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साधु बने हो तो प्रकृति के जाल में फंसने से बचो

सद्गुरुजी
सद्गुरुजी
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Kabir Saheb


माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।
आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर॥

सद्गुरु कबीर साहब इस दोहे में कहते हैं कि जब तक सृष्टि है तब तक माया और मन दोंनो ही नहीं मरने वाले हैं. हर जन्म में बस शरीर मरता रहेगा. मन का माया की ओर आकृष्ट होना एक स्वाभाविक या कहिये प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिसकी अच्छी-बुरी क्रिया-प्रतिक्रिया भी होती है. माया से मन की तृप्ति कभी नहीं होती है, चाहे कितने भी जन्म क्यों न ले लो. जीवन जीते-जीते शरीर वृद्ध हो जाता है, लेकिन इच्छाएं न तो वृद्ध होती हैं और न ही मरती हैं. मन की असंख्य इच्छाएं बुढ़ापे में भी रहती हैं, लेकिन उन इच्छाओं की पूर्ति के लिए शरीर में पर्याप्त शक्ति नहीं रह जाती है. कबीर दास जी ने इसलिए कहा है कि आशा यानि असंख्य इच्छाएं और तृष्णा यानि विशेष कामना शरीर छूटने के बाद भी नहीं मरती है. इच्छाओं को पूरी करने की प्यास ही जीव को बार-बार शरीर धारण कराती है और उसे जीवन-मरण के बंधन से मुक्त नहीं होने देती है.


हम जानी मन मर गया, मरा हो गया भूत।
मरने पर भी आ खड़ा, ऐसा मन है कपूत॥

जीव और माया दोनों ही सर्वव्यापी परमात्मा की परा-अपरा रूपी विशेष शक्तियां हैं, न तो जीव माया को ख़त्म कर सकता है और न ही माया जीव को ख़त्म कर सकती है. मन माया के प्रतिरूप या कहिये प्रतिनिधि के रूप में हमारे शरीर के भीतर रहता है और शरीर छूटने के बाद भी जीव यानि आत्मा का साथ नहीं छोड़ता है. कबीर साहब अपना अनुभव बयान करते हैं कि कई जन्म में जीवन भर साधना करने के बाद ये महसूस होने लगा कि मन मर चुका है, लेकिन शरीर छूटने के बाद इस सत्य का पता चला कि मन तो अभी भी ज़िंदा है. भोग से हमारी इच्छाओं की तृप्ति नहीं होती है और ज्ञान से भी मन की असंख्य इच्छाएं समाप्त नहीं होती हैं, इसलिए विकारग्रस्त चंचल मन की आसक्ति को कम करने के लिए इंद्रियों का निग्रह (नियंत्रण) किया जाता है.


चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।
जाका कछु नहीं चाहिए, सो ही शाहंशाह॥

इंद्रियों का निग्रह करने का अर्थ यह है कि अंत:करण (मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त) और बहिकरण (पांच ज्ञानेन्द्रियाँ- नेत्र, कान, जीभ, नाक और त्वचा व पांच कर्मेन्द्रियाँ- मुख, हाथ, पैर, जननेंद्रिय और गुदा) को साधना के द्वारा सयंमित और संतुलित रखना. वस्तुतः मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है, इसलिए साधना कर मन को मायिक या कहिये सांसारिक विषयों के आकर्षण से अनासक्त किया जाता है. साधक को मुक्ति का अनुभव जीतेजी ही हो जाता है. उपरोक्त दोहे में कबीर साहब जीवन्मुक्त व्यक्ति के लक्षण बताते हुए कहते हैं कि जिसके मन में कोई चाह और चिंता नहीं है और जो इन दोनों से बेखबर हो चुका है, वही साधक जीवन्मुक्त है. जिसका मन जीवन के भोग विलास से ऊब चुका है या कहिये उससे बेपरवाह हो चुका है, जिसे संसार से कुछ नहीं चाहिए, वही सही मायने में जीवन्मुक्त है और राजाओं का भी राजा अर्थात शाहंशाह है.


साधु गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥

कबीर साहब ने सच्चे साधु के लक्षण बताए हैं कि जो वास्तव में साधु है, वो कुटिआ या आश्रम के नाम पर न तो महल खड़ा करता है और न ही धन या सम्पत्ति का संग्रह करता है. सच्चा साधु तो दुनिया से बस उतना ही भोजन लेता है, जितने में भूख शांत हो जाए. साधु भगवान् पर अटूट विश्वास रखता है. परमात्मा से गहरी दोस्ती हो जाने के बाद साधु जब भी उससे जो कुछ भी माँगता है वो मिलता है, लेकिन सच्चा साधु परमात्मा से सदैव दूसरों के हिट के लिए लिए ही माँगता है, अपने लिए नहीं. परमात्मा से दोस्ती को ‘हरिप्रसाद’ बताते हुए ‘रामचरितमानस’ में कहा गया है कि “जो इच्छा करिहहुं मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाही।।” पहले संत लोग आजीवन झोपड़ी में रहकर साधना करते थे और आम जनता को सही ईश्वर-पथ दिखाते हुए अपना चरण छुआए बगैर तथा किसी को स्पर्श किये बिना दूर से ही फैलने-फूलने का आशीर्वाद देते थे, जो कि अमूमन फलित भी होता था.


आज के युग में कुटिया या आश्रम के नाम पर बड़े-बड़े महलों में रहने वाले और ऐशोआराम की जिंदगी जीने वाले आशाराम बापू से लेकर गुरमीत राम रहीम तक कई नामी-गिरामी संत बलात्कार के आरोप में जेल जा चुके हैं. इसी कड़ी में कल एक जैन मुनि आचार्य शांतिसागर महाराज भी शामिल हो गए हैं. 19 साल की एक छात्रा ने जैन मुनि पर आरोप लगाया है कि विशेष मंत्र और आशीर्वाद देने के बहाने उन्होंने उससे रेप किया. मिडिया रिपोर्ट्स के अनुसार पीड़ित छात्रा एक अक्टूबर को वो नानपुरा (सूरत गुजरात) के महावीर दिगम्बर जैन मंदिर में आशीर्वाद लेने के लिए गई थी. आचार्य शांतिसागर महाराज ने कहा कि आशीर्वाद पाने के लिए एक विशेष मंत्र का जाप करना होगा. आरोप है कि उन्होंने उसे मंदिर के पास स्थित एक कमरे में रोक लिया और रातभर उसके साथ दुष्कर्म किया. ऐसे ही भ्रष्ट साधु हिन्दू धर्म को विधर्मियों की नजर में उपहास का पात्र बनाते जा रहे हैं.


मेडिकल चेकअप करने वाले डॉक्टर ने मुनि से पूछा- आप साधु हैं, फिर आपने ऐसा क्यों किया? इस पर मुनि ने सिर झुका लिया. इसके बाद मुनि को जेल भेज दिया गया. उन्होंने बाद में दुष्कर्म को लड़की की रजामंदी से होना तथा अपने विरोधियों की साजिश बताया. सब जानते हैं कि सजा से बचने के लिए जैन मुनि अब ये सब खोखले बहाने बना रहे हैं. बलात्कार हर हाल में एक दुष्कर्म है और साधु के लिए तो कभी न मिटने वाला कलंक है. आज समाज और पूरा देश जेल गए बलात्कारी साधुओं से यही पूछ रहा है कि आप साधु हैं, तो फिर आपने बलात्कार जैसा कुकर्म क्यों किया? आप लोग आम लोगों को सयंमित रहने व त्याग करने का उपदेश देते हैं, फिर खुद क्यों बलात्कारी बनाने वाली ऐशोआराम की जिंदगी जीते हैं और दुष्कर्म करते हैं? धर्म के उत्थान के लिए समाज की नजर साधु पर होती है, तो फिर साधु लोग अपने खराब मन पर नजर रख उसे ठीक क्यों नहीं करते हैं?


कबीर साहब ने अपने एक दोहे में साधुओं के लिए एक बहुत विचारणीय बात कही है कि हिरन प्रकृति के एक सूक्ष्म तत्व गंध के चक्कर में फंसकर अपनी जान गंवा बैठता है तो फिर इंसान प्रकृति के पांचो सूक्ष्म तत्वों- रूप, शब्द, रस, गंध, और स्पर्श के जाल में फंसकर भला कैसे बच सकता है? कस्तूरी की सुगंध हिरन के भीतर से आती है, लेकिन उसे बाहरी गंध समझकर हिरन उसकी तलाश में जंगल में इधर-उधर भटकता है और शिकारियों के द्वारा मारा जाता है. स्पर्शसुख के जाल में फंसकर आज के कई संत जेल जा चुके हैं. संत कबीर साहब का सभी साधुओं के लिए यही परम संदेश है कि साधु बने हो तो प्रकृति के पांचों सूक्ष्म तत्वों- रूप, शब्द, रस, गंध, और स्पर्श के जाल में फंसने से बचो. कबीर साहब की वाणी उनके समय जितनी ही आज भी प्रासंगिक है, जो कि न सिर्फ साधुओं को, बल्कि हिन्दू धर्म को भी नष्ट और पथभ्रष्ट होने से बचाने वाली हैं.

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