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कितना खुश था वो
एक बीघे का जमींदार
अपनी बढती फसल देखकर
गेंहू की घनी मोटी बालियाँ
स्वर्ण सी चमकती चंहुओर
मन ही मन में
बन डाला था उसने
सुंदर सुखद स्वप्नों का एक जाल
जिसमे थी
लागत लाभ की प्रत्याशा
उधार चुकाने के बाद
और साथ ही…
बढती उम्र की बिटिया
के हाथ पीले करने की इक्क्षा भी
किन्तु है अति दुर्लभ
मनवांछित की प्राप्ति
एक सामान्य व्यक्ति हेतु
तभी कहीं दूर क्षितिज पर
खिली तेज धूप से मानो
करने लगे प्रतिस्पर्धा सी
वो घने, श्याम मेघ
और बैठने लगा ह्रदय
उस एक बीघे के कृषक का
देखकर
प्रकृति की इन अठखेलियों को
उस रात
मानो छिड़ा हो
देवासुर संग्राम
कहीं नभ के उस पार
तड़ित गर्जना के वे कर्णभेदी स्वर
व् वायु के प्रचंड वेग के मध्य
अनवरत गिरती
वो श्वेत लघु कन्दुकें
आह ! कैसे कर कटी वह कालरात्रि
और प्रातःकाल देखा कुछ कृषकों को
परस्पर वार्ता करते
एक घेरे में
उसी स्वर्ण सी किन्तु अब
बिखरी, उजड़ी एवं नष्टप्राय
गेंहू की फसल के खेत में
और उन सब के मध्य
भूमि पर पड़ा था औंधा
वो ही एक बीघे का जमींदार
निस्तेज ! निष्प्राण !
सचिन कुमार दीक्षित ‘स्वर’
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