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रिश्ते जो दिल के करीब हैं

Jagran Sakhi
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जरा सोचिए, अगर ऐसे रिश्ते-नाते न होते तो हमारी जिंदगी कितनी उदास और बेरौनक होती।


एहसास अपनत्व का

कार्तिकेय पेशे से ग्राफिक डिजाइनर हैं। वह कहते हैं, मैं मूलत: आंध्र प्रदेश का रहने वाला हूं। पिछले दस वर्षो से दिल्ली में हूं। मेरी पत्नी भी स्कूल में टीचर हैं। शुरुआत में यहां हमें बहुत बेगानापन  महसूस होता था, पर धीरे-धीरे हम यहां एडजस्ट हो गए। जब मैं दिल्ली आया था तब मेरी बेटी मात्र दो साल की थी। उस वक्त हमारे नेक्स्ट डोर नेबर ने हमारी बहुत मदद की। उनकी बेटियों की उम्र तकरीबन पांच-छह साल थी। वे मेरी बच्ची को अकसर अपने घर ले जाती थीं। उन्हीं के साथ रहकर वह बडी आसानी से हिंदी बोलना सीख गई थी। जब मेरी पत्नी उसे आया के साथ घर पर अकेला छोडकर स्कूल जातीं तो उनकी अनुपस्थिति में पडोस का वह परिवार मेरी बेटी का पूरा खयाल  रखता था। अब हमारे वह पडोसी जर्मनी में सेटल हो गए हैं, पर फोन के जरिये उनसे अब भी संपर्क कायम है। छुट्टियों में जब भी वे इंडिया आते हैं तो हमसे मिले बगैर नहीं जाते। उस परिवार से अब हमारा एक ऐसा स्नेह भरा नाता बन गया है, जो इस अजनबी शहर में भी हमें अपनत्व का एहसास दिलाता है।

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समाजीकरण है जरूरी

आजकल महानगरों के एकल परिवारों में रहने वाले बच्चे खुद  को बहुत अकेला महसूस करते हैं। पहले संयुक्त परिवारों में माता-पिता के अलावा कई अन्य सदस्य होते थे। जिनके साथ रहकर बच्चों में सहजता से शेयरिंग  और केअरिंग की भावना विकसित होती थी, पर अब ऐसा नहीं है। न्यूक्लियर  फेमिली  में भी एक ही बच्चे का चलन बढता जा रहा है। इससे बच्चे आत्मकेंद्रित हो रहे हैं। उनके व्यक्तित्व के संतुलित विकास में समाजीकरण की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बच्चा जैसे ही बोलना-चलना सीखता है, वह हर पल घर से बाहर निकलने को बेताब रहता है। इसकी खास वजह यही है कि मनुष्य मूलत: सामाजिक प्राणी है। उसे बाहर की दुनिया बहुत आकर्षित करती है। वह नई चीजें देखने और समझने की कोशिश करता है। ऐसे में बच्चे को रोकना ठीक नहीं है। बाहर जाकर ही वह दूसरे बच्चों से दोस्ती करना सीखता है। बाहर की दुनिया में ही बच्चे अपने अधिकारों के लिए लडना और एडजस्टमेंट सीखते हैं। कई अध्ययनों में यह पाया गया है जिन बच्चों का समाजीकरण सही ढंग से नहीं होता बडे होने के बाद वे स्वार्थी, दब्बू और चिडचिडे बन जाते हैं। इसी वजह से आज के जागरूक अभिभावक अपने बच्चों के समाजीकरण पर बहुत ध्यान देते हैं और उन्हें नए दोस्त बनाने के लिए प्रेरित करते हैं। यहां तक कि अपने लिए मकान या फ्लैट खरीदते समय भी वे बच्चों की सामाजिक जरूरतों को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि अब उन्हें बच्चों के व्यक्तित्व के सर्वागीण विकास में इक्स्टेंडिड  फेमिली  की अहमियत का एहसास होने लगा है।


साथी हाथ बढाना

आज का मध्यमवर्ग तेजी से अपना जीवन स्तर बेहतर बनाने की कोशिश में जुटा है। यही वजह है कि उच्च शिक्षा हासिल करने और करियर के बेहतर अवसरों की तलाश में छोटे-छोटे कसबों से महानगरों में आने वाले युवाओं की तादाद तेजी से बढ रही है। घर-परिवार से दूर अपनी आंखों में ढेर सारे सपने लेकर अनजाने शहर में आने वाले युवा यहां दोस्तों का एक नया कुनबा बना लेते हैं। दूसरे शहरों से महानगरों में आने वाले युवा अकसर साथ मिलकर रहते हैं। यह व्यवस्था उनके लिए किफायती होने के साथ सुरक्षित और आरामदायक भी होती है। इससे बेगाने शहर में उन्हें अकेलेपन का एहसास नहीं होता। बीमारी या किसी अन्य परेशानी में वे एक-दूसरे के लिए मददगार साबित होते हैं। हालांकि, अलग-अलग परिवेश से आने वाले लोगों के साथ एडजस्टमेंट में थोडी दिक्कत जरूर होती है, पर सुविधाओं की खातिर इन कामकाजी युवाओं को अपनी कुछ आदतें बदलने में जरा भी गुरेज नहीं।

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जरूरतों से भी बनते हैं रिश्ते

समान हितों के लिए साथ मिल-जुलकर रहना आज महानगरीय जीवनशैली की जरूरत है। वहां लोग अपनी जरूरतों को ध्यान में रखते हुए एक-दूसरे के साथ सहयोगपूर्ण रवैया अपनाते हैं। आजकल पेट्रोल की बढती कीमतों और ट्रैफिक की परेशानियों को देखते हुए कुछ लोग अपने पडोस में रहने वाले लोगों के साथ मिलकर कार पूलिंग की भी व्यवस्था कर लेते हैं। इससे वे कम खर्च  में आराम से ऑफिस पहुंच जाते हैं। आजकल न्यूक्लियर फेमिली में छोटे बच्चों की परवरिश के दौरान मांओं के सामने कई तरह की समस्याएं आती हैं। परिवार में उनके साथ कोई दूसरी स्त्री नहीं होती, जिससे वे अपनी समस्याओं के बारे में बातचीत करके उनका हल ढूंढ सकें।

इसलिए अब भारत में भी यूरोपीय देशों की तरह प्ले स्कूल जाने वाले बच्चों की मम्मियों ने साथ मिलकर मदर-टोडलर्स ग्रुप बनाना शुरू कर दिया है। इस ग्रुप की सभी स्त्रियां महीने में एक या दो बार अपने बच्चों के साथ किसी एक के घर पर मिलती हैं। वहां उनके बच्चों को हमउम्र दोस्तों के साथ जी भरकर खेलने-कूदने का मौका मिलता है। इसी दौरान उनकी मम्मियां बच्चों की सेहत, खानपान और उनके विकास संबंधी समस्याओं पर आपस में खुलकर बातचीत करती हैं। इस तरह बातों ही बातों में कई समस्याओं का हल निकल आता है। इसके अलावा फोन के माध्यम से भी वे हमेशा एक-दूसरे के संपर्क में रहती हैं। इससे उन्हें स्कूल से जुडी सभी गतिविधियों की जानकारी मिलती रहती है। अपना परिवार भले ही छोटा हो, पर इससे बाहर इनकी बहुत बडी इक्स्टेंडिड  फेमिली  है। महानगरों में ज्यादातर स्त्रियां कामकाजी होती हैं, वहां घरेलू सहायक उनके लिए परिवार के किसी सदस्य से कम नहीं होते। इसलिए यहां रहने वाले लोग उनके श्रम का सम्मान करते हुए उनका पूरा खयाल रखते हैं।


वर्चुअल व‌र्ल्ड के अनूठे रिश्ते

भले ही कुछ लोग सोशल नेटवर्किग  साइट्स या ब्लॉगिंग  को वक्त  बर्बाद करने का जरिया मानते हों, पर इसकी कई ऐसी खूबियां  हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आज की अति व्यस्त जीवनशैली में जहां किसी के पास दूसरों की बातें सुनने का वक्त  नहीं होता, ऐसे में यह वर्चुअल दुनिया समान विचार रखने वाले लोगों को दोस्ती और विमर्श का एक मंच प्रदान करती है। वहां वे खुल कर अपनी भावनाएं अभिव्यक्त कर सकते हैं। ऐसे साइट्स के जरिये लोगों को बचपन के बिछडे दोस्त वापस मिल जाते हैं, दूर के रिश्तेदारों के साथ नए सिरे से संपर्क कायम हो जाता है, दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बैठे लोगों के बीच भावनाओं और विचारों की इतनी सुंदर साझेदारी सिर्फ इसी दुनिया में देखने को मिल सकती है। इस संबंध में एनआरआइ ब्लॉगर  सुजय कहते हैं, केरल में रहने वाली एक महिला ब्लॉगर  से मेरी अच्छी मित्रता हो गई है। उन्होंने मुझे सपरिवार केरल आने का निमंत्रण दिया था। जब मैं छुट्टियों में भारत आया तो उनके घर भी गया। उनके पूरे परिवार ने खुले दिल से हमारा स्वागत किया। अब तो उनके बच्चों की मेरे बेटे से अच्छी दोस्ती हो गई है और उनसे मेरी पत्नी का भी बहनापा हो गया है। इस तरह वर्चुअल व‌र्ल्ड ने भारत में मुझे नया फेमिली  फ्रेंड  दिया।

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प्यार से मिलता है संबल

महानगरों में बुजुर्गो का अकेलापन बडी समस्या बनती जा रही है क्योंकि उनकी युवा संतानें जॉब की वजह से शहर या देश से बाहर चली जाती हैं। इसलिए कुछ बुजुर्गो ने अपना सोशल क्लब बना रखा है, जहां वे साथ मिलकर अपनी रुचि से जुडे विषयों पर बातचीत करते हैं, शतरंज, कैरम और ताश जैसे इंडोर गेम्स खेलते हैं। जिनकी सेहत इजाजत देती है, वे बैडमिंटन और टेनिस जैसे आउटडोर गेम्स का भी लुत्फ उठाते हैं। कुछ लोग पास-पडोस के जरूरतमंद बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा देते हैं। कई बार कुछ बुजुर्ग दंपती साथ मिलकर अपने मनपसंद पर्यटन स्थलों की सैर पर निकल पडते हैं। धार्मिक रुझान के लोग मंदिरों की कार्यकारिणी समिति के सदस्य बन जाते हैं। इस तरह सत्संग और भजन-कीर्तन जैसे आयोजनों में उनका मन रम जाता है। यहां परिवार के अन्य सदस्य भले ही उनके साथ न हों, पर आसपास के लोगों का प्यार ही उन्हें जिंदादिल बनाए रखता है।


पीजी आंटी से नेह भरा नाता

बडे शहरों में रहने वाले बुजुर्ग अकेलापन दूर करने के लिए कई नई तरकीबें ढूंढ रहे हैं। महानगरों में पीजी का बढता चलन भी इनमें से एक है। वहां अकेले रहने वाले बुजुर्ग (ज्यादातर स्त्रियां) कामकाजी युवाओं को अपने घरों में बतौर पेइंग गेस्ट रहने की सुविधा मुहैया करवाते हैं। इससे जहां एक ओर उन्हें कुछ अतिरिक्त आमदनी होती है, वहीं घर में किसी युवा का साथ उन्हें भावनात्मक सुरक्षा का भी एहसास दिलाता है। बीमारी या किसी आकस्मिक स्थिति में ये पेइंग गेस्ट उनके लिए बहुत मददगार साबित होते हैं। उनके बीच परिवार के सदस्यों जैसा अपनत्व विकसित हो जाता है। पीजी आंटी का घर छोडने के बाद भी वे फोन से उनकी खैरियत पूछना नहीं भूलते। हालांकि, आजकल बढती हिंसक घटनाओं को देखते हुए कुछ लोग अपने घर में पेइंग गेस्ट रखने से पहले उसकी पूरी जांच-पडताल करते हैं या फिर परिचितों को ही पेइंग गेस्ट रखना पसंद करते हैं।

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हम साथ-साथ हैं

महानगरों की एकाकी और आत्मकेंद्रित जीवनशैली से अब लोग ऊबने लगे हैं। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार विचित्रा दर्गन आनंद कहती हैं, भावनाओं की शेयरिंग  हमें तनाव और डिप्रेशन  जैसी समस्याओं से बचाती है। अब लोगों को अपनों के साथ की अहमियत का एहसास होने लगा है। इसलिए वे परिवार से बाहर अपना सामाजिक दायरा बढाने की कोशिश करते हैं। उनकी इस कोशिश का असर महानगरीय जीवनशैली में अलग-अलग स्तरों पर देखने को मिलता है। अब तक लोग ऐसा समझते थे कि अपार्टमेंट्स  में रहने वाले लोग एक-दूसरे को नहीं जानते और न ही वे पडोसी की मदद करते हैं, पर सच्चाई यह है कि आजकल हर अपार्टमेंट  के रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन की ओर से वहां सभी त्योहारों का सामूहिक आयोजन किया जाता है। जिसके माध्यम से वहां रहने वाले लोगों को एक-दूसरे से मिलने-जुलने का अवसर मिलता है। बडे शहरों में अब लोग मिल-जुलकर रहने की अहमियत समझने लगे हैं। भले उनके पास समय की कमी हो, फिर भी वे अपने पास-पडोस का खयाल रखते हैं। स्त्रियों की किटी पार्टी उनके सामाजिक जीवन का अहम हिस्सा है। अकसर लोग किटी  पार्टी को स्त्रियों की गॉसिपिंग का अड्डा मानते हैं, पर वास्तव में ऐसा नहीं है। ऐसे छोटे सामाजिक समूहों के माध्यम से वे एक-दूसरे के सुख-दुख में बराबर की साझीदार होती हैं।


इस संबंध में चार्टर्ड एकाउंटेंट राहुल शर्मा कहते हैं, बडे शहरों की व्यस्तता हमें अकेलेपन के बारे में ज्यादा सोचने का मौका नहीं देती, पर असुरक्षा की भावना हमें बहुत सालती है। यहां हमारा कोई रिश्तेदार भी नहीं है। ऐसे में दोस्तों का ही सहारा होता है। इसी वजह से हम चार करीबी दोस्तों ने साथ मिलकर एक ही अपार्टमेंट  में फ्लैट्स की बुकिंग कुछ इस तरह कराई है कि हम चारों एक-दूसरे के आसपास रह सकें। अगले साल तक हम वहां शिफ्ट हो जाएंगे। हमारे परिवार के सदस्यों की भी आपस में बहुत बनती है। उम्मीद है कि वहां हमारी जिंदगी सुकून भरी होगी।


यह सच है कि संयुक्त परिवार सबसे अच्छी व्यवस्था है, पर हर समाज को कभी न कभी बदलाव के दौर से गुजरना पडता है। यह हमारे लिए कठिन परीक्षा की घडी होती है। इसी बदलते दौर में जबसंयुक्त परिवारों की जगह एकल परिवार लेने लगे तो सभी के माथे पर बल पड गए। लोगों ने सोचा कि अब हमारा समाज पतन की ओर जा रहा है..पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हर नया बदलाव अपने साथ कुछ मुश्किलें लाता है, पर उन्हीं के बीच से नए रास्ते भी निकल आते हैं। जब परिवारों का आकार छोटा हुआ तो कमियां पूरी करने के लिए हमने कई नए विकल्प भी ढूंढ लिए क्योंकि अकेले रहना हम भारतीयों की फितरत नहीं है। परिवार तो हमारे दिलों में बसा होता है। हम चाहे जहां भी रहें, वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को जीते हैं।


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Tags:joint family, separate family, family values, family values in India, family values in Indian culture, जीवनशैली, सपरिवार

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