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दिन अभी बसे है यादो मे ,
बचपन ख्वाबो मे जिँदा है !
जुल्म सितम तुझपे करके ,
ऐ कुदरत हम शमिँन्दा है !!
जल थल नभ पाताल स्रष्टि
चहूँ ओर आज ये चर्चा है ,
धुआँ धूल गर्दो गुबार
नित नूतन ही दिनचर्या है !
पल मे परलय हो जाये न
करते कैसे नादानी है !
कण कण मे कुदरत तेरे जो
विषमय करने की ठानी है !!
तू तेरा मे मै मेरा मे जो
करते एक दूजे की निन्दा है
जुल्म सितम तुझपे करके ,
ऐ कुदरत हम शर्मिन्दा है !!
भौतिकता ओढे बना मूक बधिर
छल पीढी से करने वाला है
मानव मानवता का दुश्मन
किसे कहे जगत रखवाला है
क्षिति जल पावक जो गगन मिला
उस पर तो हम इतराते थे !
पर रुप कुरुप हुआ कैसे ,
ये सोच के अब घबड़ाते है
निज उदर अग्नि ये कैसी है
जल भस्म हुआ सब जाता है
इस शश्य स्यामला धरती को
बदरँग किये क्यू जाता है !!
ये सोच के होश न रहता है
क्यो करके कैसे जिन्दा है !
जुल्म सितम तुझपे करके
ऐ कुदरत हम शर्मिन्दा है !
दिन अभी बसे है यादो मे
बचपन ख्वाबो मे जिँदा है !
जुल्म सितम तुझपे करके
ऐ कुदरत हम शर्मिन्दा है !!
ऍ कुदरत हम शर्मिन्दा है !!
ऍ कुदरत हम शर्मिन्दा है !!!
संजय कुमार तिवारी
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