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सवालों के घेरे में वापसी

Jagran Juggernaut
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पूर्व विदेश मंत्री और वरिष्ठ राजनेता जसवंत सिंह को जिस शर्मनाक तरीके से भाजपा से निष्कासित किया गया था उसी शानदार तरीके से उनकी पार्टी में वापसी हो गई। उन्हें सिर्फ इसलिए पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था, क्योंकि उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना पर एक पुस्तक लिखी थी, जिसमें देश के विभाजन के लिए जिन्ना से अधिक नेहरू और सरदार पटेल की भूमिका पर सवाल खडे़ किए गए थे। इन सवालों का विश्लेषण किए बगैर भाजपा ने उन्हें निष्कासित कर दिया था। जसवंत सिंह को निष्कासित करते समय उन्हें सफाई का कोई मौका भी नहीं दिया गया था। भाजपा को यह आपत्ति थी कि उन्होंने सरदार पटेल को भी विभाजन के लिए दोषी कैसे करार दिया? यह कोई ऐसा मामला नहीं था जिस पर कोई बीच का रास्ता न निकाला जा सकता हो, लेकिन उस समय भाजपा के अनेक नेता जसवंत सिंह के खिलाफ एक तरह से तलवार लेकर खड़े हो गए थे।

जसवंत सिंह ने भाजपा से निष्कासित होने के बाद झुकने के बजाय पार्टी से लोहा लेने का इरादा जाहिर किया। वह न केवल पुस्तक में व्यक्त अपने विचारों को ले कर अडिग रहे, बल्कि अपनी विवादास्पद पुस्तक के प्रचार के लिए पाकिस्तान भी गए। वहां भी उन्होंने जिन्ना की तारीफ में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने केवल इतना किया कि लोक लेखा समिति के अध्यक्ष पद को छोड़ दिया। अब अचानक दस माह बाद भाजपा ने सब कुछ भुलाकर उन्हें पार्टी में वापस ले लिया। भाजपा ने उन सवालों का जवाब देने से इनकार कर दिया जो जसवंत सिंह की वापसी को लेकर उठाए जा रहे हैं। कोई राष्ट्रीय दल अपने वरिष्ठ नेता को अतीत की एक महत्वपूर्ण घटना के विश्लेषण के आधार पर निष्कासित कर दे और कुछ समय बाद बिना कोई स्पष्टीकरण दिए उसे वापस ले ले और फिर भी यह अपेक्षा करे कि इसे लेकर सवाल न खड़े किए जाएं तो इसे आश्चर्यजनक ही कहा जाएगा।

पार्टी में अपनी वापसी के अवसर पर जसवंत सिंह ने बार-बार यही बात कही कि लालकृष्ण आडवाणी से लेकर नितिन गडकरी तक उनकी वापसी के लिए आतुर थे। भाजपा की ओर से किसी भी नेता ने यह स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं समझी कि वे कौन सी परिस्थितियां थीं जिनके चलते जसवंत सिंह को निष्कासित किया गया और किन कारणों से उन्हें पार्टी में फिर से शामिल किया गया। नितिन गडकरी का यह मानना है कि जसवंत सिंह की पार्टी में वापसी से भाजपा को विदेश, अर्थ और सुरक्षा मामलों में उनकी विशेषज्ञता का लाभ मिलेगा। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि जसवंत सिंह इन तीनों मामलों के जानकार हैं, लेकिन यह मानना कठिन है कि भाजपा जैसे बड़े दल के पास इन महत्वपूर्ण विषयों के जानकार नहीं थे अथवा उसके पास जसवंत सिंह के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। स्पष्ट है कि जसवंत सिंह की वापसी केवल इसलिए नहीं हुई कि वह कुछ खास मामलों में विशेष अनुभव रखते थे। ऐसा लगता है कि भाजपा नेताओं ने यह महसूस किया कि जसवंत सिंह का निष्कासन एक भारी भूल थी और इसी भूल को सुधारने के लिए उन्हें बिना शर्त पार्टी में वापस ले लिया। सच्चाई जो भी हो, यह एक तथ्य है कि जसवंत सिंह का भाजपा से रिश्ता दो-चार साल का नहीं, बल्कि दशकों से था। वह अटल विहारी वाजपेयी के भी निकट थे और लालकृष्ण आडवाणी के भी। एक समय उन्हें भाजपा के हनुमान की संज्ञा दी गई थी। माना जाता है कि पार्टी में उनकी वापसी लालकृष्ण आडवाणी की पहल पर हुई। भाजपा भले ही उनकी वापसी को लेकर उभरे सवालों का जवाब न दे, लेकिन पार्टी कार्यकर्ता तो यह जानना ही चाहेंगे कि उनका निष्कासन और वापसी किस आधार पर हुई? क्या भाजपा के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को इस सवाल का जवाब दे।

जिस समय जसवंत सिंह को निष्कासित किया गया था उस समय भाजपा लोकसभा चुनाव के पराजय के सदमे में थी। चुनावी हार के लिए भाजपा नेता तरह-तरह के कारण गिनाने के साथ पार्टी के कुछ नेताओं को कठघरे में खड़ा कर रहे थे। इसके लिए चिट्ठियां भी लिखी जा रही थीं, जो रह-रह कर सार्वजनिक भी हो रही थीं। एक ऐसी ही चिट्ठी जसवंत सिंह ने भी लिखी थी, जिसमें अनेक ऐसे सवाल थे जो भाजपा नेतृत्व को असहज करने वाले थे। ऐसे ही समय भाजपा ने शिमला में चिंतन बैठक का आयोजन इस उद्देश्य से किया ताकि पराजय के कारणों पर चर्चा की जा सके, लेकिन यह चिंतन बैठक जसवंत सिंह के निष्कासन पर ही अधिक केंद्रित रही। उनके निष्कासन के बाद पार्टी में कलह और बढ़ गई। इस सबके बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने एक तरह से खुद मोर्चा संभाला और भाजपा में नेतृत्व परिवर्तन की खुली घोषणा कर दी। चूंकि भाजपा को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक इकाई के रूप में देखा जाता है और यह दल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से ही प्रेरणा पाता है इसलिए नेतृत्व परिवर्तन के मामले में संघ की कुछ न कुछ भूमिका होना तय था, लेकिन यह संभवत: पहली बार हुआ कि संघ ने अपनी इच्छा से भाजपा के नए अध्यक्ष का चयन किया। संघ ने नितिन गडकरी को इस आधार पर पार्टी अध्यक्ष के रूप में स्थापित किया कि इससे युवा नेतृत्व को आगे आने का अवसर मिलेगा। युवा नेतृत्व के बजाय जसवंत सिंह की बिना शर्त पार्टी में वापसी से भाजपा कार्यकर्ताओं का असमंजस और बढ़ना स्वाभाविक है। ध्यान रहे कि इससे पहले बुजुर्ग माने जाने वाले सीपी ठाकुर को बिहार भाजपा का अध्यक्ष बनाया गया और राम जेठमलानी को राज्यसभा में लाया गया।

इस पर आश्चर्य नहीं कि जसवंत सिंह की वापसी पर कांग्रेस समेत अन्य राजनीतिक दल भाजपा की चुटकी ले रहे हैं और यह सवाल पूछ रहे हैं कि उन्हें निष्कासित क्यों किया गया था और अब वापस लेने का क्या कारण है? एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि क्या भाजपा जसवंत सिंह के उन विचारों से सहमत है जो उन्होंने देश के विभाजन के संदर्भ में प्रमुख नेताओं के बारे में व्यक्त किए थे? यदि भाजपा ने जसवंत सिंह के मामले में अपनी भूल का अहसास कर लिया है तो फिर उसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार क्यों नहीं कर रही? सवाल यह भी है कि इस संदर्भ में खुद जसवंत सिंह अपनी ओर से कोई स्पष्टीकरण क्यों नहीं जारी कर रहे? यह कहने का कोई मतलब नहीं कि बीती बातें भुला दी गई हैं।

जसवंत सिंह की वापसी भाजपा में वैचारिक बदलाव का संकेत कर रही है, लेकिन यह स्पष्ट होना शेष है कि इस बदलाव की प्रकृति क्या है? जसवंत सिंह की वापसी को लेकर भाजपा जिस तरह मौन धारण किए हुए है उससे तो ऐसा प्रतीत होता है कि वह यह निर्णय नहीं कर पा रही है कि उसे अपनी भूल स्वीकार करते हुए आम जनता के समक्ष क्या कहने की आवश्यकता है? जसवंत सिंह की वापसी से भाजपा को लाभ मिल सकता है, लेकिन आखिर उस असमंजस का क्या होगा जो उनकी वापसी को लेकर पार्टी कार्यकर्ताओं और समर्थकों के मन में उठ खड़ा हुआ है।


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