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शिक्षा से जुड़े तक़रीबन सभी लोगों का मानना है कि सीबीएसई के ताज़ा परिणामों ने बहस की गुंजाइश पैदा की है. इस बहस और मंथन से देश की शिक्षा व्यवस्था पर खड़े हो रहे सवालों का जवाब मिल सकता है. क्योंकि इनसे सीधे बच्चों का भविष्य जुड़ा है.
ऊंचे नंबरों का योग्यता से कोई लेना-देना नहीं है क्योंकि नंबर तो किसी भी तरह हासिल किए जा सकते हैं. ग़रीब तबके के बच्चे कोचिंग नहीं ले सकते तो वो पहले ही फ़िल्टर हो जाते हैं’
सभी कॉलेज इन मार्क्स पर ग़ौर नहीं करते. न सभी इंजीनियरिंग कॉलेज या प्रोफ़ेशनल कॉलेजों के लिए इनका महत्व है. भारत से बाहर की यूनिवर्सिटीज़ और कॉलेजों में भी इन नंबरों को अब उतना महत्व नहीं दिया जाता’
सवाल ये है कि फिर सीबीएसई के इम्तिहानों को लेकर इतनी मारामारी क्यों है? और ज़्यादा से ज़्यादा नंबर पाने की होड़ क्यों?
कॉलेज कट ऑफ क्यों बढ़ाते जाते हैं. उन्हें सोचना चाहिए कि हम क्या कर रहे हैं. उच्च शिक्षा संस्थानों को इस बारे में सोचना चाहिए. अगर वो बदलाव करेंगे तो इसमें बदलाव आएगा फिर चाहे 80 फ़ीसदी मिलें या 90 फ़ीसदी’
क्या वाकई 95 और 98 फ़ीसदी की होड़ करियर में फ़ायदेमंद साबित होती है.
एचआर और प्लेसमेंट एजेंसियों ने इस होड़ को बेमानी करार दिया.
हर आदमी में एप्टीट्यूड, एटीट्यूड, उत्सुकता, रुचि और काम करने की जद्दोजहद अलग होती है. ज़रूरी नहीं कि 90 फ़ीसदी वालों में ही ये ज़्यादा हो. बल्कि देखा गया है कि 70-75 फ़ीसदी वालों में ये चीज़ें ज़्यादा होती हैं. उन्हें लगता है कि वो कहीं कुछ मिस कर गए हैं. उनमें ऊर्जा बची होती है कि कुछ करके दिखाना है.’
वैज्ञानिक और शिक्षाविद प्रोफ़ेसर यशपाल ने भी इसकी पुष्टि की. उनका कहना है कि ज़्यादा नंबर पाने की जद्दोजहद और तनाव रचनात्मकता की हत्या कर देती है.
प्रोफ़ेसर यशपाल के मुताबिक मौजूदा शिक्षा पद्धति बच्चों को एक ही डिसिप्लिन में क़ैद करके रख देती है लेकिन जो लोग अलग-अलग क्षेत्रों में घूमकर, थोड़ा कम नंबर पाकर किसी मुकाम तक पहुंचते हैं, वो बेहतर साबित होते हैं.
प्रोफ़ेसर यशपाल ने कहा ‘अगर आप वास्तव में देखें तो जिन्होंने पिछले 50 साल में देश पर असर डाला होगा, वो आईआईटी में पहले दर्जे पर आए लोग नहीं होंगे या बहुत कम होंगे. ज़्यादातर उनमें औसत नंबर पाने वाले होंगे.’
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