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मुझे नौलखा मंगवा दे रे

Jagran Sakhi
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भारतीय लोक साहित्य में अगर देखा जाए तो इनका प्रयोग एक-दूसरे के पूरक और पर्याय की तरह हुआ है। लोकगीतों में तो इनके ऐसे-ऐसे अतिशयोक्ति से भरे उदाहरण मिलते हैं कि सोच कर हंसी आने लगती है। भारत की लगभग सभी बोलियों की लोककथाओं में भी ऐसे सैकडों उदाहरण भरे मिल जाएंगे। भारत में ऐसी शायद ही कोई लोकभाषा हो जिसमें किसी राजा के पास नौलखा हार होने, उस हार के चोरी होने और फिर किसी निर्दोष व्यक्ति पर चोरी का इल्जाम लगने तथा उसके चलते विपत्तियों का पहाड टूट पडने की कहानी न हो। मुझे नौलखा मंगा दे रे ओ सैयां दीवाने.. जैसे नए जमाने के फिल्मी गाने भी इन्हीं लोककथाओं और लोकगीतों से प्रेरित हैं।


सवाल सौंदर्यबोध का

अब चाहे लोककथाएं हों या फिर लोकगीत या नए दौर के फिल्मी गाने, जहां कहीं भी हार या किसी अन्य आभूषण का जिक्र आया है, वहां इसका संकेत एक ही है और वह है आभूषणों की चाह। आम तौर पर लोक और आधुनिक हर तरह के साहित्य में इसे जोडा गया है स्त्री से। यह अलग बात है कि प्राचीन और मध्यकालीन दौर के साहित्य में ऐसे किसी सम्राट, श्रेष्ठि या अन्य गणमान्य व्यक्ति का जिक्र मिलना मुश्किल है, जिसका जिक्र गहनों के बगैर आया हो। जहां कहीं भी राजाओं के रूप का वर्णन आया है, वहां उनके सुदर्शन व्यक्तित्व की कल्पना आभूषणों के बिना की ही नहीं जा सकती है। संस्कृत से लेकर अंग्रेजी साहित्य तक में कई तरह के महंगे रत्नों से जडे सोने-चांदी के आभूषण राजाओं के व्यक्तित्व के अभिन्न हिस्से के रूप में दिखाए गए हैं।


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इसके बावजूद आभूषण किसी ऐसी कहानी या गीत के कथानक का केंद्र नहीं बन सके हैं, जिसका मुख्य पात्र पुरुष हो। जहां भी किसी कहानी या गीत में आभूषण कथावस्तु के केंद्रीय तत्व बने हैं, उसकी मुख्य पात्र स्त्री रही है। इसकी वजह शायद यह हो कि आभूषण के प्रति अतिशय आकर्षण स्त्री की ही स्वभावगत विशिष्टता मानी जाती है। पुरुष अगर ऐसी किसी कहानी का केंद्रीय पात्र कभी बना भी है तो उसका कारण आभूषण नहीं, उसका मूल्य रहा है। आभूषण के प्रति उसकी ललक नहीं रही है, उसकी ललक उसकी कीमत में रही है। अगर रत्न के प्रति पुरुष का आकर्षण रहा है या उसने कहीं इसका प्रयोग किया है, तो भी उसकी रुचि रत्न के बजाय भाग्य पर उसके प्रभाव में होती है। सीधे आभूषण के प्रति पुरुष की कोई खास ललक नहीं देखी जाती है।


आभूषण के प्रति स्त्री की ललक और पुरुष की चाह के बीच अंतर है। यह फर्क है सौंदर्यबोध का। स्वभावत: भौतिक सफलता और स्वतंत्रता का आग्रही पुरुष आभूषण या तो अपना भाग्य चमकाने के लिए लेता है, या फिर समृद्धि दर्शाने और बढाने के लिए। वैसे समृद्धि दर्शाने और बढाने की बात तो स्त्रियों के साथ भी है, पर यह उनके लिए दूसरे दर्जे की प्राथमिकता है। उनकी पहली प्राथमिकता सौंदर्यबोध से ही जुडी मानी जाती है। इसके मूल में कहीं न कहीं उनका यह विश्वास भी है कि गहने पहन कर वह ज्यादा सुंदर दिखती हैं। लगभग वैसे ही जैसे कि अन्य सौंदर्य प्रसाधनों के प्रति।


रचनात्मक प्रसंग

साहित्य में गहनों की चर्चा सबसे पहले आती है शूद्रक के रूपक मृच्छकटिकम में। लिखित साहित्य में यह संभवत: पहली रचना है जिसमें गहने ही कथानक के केंद्र बने हैं और यह गहने हैं एक गणिका वसंतसेना के। वसंतसेना एक गरीब व्यक्ति से प्रेम करती है, जिसका नाम चारुदत्त है। चारुदत्त का बच्चा अपने पडोसी बच्चे के साथ खेलता है। उस बच्चे के पास सोने की गाडी है, जबकि इसकी गाडी मिट्टी की है।


चारुदत्त का बालक सोने की गाडी के लिए जिद करता है। यह जानकर कि यह चारुदत्त का बच्चा है, वसंतसेना अपने सभी जेवर निकाल कर उसकी गाडी में भर देती है और कहती है कि जाओ अब तुम इससे सोने की गाडी बनवा लेना।

आभूषणों के ऐसे प्रयोग की वास्तविक घटनाएं इतनी हैं कि उन सबका जिक्र करना मुश्किल है। यह बात लोकजीवन के यथार्थ की है। इसके बावजूद साहित्य में इसे स्थान कम ही मिल सका है। ऐसे अवसर कम नहीं रहे हैं जब परिवार, समाज या देश पर संकट के समय में किसी स्त्री ने अपने सारे गहने उतार दिए हों। इसलिए ताकि उन्हें बेचकर काम में लाया जा सके। मृच्छकटिकम के बाद साहित्य में इसका जिक्र न आया हो, ऐसा भी नहीं है। यहां तक कि हिंदी की फिल्मों में भी ऐसे कुछ प्रसंग आए हैं, जब स्त्रियों ने परिवार के मान-सम्मान की रक्षा के लिए अपने सभी जेवर दे दिए हों। भले ही जेवरों को सौंदर्य के एक साधन और प्रतिष्ठा के प्रतीक के रूप में देखा जाता है, पर इसका इससे ज्यादा रचनात्मक उपयोग और क्या हो सकता है? फिर भी, कारण चाहे जो भी रहा हो, ऐसी घटनाएं या ऐसे साहित्यिक प्रसंग भी चर्चा के केंद्र में बने नहीं रह सके हैं।


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त्रासदी से भरी कहानियां

चर्चा के केंद्र में ज्यादातर ऐसी कहानियां रही हैं जिनका या तो अंत त्रासद रहा है, या फिर पूरे कथानक की विकासयात्रा त्रासदी से भरी रही है। वैसे हिंदी-अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में भी ऐसी कहानियां हैं, जिनमें गहनों को लेकर लिखी कहानी, नाटक या प्रबंध काव्य का अंत सुखद रहा, लेकिन उनके नायक या नायिका का पूरा जीवन अत्यंत संघर्षपूर्ण और त्रासदी से भरा रहा है।


कहा जा सकता है कि ऐसी कथाओं की शुरुआत भी संस्कृत से ही हुई है। महाकवि कालिदास के महाकाव्य अभिज्ञान शाकुंतलम की कथा कुछ ऐसी ही है। स्वर्ग की अप्सरा मेनका की पुत्री शकुंतला की मुलाकात शिकार के लिए वन में आए राजा दुष्यंत से होती है। दोनों एक-दूसरे से इतने प्रभावित होते हैं कि वहीं दोनों का गंधर्व विवाह हो जाता है। कुछ ही दिनों बाद अपनी पहचान के तौर पर शकुंतला को एक अंगूठी देकर दुष्यंत वापस राजधानी चले जाते हैं। शकंतुला कुछ दिनों बाद दुष्यंत से मिलने राजधानी जाती है। इस बीच वह एक तालाब से पानी पीती है और उसी दौरान उसकी अंगूठी तालाब में गिर जाती है। वह अंगूठी एक मछली निगल लेती है। फलत: जब वह दुष्यंत के पास पहुंचती है तो दुष्यंत उसे पहचान नहीं पाते हैं।


शकुंतला और दुष्यंत का मिलन वर्षो बाद फिर तभी संभव हो पाता है जब संयोगवश वह मछली मारी जाती है और उसके पेट से वह अंगूठी निकलती है। इस बीच लंबे समय तक दोनों को अलग ही रहना पडा। हालांकि इस कहानी को लेकर स्त्री अस्मिता से जुडे कई सवाल उठाए जा सकते हैं, पर वह एक अलग बात है। यहां मूलभूत मुद्दा एक अंगूठी को लेकर शुरू हुई त्रासदी का है और इस मामले में शकुंतला की कहानी अपने ढंग की अनूठी और कालक्रम के अनुसार शायद पहली हो।


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आभूषणों की ललक

कहानी चाहे मृच्छकटिकम की हो या अभिज्ञान शाकुंतलम की, इन दोनों की ही कथावस्तु के केंद्र में आभूषण और स्त्री जरूर हैं, लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है कि स्त्री में आभूषण के प्रति बेतरह ललक दिखाई गई हो। इनमें एक स्त्री के आत्मोत्सर्ग की कहानी है तो दूसरी एक आभूषण के ही चलते एक स्त्री के भयावह त्रासदी की शिकार होने की कथा है। आश्चर्य की बात है कि इन कहानियों की चर्चा प्रेम और अन्य भावनात्मक संदर्भो में जरूर होती है, लेकिन आभूषणों को लेकर स्त्री के त्याग और उसकी संवेदनशीलता या स्त्री अस्मिता के सवालों की ओर आधुनिक चेतना संपन्न साहित्यकारों का ध्यान भी नहीं गया है।


इस भावभूमि को लेकर आधुनिक चेतना को झकझोरने वाली पहली कहानी फे्रंच कथाकार गाय दे मोपासां की द नेकलेस है। यह एक ऐसी सुंदर लडकी की कहानी है जिसे गहनों का बहुत शौक है, लेकिन उसकी शादी एक गरीब व्यक्ति से हो जाती है। वह दूसरी स्त्रियों को सुंदर गहने पहने देखकर कुढती रहती है, लेकिन साधनहीनता के कारण कुछ कर नहीं पाती। सुंदर आभूषण पहनने की उसकी चाह पूरी नहीं हो पाती। इसी बीच उसके पति को एक पार्टी में जाने का निमंत्रण मिलता है। वह यह बात बताता है तो पत्नी और ज्यादा दुखी हो जाती है। कारण पूछने पर वह बताती है कि मेरे पास सुंदर कपडे तो हैं नहीं और ये साधारण कपडे पहन कर पार्टी में जाने का कोई अर्थ नहीं है। पत्नी को उदास देखकर पति किसी तरह कपडों की व्यवस्था कर देता है। लेकिन वह फिर उदास हो जाती है। यह सोच कर कि उसके पास गहने तो हैं नहीं। थोडी देर में उसे याद आता है कि उसकी एक अमीर सहेली के पास हीरे का नेकलेस है। वह उसके पास पहुंचती है और उससे एक दिन के लिए नेकलेस उधार मांगती है। सहेली खुशी से अपना नेकलेस उसे दे देती है। जिसे पहन कर वह पार्टी में जाती है और सबके आकर्षण का केंद्र बनती है। लेकिन लौटने पर वह पाती है कि नेकलेस गायब है।


यहीं से इस जोडे की त्रासदी शुरू होती है। दोनों दिन-रात खटकर कई साल की कडी मेहनत के बाद वैसा ही दूसरा नेकलेस बनवाते हैं और फिर उसे लेकर उस स्त्री के पास जाते हैं जिससे उन्होंने वह नेकलेस लिया था। जब वे उसे हीरे का नेकलेस लौटाते हैं तो पता चलता है कि उसने जो नेकलेस उन्हें दिया था, वह तो नकली था। इस तरह सिर्फ एक दिन के सुख के लिए कर्ज चुकाने में पूरी िजंदगी बिता देने की कहानी बनते-बनते यह कहानी अचानक एक सुखद अंत पर पहुंचती है। लेकिन इसमें तो कोई दो राय नहीं कि बीच की उनकी पूरी िजंदगी सिर्फ त्रासदी से भरा सफर बन कर रह गई। संभवत: आधुनिक साहित्य में यही पहली कहानी है जिसमें आभूषण के प्रति स्त्री की ललक को ऐसी त्रासदी का जिम्मेदार ठहराया गया। एक दौर में बहुचर्चित और बहुप्रशंसित रही यह कहानी आज भी अकसर चर्चा में आ जाती है। हालांकि आज अगर स्त्रीवादी नजरिये से इसका विश्लेषण किया जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर यह साहित्य की दुनिया में एक बडे तबके की आलोचना की पात्र बने।


ललक से जुडी त्रासदी

इसमें कोई दो राय नहीं है कि बहुत ज्यादा ललक किसी भी चीज की खतरनाक होती है। क्योंकि आकांक्षाओं की अति मनुष्य को गलत साधन अपनाने के लिए बाध्य करती है और यह अंतत: त्रासद साबित होता है। इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास है मुंशी प्रेमचंद का गबन। सच तो यह है कि इस उपन्यास के बहाने प्रेमचंद के निशाने पर मध्यवर्ग की कुछ कुप्रथाएं हैं, लेकिन इसकी कथावस्तु आभूषणों के इर्द-गिर्द ही घूमती है। कहानी की शुरुआत एक मुंशी जी के बेटे के विवाह से होती है। परंपरा के अनुसार बहू को चढावे में ढेर सारे गहने भेजे जाते हैं। उनमें एक चंद्रहार होता है और वह उसे बहुत पसंद भी आ जाता है। विवाह के बाद बहू जब ससुराल आती है तो कुछ ही दिनों बाद सास उससे वह चंद्रहार वापस ले लेती है। तब उसे मालूम होता है कि वह तो किसी दूसरे का था। उसे तो सिर्फ दिखावे के लिए भेज दिया गया था। इससे बहू को बहुत धक्का लगता है। वह उदास रहने लगती है। तब उसका पति यह संकल्प करता है कि वह उसके लिए चंद्रहार जरूर बनवाएगा। हालांकि वह एक छोटा और ईमानदार मुलाजिम है। उसके लिए ईमानदारी से चंद्रहार बनवाना आसान नहीं है। आखिरकार चंद्रहार बनवाने के लिए वह गबन करता है और पकडा जाता है। यह कहानी दुखांत ही है। दिखावे और लोभ के चलते एक परिवार तबाह होकर रह जाता है। काफी पहले इसी कथानक पर एक फिल्म भी बन चुकी है, जिसका गाना मैंने सपने में देखा था एक चंद्रहार/आज बालम ने पहना दिया.. खासा लोकप्रिय रहा है। मुंशी प्रेमचंद की ऐसी ही दो और कहानियां हैं। इनमें एक तो है जेवर का डिब्बा और दूसरी कौशल। इन कहानियों के जरिये भी मुंशी प्रेमचंद यही संदेश देते हैं।


आकर्षण का सच

भारत तथा विदेशों की अन्य भाषाओं में भी ऐसी कई कहानियां हैं जिनमें गहनों के प्रति स्त्री की अतिरिक्त ललक दिखाई गई है। बांग्ला साहित्य में शरत चंद्र और बंकिम चंद्र की भी कुछ कहानियां इस भावभूमि पर आधारित हैं। लेकिन यह सच है कि चाहे भारतीय रहे हों या विदेशी, साहित्यकारों ने उन स्थितियों को समझने की कोशिश कभी नहीं की जिनके कारण गहनों के प्रति स्त्री की ललक है। यह समझने की कोशिश ही नहीं हुई कि आभूषणों के प्रति स्त्री का ऐसा आकर्षण अगर है तो उसका कारण क्या है। इसका एक कारण तो यह भी है कि अकसर इन मुद्दों पर लेखकों की ही कलम चली और लेखिकाएं मौन रहीं। अगर उन्होंने इसका विश्लेषण किया होता तो शायद कुछ और बातें सामने आतीं। धन के सुरक्षित निवेश और अच्छे रिटर्न को देखते हुए आज का सच तो यह है कि आभूषणों की खरीद-फरोख्त में पुरुषों की रुचि भी स्त्रियों से कुछ कम नहीं है। फिर भी गहनों के प्रति आकर्षण स्त्रियों का ही माना जाता है। यह कहते हुए लोग यह भूल जाते हैं कि स्वतंत्रता की लडाई के दौरान तमाम स्त्रियों ने अपने गहने उतार कर क्रांतिकारियों और सत्याग्रहियों को दे दिए थे, ताकि वे देश के लिए लड सकें। आजादी के बाद भारत-चीन युद्ध के दौर में भी तमाम स्त्रियों ने ऐसी ही त्याग भावना का परिचय दिया था।


परिवारों के लिए तो कितने अवसरों पर स्त्रियों के गहने काम आए हैं, इसकी ठीक-ठीक गिनती कर पाना तो शायद भारत के किसी परिवार के बस की बात न हो। जीवन में आभूषणों की उपयोगिता स्पष्ट करने के लिए इतना काफी है। फिर भी आभूषणों के प्रति केवल स्त्रियों के आकर्षण को लेकर इतनी नकारात्मक धारणाएं क्यों है, इस मुद्दे पर विचार किया जाना चाहिए


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आपके लिए एक सवाल : क्या  आपको भी यही लगता है कि सिर्फ महिलाओं में आभूषणों के लिए इच्छा होती हैं…..


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