास रंग
तेरा घर उजड़े उनका क्या ? उनका ना उजड़ने पाए चमन
श्रम बिंदु बहाते खेतो में हे ! कृषक तुम्हे करता हूँ नमन |
यह देश तुम्हारे दम पर है , तद्यपि होता तेरा ही दमन ||
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सचिन कुमार दीक्षित ‘स्वर’
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