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वो जब बुलाएगा मुझे जाना पड़ेगा…..!!!

Jagran Sakhi
Jagran Sakhi
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घर-परिवार का रिश्ता कुछ ऐसा ही होता है। थोडा खट्टा, थोडा मीठा। कभी नोक-झोंक और कभी मान-मनौवल। इतना ही नहीं, कभी घात-प्रतिघात, कभी षडयंत्र और कभी एक-दूसरे के हितों के लिए जान तक दे देने का ज ज्बा। यह जज्बा सिर्फ कहने-सुनने तक ही सीमित नहीं होता, व्यवहार में भी दिखता है। शायद इसीलिए रिश्तों के संबंध में आम भारतीय कहावत है- खून हमेशा पानी से गाढा होता है।


परियों की रानी है मेरी मां…


पारिवारिक रिश्तों को सहेजने-समेटने की सोच हमारी परंपरा में ही रही है और यही वजह है जो भारत में औद्योगिक क्रांति के बहुत बाद तक परिवार का अर्थ संयुक्त परिवार से लिया जाता रहा है। कई पीढियों के लोग एक छत के नीचे एक साथ सिर्फ रहते ही नहीं रहे हैं, सभी सबके सुख-दुख को अपना सुख-दुख समझते रहे हैं। पर्व-उत्सव से लेकर व्यवसाय और रिश्तेदारियों तक के निर्णय सामूहिक होते रहे हैं। एकता में शक्ति की धारणा तो इसके मूल में रही ही है, हमारी कृषि और व्यापार आधारित अर्थव्यवस्था में भी इसका बडा योगदान रहा है। संयुक्त परिवार और सबके साथ रहने की इसी व्यवस्था ने हमें इतने रिश्ते दिए, जितने शायद दुनिया में कहीं और नहीं हैं। बच्चाों की परवरिश और बुजुर्गो की देखभाल हमारे लिए चिंता की बात नहीं रही। इसीलिए ओल्ड एज होम एवं क्रेश भी बीती शताब्दी के अंतिम दशक तक केवल औद्योगिक महानगरों के कुछ हिस्सों तक सीमित रहे और इन जगहों पर किसी परिवार के बुजुर्गो या बच्चाों का होना शर्मनाक माना जाता रहा। लेकिन अब?


छोटी-छोटी बातों से

अब हमारी प्रतिष्ठा और सुविधा दोनों ही के विपरीत होते हुए भी कई परिवारों के लिए यह आवश्यकता बन चुकी है। सरसरी तौर पर देखें तो यह दो बातों का नतीजा है। एक तो औद्योगिक क्रांति के चलते अपनी मूल जगहों से नौकरी के लिए युवाओं का टूटना और दूसरे परंपरागत मूल्यों-मान्यताओं के कारण बुजुर्गो का उन्हीं मूल जगहों से जुडे रहना। इन्हीं दो बडी वजहों के बीच में कई और छोटी-छोटी वजहें भी हैं, मसलन- युवाओं में निजी स्वतंत्रता की चाह, बुजुर्गो में अपने परंपरागत मूल्यों एवं रीति-रिवाजों को न छोडने की जिद और कई पीढियों की अर्जित पैतृक संपदा को न सिर्फ सहेजने, बल्कि उसी जगह बनाए रखने का मोह। कुछ परिवार पहली दो वजहों से बंटे तो कुछ बाद की छोटी-छोटी बातों से अपनी मूल जगह पर रहते हुए भी बंट गए। बहुत सारे परिवार अधिक से अधिक संपदा पर अपने अधिकार की चाहत और इसके चलते भाइयों के बीच बढी प्रतिस्पर्धा के चलते भी बंटे। नतीजा यह हुआ कि संयुक्त परिवार की अपनी व्यवस्था के कारण दुनिया भर में अलग पहचान रखने वाला भारतीय समाज छोटे-छोटे एकल परिवारों का समाज बनता चला गया।


वक्त की जरूरत

परिवारों के टूटने के पिछली लगभग एक शताब्दी के हमारे अनुभव ने हमें बहुत कुछ सिखाया भी। हमने जाना कि एकल परिवार में निजी स्वतंत्रता की मृग मरीचिका और संयुक्त परिवार के अनुशासन से मिलने वाली सुरक्षा व निश्चिंतता के बीच क्या फर्क है। खास कर यह अनुभव हमें तब हुआ जब बढती महंगाई और जरूरतों ने पति-पत्‍‌नी दोनों को नौकरी के लिए मजबूर कर दिया और बच्चों की परवरिश एक समस्या बन गई। दूसरी तरफ, अपने से दूर मौजूद बुजुर्ग माता-पिता के स्वास्थ्य की चिंता भी बेचैन बनाए रखने लगी। किसी के लिए यह संभव नहीं कि बार-बार हजार किलोमीटर दूर माता-पिता के पास आ-जा सके। इस समस्या ने ही उनका ध्यान संयुक्त परिवार की ओर खींचा। लोगों को यह लगने लगा कि आए दिन माता-पिता के स्वास्थ्य और बच्चों की देखभाल को लेकर फिक्र करते रहने से बेहतर है, सबको साथ लेकर रहा जाए। यही वजह है जो अब सभी संयुक्त परिवार की परंपरागत व्यवस्था को अहमियत देने लगे हैं। मैट्रिमोनियल वेबसाइट शादी डॉट कॉम द्वारा अपने सदस्यों के बीच किया गया एक सर्वे बताता है कि 54 प्रतिशत लडकियां संयुक्त परिवारों में रहना चाहती हैं और संयुक्त परिवार से उनका आशय केवल सास-ससुर तक ही सीमित नहीं है, इस दायरे में भाई-बहनों समेत पूरा परिवार आता है। दिल्ली में ही सॉफ्टवेयर इंजीनियर मिताली चंदा कहती हैं, ज्वाइंट फेमिली का जो सपोर्ट सिस्टम होता है, वह किसी भी स्थिति में बिखरने नहीं देता। आपके साथ कुछ ऐसे लोग होते हैं, जिनके बारे में आप हमेशा आश्वस्त रह सकते हैं कि वे हर हाल में साथ देंगे ही और इसके लिए हमें अतिरिक्त रूप से एहसानमंद होने की जरूरत नहीं होगी, क्योंकि वे हमारे अपने हैं।


घट रहा टकराव

हालांकि समाजशास्त्री प्रो. सत्य मित्र दुबे इसे एक एक नए ढंग की सामाजिक संरचना के रूप में देखते हैं। वे इसे संयुक्त परिवार के बजाय विस्तृत परिवार का नाम देते हुए कहते हैं, सास-बहू के बीच का टकराव कम हो रहा है। बल्कि वे साथ रहना पसंद करने लगी हैं। इसकी कई वजहें हैं। कामकाजी दंपतियों के लिए यह संभव ही नहीं है कि अपने बच्चाों और घर की देखभाल कर सकें। ऐसी स्थिति में माता-पिता या सास-ससुर के साथ होना उन्हें आत्मिक और मनोवैज्ञानिक सुरक्षा देता है। मैंने चीन में रहते हुए यह देखा कि वहां युवा जोडों में माता-पिता के साथ रहने की चाह एक प्रवृत्ति बनती जा रही है और अध्ययन बताते हैं कि केवल भारत और चीन ही नहीं, बल्कि पूरे एशिया में यह रुझान बढा है। प्रो. दुबे जिन कारणों की ओर संकेत कर रहे हैं, नई पीढी उसे साफ तौर पर स्वीकार करती है। मल्टीनेशनल कंपनी में इवेंट मैनेजर लिपिका शाह कहती हैं, मुझे पता है कि शादी के बाद न्यूक्लियर फेमिली में होना नुकसानदेह होगा। बच्चो होने के बाद मेरे लिए अपनी जॉब कंटिन्यू कर पाना संभव नहीं होगा। मैं अपनी उन दोस्तों को शादी के बाद भी बिलकुल निश्चिंत देखती हूं जो अपने इन-लॉज के साथ हैं। उन्हें इस बात की फिक्र नहीं होती कि बच्चो की देखभाल कौन करेगा। उनके पति को भी इस बात की चिंता नहीं होती कि अलग या दूर रहने वाले उनके पेरेंट्स कैसे हैं। जबकि न्यूक्लियर फेमिली सेटअप वाले अकसर तनाव में होते हैं। संयुक्त परिवार में रोक-टोक और विवादों पर साइंटिस्ट उर्विका भट्टाचार्जी का जवाब है, मेरी शादी के दो साल हो गए और अभी तक तो ऐसी कोई अनुभव नहीं हुआ। मुझे तो लगता है कि सास-ससुर की ओर से रोक-टोक की जो बात है, वह केवल टीवी सीरियल्स में होता है। हो सकता है कि जो बहुत ट्रडिशनल लोग हैं वे ऐसा करते भी हों, लेकिन पढे-लिखे लोग युवाओं के हालात जानते हैं और उनकी भावनाओं की कद्र भी करते हैं। यह जरूर है कि जो बडे लोग हैं, वे आपसे रिस्पेक्ट की उम्मीद करते हैं और वह आपको करनी चाहिए। दूसरी बात यह भी है कि आप किसी व्यवस्था से सिर्फ सुविधाएं हासिल करें और अपना फर्ज न निभाएं, ऐसा नहीं चल सकता। थोडी-बहुत नोक-झोंक तो पति-पत्नी के बीच भी होती है। इसे लेकर बहुत सोचने की आवश्यकता नहीं है।


केवल स्वार्थ नहीं

यह बात केवल सुविधा और कर्तव्य तक ही सीमित नहीं है। असल में यह टकराव दो पक्षों के स्वार्थो के बीच का है। अधिकतर लोग अपने स्वार्थ तो साध लेना चाहते हैं, लेकिन जब दूसरे पक्ष के हितों की बात आती है तो किनारे हट जाते हैं। आम तौर पर लोग चाहते हैं कि दूसरे लोग हमारे अनुसार थोडा सामंजस्य बनाएं, लेकिन दूसरों के लिए स्वयं समझौता करना उन्हें भारी लगता है। अपने ही स्वार्थो को हमेशा ऊपर रखने की प्रवृत्ति लंबे समय तक चल नहीं सकती। यह सही है कि संबंधों के मूल में अकसर स्वार्थ या आपसी हित होते हैं, लेकिन संबंधों का आधार प्रेम है, स्वार्थ नहीं। जहां स्वार्थ हावी हो जाते हैं, वहां संबंध बोझ बन जाते हैं। प्रो. सत्य मित्र दुबे दो तरह के लोगों की बात करते हैं, एक वे जो पूरे परिवार को हर हाल में साथ लेकर रहना चाहते हैं और दूसरे वे जो अलग ही रहना पसंद करते हैं। जो साथ रहना चाहते हैं वे दूर रहकर भी एक-दूसरे की चिंता करते हैं। संपर्क बनाए रखते हैं। जिनकी सोच केवल अपने तक सीमित है, वे एक ही शहर में रहते हुए भी अपने बुजुर्गो का हालचाल तक नहीं लेते। आजकल महानगरों में बुजुर्गो की जो हत्याएं बढ रही हैं, इसकी बडी वजह यह प्रवृत्ति है।


अगर आपसी संपर्क बनाए रखा जाए तो न केवल ऐसे दुखद दुर्घटनाओं, बल्कि दंपतियों के बीच बढते तलाक के मामलों, बच्चों में बढते अकेलेपन और किशोरों में बढते डिप्रेशन एवं तनाव जैसी स्थितियों पर भी बहुत हद तक काबू पाया जा सकता है। क्योंकि बुजुर्ग केवल संरक्षक और अनुशासन के केंद्र ही नहीं, घर में सेफ्टी वॉल्व का काम भी करते हैं। कई बार उनका रोष, कभी सलाह और कभी स्नेह बडी-बडी समस्याओं को आसानी से हल कर देता है। सैद्धांतिक ज्ञान पर जीवन के अनुभव हमेशा भारी पडते हैं। भारतीय परिवारों की संरचना की इसी विशिष्टता को देखते हुए यूरोप में ओल्ड एज होम्स और क्रेच अलग-अलग रखने के बजाय बुजुर्गो और बच्चाों को साथ रखने की संकल्पना पर कुछ प्रयोग किए गए। इन प्रयोगों और कुछ अन्य अध्ययनों से उन्हें सकारात्मक निष्कर्ष मिले।

भूल जा जो हुआ उसे, बस मुस्कुरा…!!!


संपर्क मुश्किल नहीं

हमारे देश में बहुत लोगों को अपनी परंपरा से यह एहसास मिला है। उन्हें दूर रहते हुए भी परिवार व रिश्तेदारों से संवाद बनाए रखना जरूरी लगता है। वे मानते हैं कि व्यस्तता और दूरी बहाना है, संपर्क बनाए रखना अब मुश्किल बात नहीं है। मध्य प्रदेश के सागर से आए चार्टर्ड एकाउंटेंट शिवेन्द्र परिहार दिल्ली में पत्नी और बच्चाों के साथ रहते हैं। उनके एक भाई, जो शिक्षक हैं, माता-पिता के साथ गांव में रहते हैं और दूसरे स्वीडेन में। शिवेंद्र के पिताजी के भी दो भाई हैं और सभी साथ रहते हैं। वह कहते हैं, हमारे बीच संपर्क निरंतर बना रहता है। फोन पर तो ह फ्ते-दो हफ्ते में बात हो पाती है, लेकिन इंटरनेट के मार्फत चैटिंग और संदेशों का आदान-प्रदान लगभग रोज की बात है।


हालांकि संवाद-संपर्क की यह बात बुजुर्गो और बडों तक ही सीमित नहीं है। रिश्तों का सपोर्ट सिस्टम छोटे-बडे सबसे मिल कर ही बनता है। अलग-अलग मामलों में सबके ज्ञान और अनुभव काम ही नहीं आते, बल्कि तनाव भी कम करते हैं। निस्संदेह, यह खुशी की बात है कि नई पीढी अपनी परंपरा की खूबियों को न सिर्फ पहचानती है, बल्कि उन्हें अपनाने के लिए स्वयं आगे बढ रही है।


ऊंचा रहता है मनोबल


असिन, अभिनेत्री

परिवार में बहुत ज्यादा यकीन है। यह एक तरह से मेरी बुनियाद है। मेरे पिता हमारे पूरे परिवार के पिलर यानी आधारस्तंभ हैं और मां भी किसी फरिश्ते से कम नहीं है। परिवार का साथ हर किसी को मिलना चाहिए। इससे इंसान का मनोबल ऊंचा बना रहता है। खासकर जब आप विपरीत परिस्थितियों में फंसते हैं, तब परिवार का साथ होना बहुत जरूरी होता है, क्योंकि ऐसे समय में परिवार के सदस्य पर ही आप भरोसा कर सकते हैं। वे ही ऐसी परिस्थितियों में सच्ची सलाह देते हैं। मैं एकल परिवार में पली-बढी हूं। इसलिए मैं यह बयां नहीं कर सकती कि अलग-अलग संयुक्त और एकल परिवार के क्या फायदे और नुकसान हैं। मेरे खयाल से परिवार में सदस्यों की संख्या मायने नहीं रखती। अहम है लोगों की नीयत। परिवार में लोग कम ही हों, मगर उनकी नीयत में खोट हो तो आप किसी किस्म के परिवार में नहीं रह सकते। लिहाजा हर किसी को अपनी सुविधा के हिसाब से परिवार का चयन करना चाहिए। सबसे अहम चीज खुशी है। यह आप एकल या संयुक्त, दोनों तरह के परिवारों में पा सकते हैं। मैं इस मामले में खुशकिस्मत हूं, जो मेरा बचपन माता-पिता के साथ गुजरा। उम्र के इस पडाव पर भी वे मेरे साथ हैं। दरअसल, मेरी वजह से वे केरल से यहां शिफ्ट हुए हैं। इसलिए परिजनों से तो रोज ही मुलाकात होती है। निकट दोस्तों से कॉलेज के जमाने में पारिवारिक रिश्ते हुआ करते थे। अब कोई न्यूयॉर्क तो कोई मेलबर्न में है। इसलिए मुलाकात नहीं हो पाती। भला हो सेलफोन और इंटरनेट का, जिनकी वजह से संपर्क बना रहता है।


परिवार को दें पूरा सम्मान

इमरान हाशमी, अभिनेता

मेरे लिए परिवार से बढकर कुछ नहीं है। आज मैं जो कुछ भी हूं, वह परिवार और रिश्तेदारों के साथ की वजह से ही हूं। स्क्रीन पर मैंने ऐसे कई किरदार किए हैं, जिसमें पिता की मर्जी के खिलाफ गया हूं। असल में ऐसा बिलकुल नहीं हूं। कोई भी बडा फैसला सबकी सहमति से लेता हूं। बीवी परवीन का साथ कभी नहीं भुला सकता। वे मेरे काम का विश्लेषण करती हैं। निरपेक्ष सलाह देती हैं। उनकी अब तक की सलाहों पर मैंने यकीन किया और आज करियर के सबसे सफल दौर से गुजर रहा हूं। व्यस्तता के चलते रिश्तेदारों और पुराने मित्रों से काफी कम मिलना हो पाता है। कई तो देश से बाहर जा चुके हैं। ऐसे में, फोन और इंटरनेट से हम संपर्क में रहते हैं। दोस्तों में कुछ के साथ मेरे संबंध पारिवारिक हैं, तो कइयों के साथ व्यक्तिगत। यह निर्भर करता है इस बात पर कि उनके साथ मेरी कितनी अच्छी अंडरस्टैंडिंग है। संयुक्त परिवार के फायदे हैं, इसमें कोई शक नहीं। मैं नहीं मानता कि रिश्तेदार आपकी तरक्की से जलते हैं। मेरा और मोहित सूरी का उदाहरण ले लें, हमें लॉन्च करने और करियर को सही दिशा देने में महेश अंकल (महेश भट्ट) का बडा हाथ रहा। युवा पीढी से अपील करूंगा कि परिवार संस्था को पूरा सम्मान दें। भाग-दौड या ऊंची महत्वाकांक्षा को बहाना बनाकर इससे पीछा छुडाने की कोशिश न करें।


संयुक्त परिवार में भरोसा नहीं

अनुराग कश्यप, निर्देशक

परिवार जैसी संस्था में मेरा पूरा यकीन है। मेरे लिए परिवार का दायरा बहुत बडा है। मैं परिवार को महज पति-पत्‍‌नी और बच्चों तक सीमित नहीं मानता। मेरे लिए मेरे साथ काम करने वाले भी मेरे परिवार के हिस्से हैं। जिन लोगों ने मुझ पर भरोसा जताया, वे भी मेरे परिवार के सदस्य सरीखे हैं। मैंने वर्गीकरण किया हुआ है। मैं और मेरी बीवी-बच्चे मेरे प्राथमिक परिवार हैं। साथ काम करने वाले मिलकर दूसरे परिवार का निर्माण करते हैं। मेरे शुभचिंतक और निकट मित्र भी मेरे लिए परिवार से कमतर नहीं हैं। अपने निकट मित्रों के साथ खूब मस्ती करता हूं, लेकिन ज्यादातर मित्रों के साथ पारिवारिक रिश्ते नहीं है। संयुक्त परिवार में मुझे यकीन नहीं है। मेरा मानना है कि एक व्यक्ति का चौतरफा विकास एकल परिवार में ही हो सकता है, क्योंकि वहां आप को ज्यादा आजादी मिलती है। अपने फैसले खुद लेने के लिए आप तैयार और स्वतंत्र होते हैं। यह संयुक्त परिवार में मुमकिन नहीं है। वहां कभी चाचा तो कभी आपकी चाची आपके फैसलों पर सवाल उठाने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं।


रिश्तों में है यकीन

शरमन जोशी, अभिनेता

मैं एकल या संयुक्त परिवार नहीं, सभी िकस्म के रिश्तों में यकीन रखता हूं। खासकर जिनके साथ मेरा सबसे पहला रिश्ता कायम हुआ। मेरे लिए परिवार बीवी-बच्चों तक ही सीमित नहीं है। मेरे माता-पिता, सास-ससुर और वे सभी लोग जो मेरे शुभचिंतक हैं, सब परिवार की ही तरह हैं। संयुक्त परिवार की प्रासंगिकता आज के जमाने में है, लेकिन मौजूदा जीवनशैली के चलते एकल परिवार में रहना पडता है। यह व्यक्तिविशेष पर निर्भर करता है कि वह किस तरह के परिवार में रहना पसंद करता है। संयुक्त परिवार में रहना है, तो बहुत अच्छा और अगर नहीं रह पाते, तो इसमें भी कोई बुराई नहीं है? सवाल जहां तक इसकी खासियत का है, तो ऐसे परिवार की रौनक ही अलग होगी। कितना अच्छा लगेगा कि आप अपने चचेरे भाई-बहनों के साथ रहते हों। कभी उदासी का माहौल नहीं होगा। ऐसे परिवार में हर किस्म का सपोर्ट आपको मिलेगा। चाहे वह भावनात्मक या वित्तीय। मैं ऐसे परिवार में नहीं रहा हूं, लिहाजा इस बारे में बहुत ज्यादा नहीं बता पाऊंगा। मुझे लगता है कि ऐसे माहौल में आप किस तरह साथ रहते हैं, इस पर काफी-कुछ निर्भर करता है कि झगडे होते हैं या नहीं। एकल परिवार का घाटा है कि इसमें एक-दूसरे के लिए समय नहीं होता। बच्चे ज्यादा प्रभावित होते हैं। मैं बचपन से एकल परिवार में रहा हूं। अब अपनी बीवी-बच्चों के साथ रह रहा हूं। माता-पिता अलग रहते


रिश्तों को बनाएं संस्कार

-बच्चाों को शुरू से ही बडों का सम्मान और छोटों को स्नेह देना सिखाएं।

-उन्हें अपनी चीजें दूसरे भाई-बहनों के साथ शेयर करने और समय-समय पर एक-दूसरे को उपहार देने के लिए प्रेरित करें।

-अपनी गतिविधियों में दूसरे भाई-बहनों को साथ रखने की आदत डालें, चाहे वह खाने-पीने की बात हो, या खेलकूद या फिर पढाई-लिखाई ही क्यों न हो।

यह कैसी चाहत …!!


खुशी की वजह होता है परिवार

सोनू सूद, अभिनेता

परिवार जैसी संस्था में मेरा पूरा भरोसा है। व्यवस्थित और खुशहाल जिंदगी जीने के लिए यह बहुत जरूरी है। यह पति-पत्नी और बच्चों तक सीमित नहीं है। संयुक्त परिवार के अपने फायदे हैं। मुझे याद है, बचपन में चाचा-चाची और चचेरे भाई-बहनों के साथ खूब शरारतें और मस्ती किया करता था। इसके बावजूद कि मेरे पिता और चाचा के बीच जमीन को लेकर झगडा चलता था। यह आज भी है, लेकिन मेरा मानना है कि अगर एक साथ कई बर्तन होंगे, तो वे खनकेंगे भी। इसका मतलब यह एकदम नहीं है कि वह व्यवस्था खराब है। जितना भावनात्मक सहयोग संयुक्त परिवार में मिलता है, उतना कहीं नहीं मिलता। एकल परिवार में आजादी ज्यादा मिलती है। निर्भर रहने की आदत खत्म हो जाती है। इस लिहाज से एकल परिवार स्वावलंबी बनाने में ज्यादा हितकर साबित होता है। इसके कई नुकसान भी हैं। यह आप को अकेलेपन का अहसास दिलाता है, लेकिन आज के दौर में ऐसी व्यवस्था


संयुक्त परिवार की आचार संहिता करें

-परिवार में अपने से बडे सदस्यों का हमेशा सम्मान करें। वे जो कुछ कहें उस पर अमल करने की कोशिश करें।

-आवश्यकता पडने पर सबके सहयोग के लिए तैयार रहें।

-दूसरे भाइयों-भाभियों के रिश्तेदारों से भी संवाद बनाए रखें और उनकी अनुपस्थिति में वे कभी आएं तो उन्हें बेगानेपन का एहसास न होने दें।

-बच्चों के लिए अगर कभी कोई चीज लाएं तो उसमें सभी बच्चों को हिस्सा दें। भले ही सबको थोडा-थोडा मिल सके ।

-बच्चाों या बडों के बीच कोई विवाद होने पर शांतिपूर्वक समझाने-बुझाने का तरीका अपनाएं।


न करें

-बडे लोगों के आदेश का उल्लंघन तुरंत कभी न करें, भले ही वह आपको सही न लग रहा हो।

-कुछ गलत होने पर तुरंत किसी पर आरोप न लगाएं।

-किसी के भी रिश्तेदारों के आने पर किसी तरह का बेरुखापन कतई न दिखाएं, चाहे वे मौजूद हों या न हों।

-बच्चाों के बीच किसी तरह का विवाद होने पर डांट-फटकार से बचें और पक्षपात को कभी न करें।

-परिवार के सभी सदस्यों की प्राइवेसी का पूरा सम्मान करें। अगर अनिवार्य ही न हो तो कभी किसी के निजी मामले में हस्तक्षेप न करें

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