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घर-घर “जलगण’’

जनजागृति मंच
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जल, इस धरा पर जीवन के लिए आवश्यक दशाओं हेतु प्रकृति का सबसे अनमोल उपहार है। धरती पर उपलब्ध कुल जल का लगभग 96 प्रतिशत समुद्री खारा जल है, लगभग 4 प्रतिशत ही जल, पेयजल के रुप में इस्तेमाल करने लायक है। यह हमें बर्फ, नदियों, झीलों, कुओं, तालाबों, झरनों एवं भूमिगत जल के माध्यम से प्राप्त होता है। हम इस सीमित जल का उपयोग पेयजल, घरेलू कार्यों, सिंचाई, एवं औद्योगिक कार्यों में करते हैं। बीसवीं सदी के 70 के दशक तक हम पेयजल हेतु अधिकतर कुओं का इस्तेमाल करते थे। जल प्राप्त करने में श्रम लगता था। इसलिए पानी की बर्बादी नहीं करते थे। परंतु जब से हमने पानी निकालने के लिए इलेक्ट्रिक वाटर लिफ्टिंग पम्प का इस्तेमाल बहुतायत करना शुरु किया हम बेतहाशा जल बर्बाद करने लगे। विकास के नाम पर हमने जंगलों को समाप्त करना शुरु किया, रासायनिक कृषि को बढ़ावा दिया गया जिसका नतीजा यह हुआ कि धरती की जल सोखने की क्षमता घटती चली गई। भूमिगत जल स्तर नीचे चला गया, वर्षा कम होने लगी। जो वर्षा हुई, उसको रोकने के प्रयास हमने किये नहीं। भूमि पर भी पेड़ों के रुप में अवरोध कम हो गए, अतः अनमोल वर्षा जल बिना भूमिगत जल में वृद्धि किये हुए समुद्र में बहता गया। जिसका दुष्परिणाम सूखे कुओं, बोरवेल, नदियों एवं झीलों के रुप में आज हमें प्राप्त हो रहा है। हालात इस कदर बिगड़ गए हैं कि कभी मात्र 60-100फीट की गहराई पर जो सुरक्षित भूमिगत जल हमें प्राप्त हो जाता था उसे प्राप्त करने के लिए कुछ इलाकों में 1500फीट तक बोरिंग करानी पड़ रही है। इससे भी खारा जल प्राप्त करने का डर बना रहता है, जो कि न तो पीने में इस्तेमाल किया जा सकता है न ही खेती में सिचाईं हेतु। इसका कारण यह है कि बेतहाशा भूजल दोहन से रिक्त हुए स्थान में तटवर्टी क्षेत्रों में समुद्री जल रिस कर मिल गया। इससे आसपास के सम्पूर्ण क्षेत्र में भूमिगत जल खारा हो गया। यहाँ तक की पहाड़ों मे भी मानसून के दौरान अत्यधिक वर्षा होने के बावजूद दिसम्बर माह तक पहाड़ी नदियाँ, झरने सूख जा रहे हैं। गर्मियों में सिंचाई के लिए पानी नहीं मिलता, कुओं के सूखने से पेयजल की गम्भीर समस्या उत्पन्न हो रही है।

सरकार द्वारा भी समस्या से निपटने के लिए अवैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल किया जा रहा है, जैसे- बोरवेल की गहराई बढ़ाना एवं ट्यूबवेल की  संख्या  बढ़ाना इत्यादि। दशकों तक हमारे द्वारा किये गए इन भूलों का दुष्परिणाम भी अब हमारे साथ साथ हमारी अगली पीढ़ी को भी  भुगतना पड़ रहा है। अगर अब भी नहीं चेते तो आगे और भी भयंकर दुष्परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। कहा जा रहा है कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए हो सकता है। अतः जल संकट से उभरने का सबसे कारगर वैज्ञानिक तरीका वर्षाजल संग्रह करना ही है। वर्षाकाल में भूमिगत जलस्तर को बढ़ाना, हमारे बैंक बैलेंस के समान है, जो जरूरत अथवा कठिनाई में हमारे काम आता है। अतः जो जल हम वर्षा के दिनों में संग्रह करेंगें वह गर्मियों में हमारे लिए पर्याप्त होगा एवं भूमिगत जल का स्तर भी नहीं गिरेगा। इसलिए हमें अपनी मानसिकता एवं विचारों में परिवर्तन करना आवश्यक है।

जल संकट से उभरने के लिए हमें राजस्थान एवं गुजरात को मॉडल के रुप में स्वीकार करना चाहिए जहाँ वर्षा की बूँद –बूँद का संचय कर भूमिगत जल स्तर को बढ़ाने एवं सूखी हुई छोटी-छोटी नदियों को पुनर्जीवित करने के अनेक प्रयास किये जा रहे हैं। दक्षिण भारत में तमिलनाडु में सरकारी भवनों एवं घरों में रेनवाटर हार्वेंस्टिंग को अनिवार्य करने के साथ ही कड़ाई से इसका पालन किया जा रहा है। देश के अन्य राज्यों में भी इसकी नितांत आवश्यकता है।

ट्यूबवेल की संख्या बढ़ाने अथवा बोरवेल की गहराई बढ़ाने के बजाए यदि हम खेतों की मेढ़ ऊॅंची करके, खेत तालाब बनाकर अथवा तेजी से  वर्षा जल बहकर निकलने के मार्ग में अवरोध उत्पन्न कर उसे भूमि में रिसकर जाने का अवसर प्रदान करें। वर्षा जल संचय की इन साधारण विधियों द्वारा क्षेत्र के कुओं, तालाबों एवं नदियों को पुनर्जीवित करने के प्रयास करें, सूखे हुए बोरवेल को वैज्ञानिक तरीके से वर्षाजल के माध्यम से रिचार्ज करें तो सम्पूर्ण क्षेत्र में भूजल स्तर में उत्तरोत्तर बढ़ोत्तरी होगी। परंतु यह किसी एक व्यक्ति अथवा संस्था के स्तर पर नहीं सम्भव है इसके लिए सामुदायिक प्रयास किये जाने आवश्यक हैं।

‘‘घर-घर जलगण’’ के अवधारणा के तहत, हर घर में किसी व्यक्ति को जल रक्षक की भूमिका निभानी पड़ेगी, जो घर के अन्य सदस्यों को जल की बर्बादी न करने एवं उन्हें वर्षाजल संचयन तथा पर्यावरण संरक्षण हेतु प्रेरित करेगा। इस कार्य में कक्षा तीन एवं ऊपर के स्कूली बच्चों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो सकती है। इसके लिए उन्हे छोटी शिक्षाप्रद फिल्मों, पोस्टर, स्लोगन, संगोष्ठियों इत्यादि के माध्यम से प्रेरित एवं ट्रेंड किया जा सकता है। बच्चे देश का भविष्य हैं। वे यदि जल एवं पर्यावरण संरक्षण के कार्यक्रमों से जुड़ेंगें, इनका महत्व समझेंगें तो भविष्य में वे राष्ट्र के सजग प्रहरी की भूमिका निभा सकेंगें। वे इस तथ्य को भली भांति  समझ सकेंगें कि उनके पूर्व की पीढ़ी ने किस प्रकार पर्यावरण की अनदेखी की, जिसका दुष्परिणाम वे भुगत रहे हैं, अतः उन्हे अपनी अगली पीढ़ी के लिए जीवन की बेहतर दशाएं प्रदान करनी चाहिए।

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