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भगवान निराकार हैं या साकार या दोनों? क्या भगवान् धरती पर जन्म लेते हैं?

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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भगवान निराकार हैं या साकार अथवा दोनों? और धरती पर मानव शरीर धारण करके जन्म लेतें हैं या नहीं? यह प्रश्न आदिकाल से भक्तों और जिज्ञासुओं के लिए एक खोज का विषय रहा है. गीता में वर्णित है कि भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को दिव्यदृष्टि प्रदान करके अपना विराट ज्योतिर्मय स्वरुप दिखाया. भगवान श्री कृष्ण जी ने गीता में कई जगह वर्णन किया है कि उनका मूल स्वरुप निराकार और सर्वव्यापी है, परन्तु सगुण भक्तों के लिए उनका सगुण स्वरुप है और दिव्य लोक भी है. निराकार और सर्वव्यापी भगवान भक्तों की भावनाओं के कारण नाद व् ज्योतिर्मय स्वरुप में और मानव रूप में भी दर्शन देते हैं. क्या भगवान धरती पर मानव शरीर धारण करके जन्म लेते हैं?

इस प्रश्न का उत्तर भगवान श्री कृष्णजी स्वम देतें हैं, वो गीता के अध्याय ४ श्लोक ५ में कहतें हैं-
हे अर्जुन! मैंने और तुमने इस धरती पर बहुत बार जन्म लिया है. तुम ये सब नहीं जानते, परन्तु मै जानता हूँ.
यहाँ पर भगवान श्री कृष्ण जी अर्जुन को समझाना चाहते हैं कि अर्जुन तुम एक साधारण मनुष्य की भांति हो, जिसे पूर्व जन्मों कि याद नही रहती और मै अपनी माया को अपने वश में करके अपनी स्वरुपशक्ति के साथ प्रगट होता हूँ, इसीलिए मै धरती पर जन्म लिए अपने सारे जन्मों को जानता हूँ और तुम्हारे ही नहीं बल्कि सभी प्राणियों के सभी जन्मों को जानता हूँ. यहाँ पर स्पष्ट हैं कि भगवान अपनी योगशक्ति के साथ दिव्य मानव शरीर धारण करके धरती पर जन्म लेतें हैं.
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हर साल श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर और किसी भी बड़े संकट के समय हमलोग भगवान् को ह्रदय से याद करते हैं और उनसे प्रार्थना करतें हैं कि हे प्रभु इस धरती पर दिव्य मानव शरीर धारण करके फिर से आइये. धरती पर अशांति, हिंसा, लूटपाट, रेप, भ्रस्टाचार, महंगाई और झूठ का साम्राज्य स्थापित हो गया है. हमें इन सब राक्षसों से छुटकारा दिलाइये. हमारे सांसारिक दुखों को दूर कर हमें भक्ति और मोक्ष का मार्ग दिखाइए. गीता के अध्याय ४ श्लोक ७ में भगवान श्री कृष्णजी ने अर्जुन से कहा है कि- हे अर्जुन! संसार में जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मै अपने रूप को रचता हूँ, अर्थात संसार में साकार रूप में कहीं न कहीं जरूर प्रगट होता हूँ.

यहाँ पर भगवान श्री कृष्ण जी अर्जुन को समझाना चाहते हैं कि संसार में कहीं भी हिंसा, भ्रस्टाचार, लूटपाट और अत्याचार का बोलबाला हो जाता है तो भगवान अपना कोई न कोई रूप रचकर वहां पर साकार रूप में प्रगट हो जातें हैं और वहां की समस्यायों को हल करतें हैं. भगवान जब तक न चाहें हम उनके रूप को नहीं पहचान सकते, भले ही वो हमारे साथ किसी भी रूप में रह रहें हों. मुझे ऐसा महसूस होता है कि हमारे देश कि समस्याओं को दूर करने के लिए भारत में इस समय भी भगवान जरुर कोई न कोई रूप रचकर हम सबके बीच हैं, जिसका बोध समय आने पर हमें होगा. भगवान जिसको जनाना चाहतें हैं, वही उनको जान पाता है, “सो जानत जेहि देहु जनाई” और भगवान को जानकर व्यक्ति उन्ही का समरूप हो जाता है. “जानत तुमहि तुमहि होई जाई.”

मनुष्य अपने प्राकृतिक नेत्रों से भगवान को नहीं देख सकता. भगवान श्री कृष्णजी अर्जुन से कहतें हैं कि हे अर्जुन मेरे विराट स्वरुप और मेरी विभूतियों को देखो, परन्तु अर्जुन को अपने सांसारिक नेत्रों से कुछ नजर नहीं आता, तब भगवान का ध्यान इस ओर जाता है कि अरे ये तो अपने इन प्राकृतिक नेत्रों से मेरा विराट स्वरुप और मेरी विभूतियों को देखने की कोशिश कर रहा है, जो कि संभव नहीं है. गीता के अध्याय ११ श्लोक ८ में वर्णन है कि भगवान श्री कृष्णजी अर्जुन से कहतें हैं कि- हे अर्जुन! मुझको तू अपने इन प्राकृतिक नेत्रों द्वारा नहीं देख सकता है, इसीलिए मै तुझे दिव्यनेत्र प्रदान करता हूँ, उसके द्वारा तू मेरे विराट स्वरुप और मेरी ईश्वरीय विभूतियों को देख सकता है.
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अर्जुन भगवान का विराट व् ज्योतिर्मय स्वरुप तब देख पाता है जब उसे भगवान दिव्य दृष्टी प्रदान कर देते हैं. भगवान का यही नियम आज भी लागू है. भगवान भक्त को कब ऐसी दिव्यदृष्टि प्रदान करतें हैं? मानस में इसका उत्तर दिया गया है- अतिशय प्रीति देखि रघुविरा, प्रगटे हृदय हरण भवभिरा. भगवान से अतिशय व् अन्नय प्रेम हो जाये, बस यही योग्यता चाहिए भगवान की दिव्यदृष्टि पाने के लिए. भगवान कैसा, कहाँ और किस रूप में दर्शन देते है? मानस में इसका उत्तर दिया गया है- “जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखि तिन तैसी.” हम भगवान के जिस रूप की भी कल्पना करतें हैं, भगवान उसे मान लेतें हैं और उसी रूप में भक्त को दर्शन दे देते हैं.

जिन्हें भगवान से अतिशय प्रेम हो जाता है और जो अपने हृदय में भगवान का दर्शन करना चाहतें हैं, भगवान उनके ह्रदय में प्रगट हो जातें हैं.भगवान गीता के अध्याय १८ श्लोक ६१ में स्वम कहतें हैं कि-हे अर्जुन! ईश्वर सभी प्राणियों के ह्रदय में स्थित है.संतमार्ग के अनुसार जो संत नाद व् प्रकाश के रूप में शरीर के भीतर भगवान का दर्शन पाना चाहतें हैं, उन्हें वैसा ही दर्शन शरीर के भीतर भगवान प्रदान करतें हैं.भगवान् का पूर्ण अवतार हमेशा नहीं होता है, किन्तु भगवान हम सबके ह्रदय में विराजमान हैं और हम सबके अंश रूप में भारत भूमि पर साकार रूप में प्रगट हैं. समस्याओं से संघर्ष को भगवान् का कार्य समझते हुए आइये हम सब मिलकर देश में व्याप्त अशांति, हिंसा, लूटपाट, रेप, भ्रस्टाचार, महंगाई और झूठ रूपी राक्षसों से लड़ें, ताकि हमारी बड़ी समस्याओं का समाधान हो.

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आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी. पिन- 221106
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