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ऑल हॉट गर्ल्स पुट योर हैंड्स अप एंड से ओम शांति ओम..
ओम शांति ओम फिल्म का यह गाना रहा हो, या फिर दोस्ताना का ये गाना
यू आर माई देसी गर्ल..
या फिर इधर आई अधिकतर फिल्मों के ऐसे ही कई और गाने.. अंग्रेजी-हिंदी-पंजाबी-उर्दू या कोई और भाषा.
फिल्मों से लेकर टेलीविजन, रेडियो और पत्र-पत्रिकाओं तक भाषा नए सिरे से कबीर की याद दिला रही है तो कथ्य सारे बंधन तोड कर एकदम से उत्तर आधुनिकता के दौर से भी आगे निकल जाने पर उतारू हैं। बिंदासपन के मामले में यह फ्रांसिस फुकुयामा की याद दिलाती है तो हर फिल्म से आता नया संदेश सोच की मौलिकता के स्तर पर लुडविग विटगेंस्टाइन को साकार कर देता है। समाज का एक बडा तबका तहेदिल से इसका स्वागत कर रहा है, वहीं कुछ लोग नाक-भौं सिकोडते भी दिख रहे हैं। जो इस बदलाव के साथ हैं, उनका सीधा मानना है.. अच्छा लगता है, रिलीफ देता है, आसानी से समझ में आता है और थीम में नयापन है.. बस। इसके अलावा और क्या चाहिए कोई फिल्म या सीरियल देखने, गाना या रेडियो प्रोग्राम सुनने या फिर किताबें पढने के लिए!
यह कोई बुद्धिजीवियों का तर्क नहीं, सीधी बात है। वह वजह है जिसके नाते वे पसंद करते हैं किसी फिल्म, प्रोग्राम या किताब को। दूसरी तरफ इसके खिलाफ खडे लोग हैं और उनके पास सिर्फ अपने शुद्धतावादी आग्रह हैं। उनका सवाल है कि इसमें समझने के लिए है क्या? वे व्याकरण के नियम जानते हैं, पर भाषा विज्ञान के तौर-तरीकों से उनका बहुत मतलब नहीं है। वे यह तो देख रहे हैं कि बोलचाल के साथ-साथ लिखत-पढत की हिंदी में भी अब अंग्रेजी के शब्द ज्यादा आने लगे हैं, पर शायद यह नहीं देख पा रहे कि अभिव्यंजना शक्ति से संपन्न दूसरी भारतीय भाषाओं के वे देशज शब्द भी खूब आ रहे हैं जिन्हें अब तक भदेस माने जाने के कारण साहित्य की दहलीज से प्राय: बाहर ही रहना पडा है।
फ्यूजन है विकास का हेतु
भाषाओं का इतिहास जानने वाले किसी भी व्यक्ति को यह कहने में संकोच नहीं होगा कि फ्यूजन की यही प्रक्रिया हमेशा विकास की वजह बनी है। हिंदी के मामले में तो वक्त चाहे अमीर खुसरो का रहा हो, या कबीर या फिर निराला का ही क्यों न हो! खुसरो ने एक पंक्ति फारसी तो दूसरी हिंदवी में लिखने का अभिनव प्रयोग किया तो कबीर की भाषा को नाम ही पंचमेल खिचडी दिया गया। निराला संस्कृत के मूल शब्दों के साथ-साथ लोक में प्रचलित बोलियों के वे शब्द भी ले आए जिनका प्रयोग साहित्य में उनके पहले तक नहीं होता रहा है।
दुष्यंत कुमार को उर्दू की काव्यविधा गजल को पूरी तरह हिंदी की प्रकृति के अनुकूल ढालने के लिए जाना जाता है और त्रिलोचन शास्त्री को अंग्रेजी छंद सॉनेट को हिंदी के अनुरूप बनाने के लिए। लेकिन इसका यह मतलब बिलकुल नहीं कि किसी भी देसी-विदेशी भाषा का कोई छंद हिंदी में उठा लाने या केवल प्रयोग के लिए कुछ भी कर देने भर से ही कोई कालजयी रचनाकारों की श्रेणी में आ जाएगा या हिट हो जाएगा। हिट हो जाने के लिए रचना में एक अलग तरह के ताप की जरूरत होती है। वह ताप जो उसे दूसरी रचनाओं से अलग करता है।
वह ताप जो उसमें अपने समय की सही तसवीर दिखाकर उसे आमजन की मांग बनाता है। बेशक लोकप्रियता की कसौटी पर कई बार ऐसी चीजें भी खरी उतरी हैं जो सिर्फ कुछ आवेगों को उभारती हैं और वे अच्छा बिजनेस भी कर लेती हैं, पर उनकी उम्र बहुत नहीं होती। सैकडों फिल्मी-गैर फिल्मी गाने इसके उदाहरण हैं। कालजयी तो सिर्फ वही रचनाएं होती हैं जो अपने समय और उससे आगे के सच को सहजता से उजागर कर रही होती हैं। ऑल इज वेल.. जैसे गीत सिर्फ इसलिए हिट नहीं होते कि वे युवाओं को सुनने में अच्छे लगते हैं। महंगाई, बेकारी और गला काट प्रतिस्पर्धा के इस कठिन दौर में जरा-जरा सी बात पर हताशा से भर जाने वाले युवाओं की सोच को यह गीत सकारात्मक दिशा भी देता है। वह भी उपदेश के लहजे में नहीं, बिलकुल खिलंदडे अंदाज में।
रामायण और महाभारत जैसे हजारों साल पहले रचे गए महाकाव्यों पर आधारित फिल्में व सीरियल आज भी हर आयुवर्ग में लोकप्रिय हो जाते हैं। किताबें हिंदी के हिसाब से बेस्टसेलर के निकट तक पहुंच जाती हैं। क्या इसकी वजह सिर्फ श्रद्धा-विश्वास है? नहीं, असल में इनमें आज के लोगों को भी जिंदगी की उलझनों के सार्थक समाधान मिल जाते हैं। भले ही इसे हम मूल्यों के पतन का दौर कहें, पर इनमें स्थापित मूल्यों की प्रतिष्ठा की जरूरत आज हर आदमी महसूस करता है। यही वजह है जो मुन्नाभाई एमबीबीएस की गांधीगिरी उसे लुभाती है और रंग दे बसंती उसमें व्यवस्था की विसंगतियों से लडने का जज्बा भर देती है।
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फॉर्मूला मार्ग से हटकर
पिछली सदी के अंतिम दो दशकों में हिंदी सिनेमा जिस तरह फॉर्मूलावादी मार्ग पर चला उसका नतीजा यह हुआ कि तकनीक के तरक्की करते ही दर्शक हॉलों से दूर भागने लगा। उसे फिर से हॉल तक ले आना बडी चुनौती बन गई और फिल्मकारों ने इसे स्वीकार किया। यह चुनौती सिर्फबात को नए ढंग से पेश करने की ही नहीं, बल्कि अपने समय के समाज की दुखती रग पर सलीके से उंगली रखने की भी थी। मुन्ना भाई एमबीबीएस, रंग दे बसंती और लगान जैसी फिल्में इसी कडी की शुरुआत थीं। शायद फिल्मी दुनिया समझ गई थी कि भारतीय जनता को सिर्फ थ्रिलर मनोरंजन नहीं चाहिए। पंचतंत्र और हितोपदेश से लेकर गोदान और वोल्गा से गंगा तक यह मनोरंजन के साथ-साथ सार्थक संदेश चाहती रही है।
यह प्रयोग समानांतर सिनेमा के रूप में वैसे तो 80 के दशक में ही हुआ था, पर सफल नहीं हो सका। क्योंकि तब व्यावसायिक और सार्थक सिनेमा नदी के दो किनारों की तरह साफ तौर पर अलग-अलग दिख रहे थे। बिलकुल वैसे ही जैसे लुगदी और सार्थक साहित्य. एक का काम सिर्फ सस्ता मनोरंजन परोसना है, समाज की बुनावट और भविष्य की परवाह किए बगैर और दूसरे का सिर्फ विचारधारा थोपना। जबकि भारत में ही बांग्ला, कन्नड, मलयाली जैसी क्षेत्रीय कही जाने वाली भाषाओं में यह काम साथ-साथ हो रहा है। सिनेमा ने इस सच को समझ लिया और शायद टीवी ने भी। इसीलिए सिनेमा अब ऐसे ही साहित्य की ओर लौट रहा है तो बुद्धू बक्सा अपने ही अतीत में झांक रहा है। एक दौर था जब वहां शरतचंद्र के श्रीकांत, प्रेमचंद के निर्मला, रांगेय राघव के कब तक पुकारूं और देवकी नंदन खत्री के चंद्रकांता संतति जैसे उपन्यासों पर आधारित सीरियल छाए हुए थे। मनोहर श्याम जोशी के कक्का जी कहिन व बुनियाद, आर के नारायण की कहानियों पर आधारित मालगुडी डेज के अलावा फटीचर और नुक्कड जैसे शो हिट होते थे।
फिर धीरे-धीरे कब और कैसे ये इतिहास की धरोहर बन गए और इनकी जगह रिअलिटी शोज ने ले ली, यह अब पीछे मुडकर देखने वालों को हैरत में डाल देता है। लेकिन नहीं, अब अगर अपने दौर को जरा गौर से देखें तो मालूम होता है कि छोटा परदा नए सिरे से इतिहास दुहराने की ओर बढ रहा है। शरद जोशी की कहानियों पर आधारित लापतागंज और तारक मेहता का उल्टा चश्मा इसकी मिसाल हैं। बंदिनी वर्षा अदालजा के चर्चित गुजराती उपन्यास रेतपांखी पर आधारित है तो सजन घर जाना है बंकिम चंद्र के उपन्यास देवी चौधरानी से प्रेरित।
नई सोच ही लोकप्रिय
सिनेमा ने नए सिरे से इसकी शुरुआत विकास स्वरूप की बेस्टसेलर क्यू एंड ए पर बनी स्लमडॉग मिलियनेयर के हिंदी रूपांतर से की। वैश्विक पृष्ठभूमि पर रची गई इस कृति पर बनी फिल्म दुनिया भर में लोकप्रिय हुई। अभी हाल ही में चेतन भगत के फाइव प्वाइंट समवन पर आधारित थ्री इडियट्स इसका ताजा उदाहरण है। यही नहीं, सदी के आरंभ में जो गांव और कस्बे सुनहले परदे से गायब हो गए थे, वे अब नए सिरे से लौट रहे हैं।
अपहरण, गंगाजल, ओंकारा के अलावा वेलकम टु सज्जनपुर, बिल्लू बारबर, मालामाल वीकली व इश्किया भी इसी कडी का विस्तार हैं। यह वापसी आखिर क्यों है? क्योंकि सिनेमा के निर्देशक जानते हैं कि मल्टीप्लेक्स आने वाले दर्शकों के भी एक बडे तबके का मूल गांवों-कस्बों में है और उन्हें अपना वह परिचित परिवेश खींचता है। वे समझ गए हैं कि आज का दर्शक थोपा हुआ कुछ भी बर्दाश्त नहीं करेगा- न तो उपदेश और न फूहड मनोरंजन ही। उसे साफ-सुथरा और स्वस्थ मनोरंजन चाहिए, अपने जीवन के लिए सुगम मार्ग के साथ। संदेश के रूप में राजनीतिक आश्वासन नहीं, सही दिशा चाहिए। मनोरंजन के रूप में अफीम नहीं, सकारात्मक सोच और उम्मीद की सच्ची किरण चाहिए। वस्तुत: यह आपका दबाव है जिसे वे समझ रहे हैं। वह आपकी भाषा है, जिसे सभी अपना रहे हैं। भाषा में फ्यूजन की यह प्रक्रिया और शुद्धतावादी आग्रह – दोनों हर भाषा में हमेशा साथ-साथ चलते रहे हैं। इसलिए अपनी सोच और जुबान दोनों में से किसी को भी लेकर परेशान होने की जरूरत बिलकुल नहीं है। अगर कुछ परंपरागत मान्यताओं के कारण वर्जनाओं के कुछ आग्रह आप पर हावी हो भी रहे हों तो भी बी कूल और मान कर चलें.. भैया ऑल इज वेल..
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