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” नो किडस -डबल इनकम का बढ़ता चलन”

sangeeta singh bhavna
sangeeta singh bhavna
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हमारे भारतीय समाज में कुछ चीजें इस तरह से समाहित हैं जिसके बिना हमारी संस्कृति अधूरी है ,जैसे एक स्त्री का माँ बनना उतना ही सुखद सत्य है जितना इस धरती पर मानव जाती का होना | पर आज की आधुनिक जीवनशैली में ऐसे अनगिनत कपल्स हैं जो पश्चिमी देशों का अनुकरण करने के चक्कर में एक बहुत बड़े सुख ‘मातृत्व सुख’ से वंचित रह जाते हैं | पैसा कमाने की अंधाधुंध होड़ और अपने फिगर को लेकर अत्यधिक चिंतित यह दोनों ऐसी लाइलाज बीमारियाँ इस कदर आज हमारे दिलो-दिमाग पर हावी है कि हम अपनी सबसे कीमती शाश्वत सुख को ही ताक पर रख दिए हैं | यह चलन उन घरों में ज्यादा देखने को मिलता है जहां पति-पत्नी दोनों नौकरी करते हैं और अपने करियर को लेकर वो इस कदर जागरूक रहते हैं कि वह कोई भी सम्झौता करने को कतई तैयार नहीं हैं | अगर कभी भूल से भी घर के बड़े-बुजुर्ग उन्हें ‘मातृत्व सुख’ का बोध कराते भी हैं तो उनका बड़ा ही सधा सा दो टूक जवाब होता है……ये उनकी अपनी मर्जी और आपसी समझौते से लिया गया फैसला है ,और इस निर्णय से उन्हें कोई परेशानी नहीं है | कभी-कभी तो यह भी देखने को मिलता है कि ज्यादा भौतिक सुख-सुविधाओं के चक्कर में, वे अपने इस नैसर्गिक सुख को इस कदर भुला देते हैं कि अगर कभी उन्हें बच्चों की कमी खलती भी है तब तक बहुत देर हो चुका होता है,,क्योंकि एक निश्चित अवधि तक ही हम मातृत्व सुख का आनंद ले सकते हैं | एक उम्र बीतने के बाद आप चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते | स्त्री माँ बनकर ही पूर्णता का एहसास करती है , पर आज की हाई-प्रोफाइल जीवनशैली और बेरोक-टोक स्वतंत्र विचरन की अभिलाषा हमारे मन-मस्तिष्क पर इस कदर जुनूनी रूप से छा गया है कि हमें यह बोध ही नहीं रहता कि हम क्या गलत और क्या सही कर रहे हैं | हमारे भारतीय सभ्यता में पहले स्त्री को पर्दे में रखना,उसकी आजादी का कोई समुचित ख्याल नहीं करना , तथा पारिवारिक पृष्ठभूमि का संकुचित होना भी इसका एक कारण हो सकता है क्योंकि जब आप पिंजरे से निकलकर खुली हवा में निकलेंगे तो वो सारी सीमाएं तोड़ देंगे जिनकी वजह से आपके अन्तर्मन में कोई कुंठा ने जन्म लिया था | पहले यह भी देखा जाता था कि एक स्त्री के कई बच्चे होते थे नतीजतन वह खुद पर समय नहीं दे पाती थी और बच्चों को संवारते-दुलारते ही उसकी जीवन का एक चक्र समाप्त हो जाता था ,कभी-कभी तो ज्यादा बच्चे पैदा करने की वजह से वह कई बीमारियों से घिर जाती थी और उसकी मौत तक हो जाती थी | वहीं आज स्त्री ने अपना मुकाम बनाया ,उसने अपनी आजादी को पहचाना ,पुरुष के समानांतर करियर बनाया ,तो वह अपनी उन्मुक्तता को कसकर जकड़ लेना चाहती है ,ताकि फिर से उसकी स्वतंत्र्ता में कोई बिध्न न पड़े | फिर चाहे वह उनकी संतान ही क्यों न हो ,,,उनकी नजर में संतान सुख कोई मायने नहीं रखता ,वह अपनी कामयाबी और सफलता से कोई समझौता नहीं करना चाहती क्योंकि बच्चों की परवरिश और जिम्मेदारियों के चक्कर में वह अपने सुनहरे सपने को टूटने नहीं देना चाहती है और पति भी न चाहते हुये भी उसके समर्थन में साथ देता है | पर मेरी समझ से ‘नो किडस -डबल इनकम’ का उनका यह फैसला गलत है क्योंकि पैसा और कामयाबी तो कभी भी कमाया जा सकता है पर जैसे -जैसे समय बीतता जाता है आप बच्चे पैदा करने के सुख से दूर होते जाते हैं और जबतक आप अपने जीवन में बच्चों के महत्व को समझते हैं तबतक बहुत देर हो चुका होता है | एक समय ऐसा आता है कि आपको ये पैसा,ये कामयाबी निरर्थक लगने लगती है और एकाकीपन आपके जीवन में पूरी तरह से अपने पैर फैला चुका होता है,तब आपके पास सिवा पछतावे के कुछ भी नहीं बचता | आखिर इतने जत्न ,इतने मशक्कत से आपने यह कामयाबी,यह रुतबा ,यह दौलत बनाया पर उसका उपभोग करनेवाला ही कोई नहीं है तो ऐसी कामयाबी किस काम की …..???

संगीता सिंह ‘भावना’
सह-संपादिका–त्रैमासिक पत्रिका
करुणावती साहित्य धारा
वाराणसी

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