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आम आदमी का खास समय

Jagran Sakhi
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humanकल तक भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा के लिए तैयारी में व्यस्त रहे सुशील कुमार को आज पूरा भारत जानता है। कौन बनेगा करोडपति के जरिये पांच करोड रुपये की रकम जीत चुके सुशील कुमार के बारे में किसी को बताने की जरूरत अब नहीं है। साधारण परिवार और ग्रामीण पृष्ठभूमि के इस युवक ने सोचा भी नहीं था कि उसे ऐसी ख्याति मिलेगी। वह ऐसे अकेले युवा भी नहीं हैं जिन्हें इस तरह ख्याति मिली हो। ऐसे कई व्यक्ति हैं जिन्हें किसी न किसी टीवी कार्यक्रम, अखबार-पत्रिका, सिनेमा, आंदोलन में हिस्सेदारी या किसी अन्य कारण से देशव्यापी ख्याति मिली। उन्होंने सलेब्रिटी बनने के बारे में कोई सुनियोजित प्रयास नहीं किया। केवल इतना किया कि कोई अवसर मिला और उसका सदुपयोग कर लिया, या अपना कर्तव्य समझ कर समाज में सार्थक परिवर्तन के लिए सहज प्रयास किया। फिर समय के साथ स्थितियों ने ही उन्हें यश और धन दोनों ही दे दिया।


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सामान्य तौर पर देखें तो लगता है कि यह सब ऐसे ही अपने-आप हो रहा है। किसी हद तक यह सोच सही भी हो सकती है, लेकिन यह सोचने का विषय है कि क्या सचमुच यह सब अपने आप हो रहा है, या इसके पीछे कुछ खास वजहें भी हैं? अगर कुछ वजहें हैं तो वे क्या हैं? इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र है और लोकतंत्र यह सिर्फ कहने के लिए नहीं, बल्कि सही अर्थो में है। यह भी एक स्थापित सत्य है कि किसी भी लोकतंत्र में आम आदमी की भूमिका ही सबसे महत्वपूर्ण होती है। क्योंकि शासन की बागडोर असल में उसके हाथ में होती है। भारत का आम नागरिक अब इस बात को समझने भी लगा है, यह बात हाल में हुए विधानसभा चुनावों ने साबित कर दी। उत्तर प्रदेश में करीब 60 और पंजाब में 78 प्रतिशत मतदान के बारे में इसके पहले सोचा भी नहीं गया था। जाहिर है, आम जन ने अपने देश और समाज में अपनी भूमिका की ठीक से पहचान की है और अब उसे निभाने के लिए उसने कमर भी कस ली है। उसकी यह कटिबद्धता केवल किसी एक क्षेत्र में नहीं, बल्कि हर क्षेत्र में दिखाई देती है।



hzaro hathटूटी हैं वर्जनाएं

ऐसे समय में जबकि अपनी रोजमर्रा जरूरतों को पूरा करने के लिए ही लोगों की बढती व्यस्तताओं के कारण जनांदोलन बीते जमाने की बात माने जाने लगे थे, आम आदमी फिर से बढ-चढ कर भ्रष्टाचार और अत्याचार विरोधी आंदोलनों में हिस्सा लेने लगा है। अब से दो-तीन दशक पहले तक ऐसे संघर्षपूर्ण आयोजनों में आम तौर पर केवल युवक ही हिस्सा लिया करते थे। स्त्रियों की भागीदारी नाममात्र होती थी। अब वह बात नहीं रही। हाल में हुए कुछ बडे आंदोलनों में स्त्री, पुरुष, युवा, बुजुर्ग और बच्चे सभी बडी तादाद में शामिल हुए हैं। यह बात केवल जनांदोलनों ही नहीं, सामाजिक-सांस्कृतिक आयोजनों, मीडिया के विभिन्न कार्यक्रमों, सकारात्मक परिवर्तन के तमाम प्रयासों, खेलों, रोमांचक कार्यो और सोशल नेटवर्किग साइटों तक दिखाई देती है। बिलकुल वैसे ही जैसे कार्य-व्यापार के विभिन्न क्षेत्रों में देखा जा रहा है। स्त्री-पुरुष की वर्जनाएं केवल शिक्षा और व्यवसाय ही नहीं, सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में टूटी हैं।


खासकर शिक्षा के क्षेत्र में अगर आकलन किया जाए तो शायद स्त्रियों की संख्या पुरुषों से कहीं अधिक निकले। लगभग यही हाल मेडिकल प्रोफेशन का है। यह स्थिति किसी आरक्षण या सुविधा के गणित के चलते नहीं आई, बल्कि स्त्रियों ने इन क्षेत्रों में अपनी योग्यता और क्षमता साबित की है। सच यह है कि जहां कहीं भी केयरिंग नेचर या सौहार्द की जरूरत है, वहां स्त्रियों ने बेहतर परिणाम दिए हैं। सिनेमा-मॉडलिंग समेत पूरे मनोरंजन जगत में स्त्रियों का वर्चस्व बढा है। साहित्य, संगीत, नृत्य और कला जैसी दुनियाओं में वे अपनी क्षमताएं पहले ही साबित कर चुकी हैं।


इतना ही नहीं, ऐसी स्त्रियों की भी कमी नहीं है, जिन्होंने रोमांच और विज्ञान के क्षेत्रों में भी अपनी काबिलीयत साबित की है। अंतरिक्ष का सफर करने वाली कल्पना चावला, फिलहाल मिसाइल परियोजना से जुडी टेसी थॉमस, अंटार्कटिक पर महीनों डेरा डालने वाली कंवल विल्कू, एवरेस्ट की चढाई करने वाली बछेन्द्री पाल, अंटार्कटिक तक स्केटिंग करने वाली रीना धर्मशक्तु.. यह फेहरिस्त बहुत लंबी है। खेलों में कर्णम मल्लेश्वरी, पीटी उषा व साइना नेहवाल की लोकप्रियता किसी से कम नहीं है। वित्त, व्यवसाय, राजनीति.. हर क्षेत्र में उन्होंने अपनी पहचान बनाई है। इस पहचान ने उन्हें सिर्फ परिवार ही नहीं, देश और समाज के प्रति अपने कर्तव्य को लेकर भी जागरूक किया है। यह इस जागरूकता का ही परिणाम है जो वे अब समाज में सार्थक बदलाव के लिए चल रहे प्रयासों में अपनी महत्वपूर्ण हिस्सेदारी दर्ज करा रही हैं।


बदले हालात

नजरिया सिर्फ स्त्रियों के प्रति ही नहीं, पूरे सामाजिक परिप्रेक्ष्य में बदला है। बीती शताब्दी के आठवें-नवें दशक तक सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों के प्रति विभिन्न कारणों से हताशा की ओर बढ चले युवाओं का तेवर 21वीं सदी में प्रवेश के साथ ही बदला हुआ सा दिखने लगा। उन्होंने समझ लिया कि हताश होकर चुपचाप बैठ जाने से कुछ होने वाला नहीं है। यह सही है कि अकेला शख्स कुछ खास नहीं कर सकता, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि कुछ कर ही नहीं सकता। अपने समाज को सही दिशा देने के लिए वह कुछ तो कर ही सकता है और यह कुछ कुछ नहीं से तो बेहतर है। इस सोच ने उसे अपने हालात और अपेक्षाओं के प्रति मुखर किया है। उसे मुखर करने तथा अपनी अपेक्षाओं को व्यक्त करने की सुविधा देने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है सूचना तकनीक ने।


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