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नोटबंदी : सवाल जनता के, जवाब जनता के

सत्यानाशी
सत्यानाशी
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डिस्क्लेमर : यह मौलिक रचना नहीं है. किसी भी प्रकार की मौलिकता पाए जाने पर भक्तगण लेखक पर कोई दावा नहीं कर सकते.

सवाल : काला धन किसके पास है?

जवाब : धन सफ़ेद हो या काला, रहेगा उसके पास ही, जो संपत्तिशाली है. हाल ही में जारी ‘फ़ोर्ब्स’ की            रिपोर्ट कहती है कि भारत में 1% धनिकों के पास देश की कुल संपदा का 53% और 10% धनिकों के पास 76% से ज्यादा है. ‘न्यू वर्ल्ड वेल्थ सर्वे’ के अनुसार, जून 2016 में हमारे देश की कुल संपत्ति 3.75 लाख अरब रूपये थी. इसका अर्थ है कि देश में रहने वाले 13 करोड़ लोगों के पास 2.85 लाख अरब रुपयों की संपत्ति है, जबकि 112 करोड़ लोगों के पास केवल 90 हजार अरब रुपयों की ही. इसका यह भी अर्थ है कि धनकुबेरों की प्रति व्यक्ति औसत संपत्ति और कंगालों की प्रति व्यक्ति औसत संपत्ति का फासला 30 गुना है. 80% जनता की औसत संपत्ति तो केवल 60000 रूपये प्रति व्यक्ति है और उसके तो जीने के ही लाले पड़े हुए हैं. इसलिए काला धन भी वही से निकलेगा, जिनके पास अकूत संपत्ति है.

सवाल : तो इन बड़े लोगों के पास कितना काला धन है?

जवाब : इतना कि अनुमान लगाना मुश्किल है ! रिज़र्व बैंक का मानना है कि हमारी कुल जीडीपी का 25% हर साल काले धन के रूप में पैदा होता है, जबकि स्वतंत्र अध्येता इसे 62% तक मानते हैं. यदि इसके बीच के आंकड़े ही लिए जाएं, तब भी हमारी अर्थव्यवस्था का 45% यानि लगभग 67 लाख करोड़ रुपयों का काला धन हर साल पैदा होता है, क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था का कुल आकार लगभग 150 लाख करोड़ रुपयों का है. अतः पिछले 15 वर्षों में 1000 लाख करोड़ रुपयों का काला धन पैदा होना माना जा सकता है. इस काले धन में हमारे कई बजट डूब जायेंगे.

सवाल : लेकिन यह काला धन पैदा कैसे होता है?

जवाब : यह वह धन है, जो कोई व्यक्ति ‘अवैध’ तरीके से कमाता है और उस पर कोई टैक्स नहीं देता. यह कई तरीकों से पैदा हो सकता है, मसलन :

  1. नोटबंदी के कारण दलाल सक्रिय हो गए. चिल्हर की किल्लत से निपटने के लिए आम जनता को अपने 500 और 1000 रूपये के नोटों को 300 या 800 रुपयों में इन दलालों को सौंपने के लिए मजबूर होना पड़ा. इससे आम जनता की गाढ़ी कमाई और बचत की लूट तो हुई ही, काला धन भी पैदा हुआ.
  2. सामान्यतः सरकारी कार्यालयों में अपना जायज काम करवाने के लिए भी सरकारी कर्मचारियों को घूस देनी पड़ती है. इसे आजकल ‘सेवा-शुल्क’ कहा जाता है. भ्रष्ट तरीके से की गई ऐसी कमाई कहीं दिखाई नहीं जाती और टैक्स नहीं दिया जाता. लेकिन काले धन के कुल परिमाण की तुलना में यह ‘नगण्य’ ही होता है.
  3. काले धन का एक बहुत बड़ा स्रोत है उद्योगों और कंपनियों द्वारा अपने बही-खातों में हेर-फेर करके कम मुनाफा दिखाना, ताकि कम टैक्स देना पड़े. सामान्यतः यह अपने उत्पादन को कम दिखाकर और मजदूरी की राशि को बढ़ा-चढ़ा दिखाकर किया जाता है.
  4. एक अन्य तरीका है अपने आयात की मात्रा और मूल्य को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना और निर्यात की मात्रा और मूल्य को कम करके दिखाना. इससे हुई काली कमाई को विदेशों में रखा जाता है. पिछले 40 सालों में इन कंपनियों द्वारा आयात-निर्यात खातों में गड़बड़ी करके 17 लाख करोड़ रुपयों का काला धन विदेशों में भेजा गया है.
  5. इस तरह कमाए गए काले धन को और ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए अर्थव्यवस्था में झोंका जाता है. इसके लिए फर्जी कंपनियां खड़ी की जाती है और ‘मारीशस रुट’ के जरिये इस धन का पुनः निवेश किया जाता है, जिस पर कोई टैक्स नहीं देना पड़ता.
  6. आयकर विभाग के अनुसार वर्ष 2013-14 में स्टॉक मार्केट का कुल टर्न-ओवर 32 लाख करोड़ रुपया था, जो 2014-15 में बढ़कर 66 लाख करोड़ रूपये हो गया. इस तरह शेयर मार्केट में एक साल में ही 30 लाख करोड़ रुपयों के निवेश का अनुमान है.
  7. आज़ादी के बाद हमारे देश में कई घोटाले हुए. इनमें से बोफोर्स घोटाला, हवाला घोटाला, ताबूत घोटाला, 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कोयला खदान आबंटन घोटाला, बेल्लारी का खनन घोटाला, व्यापम घोटाला, चावल घोटाला आदि आम जनता के जेहन में अभी भी जिंदा है. इन सभी घोटालों में काला धन पैदा हुआ.
  8. राजनैतिक पार्टियों को औद्योगिक घरानों और कार्पोरेट कंपनियों से मिलने वाला चंदा भी भ्रष्टाचार और काले धन का एक बड़ा स्रोत है. चुनावों में उम्मीदवार द्वारा खर्च की सीमा तो बांधी गई है, लेकिन राजनैतिक पार्टियों के खर्च पर कोई सीमाबंदी नहीं है. ये घराने और कंपनियां इन पूंजीवादी पार्टियों को बड़े पैमाने पर धन देती है, जो प्रायः काला धन ही होता है और बदले में अपने हितों में नीतियां बनवाने और निर्णय करवाने का काम करवाती है. आम जनता के बीच ये पार्टियां भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ कितनी ही बातें क्यों न करें, वास्तव में इनके अवैध मुनाफों की रक्षा करने का काम ही करती हैं.

सवाल : तो इन लोगों ने इतना काला धन कहां रखा है?

जवाब : यह देश में भी है और विदेशों में भी. अर्थशास्त्रियों के अनुसार, इस काले धन का केवल 10% ही देश में है, बाकी तो विदेशों में संचित है. ‘ग्लोबल फाइनेंसियल इंटीग्रिटी’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, 1947-2008 के बीच भारत से 462 अरब डॉलर (लगभग 32 लाख करोड़ रूपये) बाहर भेजे गए. बहरहाल वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा का दावा और वादा था कि इन धनकुबेरों का विदेशों में इतना काला धन जमा है कि हर भारतीय परिवार को 15-15 लाख रूपये दिए जा सकते हैं. इस प्रकार, भाजपा के अनुमानों के अनुसार ही, कम-से-कम 375-400 लाख करोड़ रूपये विदेशों में काले धन के रूप में जमा है.

सवाल : तो क्या नोटबंदी से काला धन ख़त्म होगा?

जवाब : मोदी सरकार ने 500 और 1000 के जितने नोटों को चलन से बाहर किया है, उनका कुल मूल्य 14 लाख करोड़ रूपये हैं, जबकि काला धन हमारे देश में ही लगभग 100 लाख करोड़ रूपये हैं. इससे स्पष्ट है कि हमारे देश में पूरा काला धन केवल मुद्रा के रूप में नहीं है, बल्कि संपत्ति, गहने, जमीन-जायदाद, शेयर आदि के रूप में भी संचित है. इसलिए केवल नोटबंदी से ही काला धन ख़त्म नहीं होगा.

सवाल : लेकिन कुछ तो होगा !

जवाब : हां, लेकिन अधिकतम एक लाख करोड़ रुपयों का ही. हमारे देश के अर्थशास्त्रियों के अनुसार, देश में प्रचलित कुल मुद्रा-मूल्य का केवल 5-6% ही नोटों के रूप में काला धन संचित है. हमारे देश में कुल प्रचलित मुद्रा का मूल्य लगभग 16-17 लाख करोड़ रूपये हैं. इसका अर्थ है कि यदि ईमानदारी से काम किया जाएं, तब भी केवल एक लाख करोड़ रुपयों का ही काला धन निकाला जा सकेगा.

सवाल : तो क्या मोदी सरकार की ईमानदारी पर कुछ शक है?

जवाब : हां, उनकी नीतियों और काम करने के तरीकों से शक तो पैदा होता ही है. सरकार ने इस बात का पुख्ता खंडन अभी तक नहीं किया है कि 8 नवम्बर को की गई नोटबंदी की घोषणा को पूरी तरह से गोपनीय रखा गया था. इसके आरोप लगे हैं कि 8 नवम्बर की रात 8 बजे मोदी का संबोधन ‘लाइव’ नहीं था, बल्कि ‘रिकार्डेड’ था. 8 नवम्बर को ही भाजपा ने अपने कोलकाता खाते में 500 और 1000 रूपये के करोड़ों रूपये मूल्य के नोट जमा किये थे, जिससे भाजपा इंकार नहीं कर रही. इस नोटबंदी से कुछ दिनों पहले ही बिहार में पार्टी के नाम से करोड़ों की जमीन कौड़ियों के मोल खरीदी गई, जिसमें आरोप हैं कि इन बड़े नोटों को खपाया गया. ….और जिस तरह नोटबंदी की घोषणा की गई, वह संवैधानिक भी नहीं है.

सवाल : क्यों-कैसे?

जवाब : हम एक जनतांत्रिक देश में रहते हैं, जहां सभी व्यक्ति, पदाधिकारी व संस्थाएं जनतंत्र के कायदे-कानूनों से बंधे हैं. संविधान में रिज़र्व बैंक एक स्वायत्त संस्था है, जो कि किसी प्रधानमंत्री की इच्छा या मनमर्जी से नहीं चलती. नोटबंदी का अधिकार उसका है, न कि सरकार का. इसी प्रकार, संसद सत्र आहूत किये जाने के बाद जनजीवन पर व्यापक प्रभाव डालने वाली तमाम घोषणाएं संसद के अंदर ही किये जाने की मान्य लोकतान्त्रिक परंपरा रही हैं, जिसका भी मोदी ने उल्लंघन किया. इसके साथ ही इस फिसले से मचने वाली अफरा-तफरी व इसके परिणामों-दुष्परिणामों का आंकलन कर समुचित प्रबंध किये जाने जरूरी थे.

सवाल : लेकिन यह अफरा-तफरी तो कुछ दिनों की है !

जवाब : जी नहीं, इस अफरा-तफरी से निकलने में उतना समय तो लगेगा ही, जितना अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए जरूरी नोट छापने में लगेगा. पिछले तीन सालों में हमने 500 व 1000 रूपये के औसतन 520 करोड़ नोट छापे हैं. नोटबंदी के कारण 2203 करोड़ नोट प्रचलन से बाहर हो गए. 2000 रूपये के नोटों के साथ अब हमें 1470 करोड़ नोट छापने पड़ेंगे. यदि हमारी प्रिंटिंग मशीनें बिना थके चौबीसों घंटे काम करें, तब भी इतने नोट छापने और आम जनता तक पहुंचाने में एक साल से ज्यादा लग जायेंगे. लेकिन यह भी तभी संभव है, जब विदेशी सरकारें हमारे संकट का फायदा उठाने की कोशिश न करें, क्योंकि नोटों के लिए कागज़ व स्याही हम विदेशों से ही मंगवाते हैं. यदि कागज़ व स्याही की आपूर्ति में व्यवधान पड़ा, तो नकदी का संकट और ज्यादा लंबा खींच सकता है. इसलिए यह अफरा-तफरी केवल 50 दिनों की ही नहीं है, जिसका दावा मोदी कर रहे हैं. इन नोटों को छपवाने में 25000 करोड़ रूपये लगेंगे, सो अलग. इसका भार भी आम जनता को ही सहना है.

सवाल : क्या हमारी अर्थव्यवस्था पर कोई और चोट भी पहुंचने वाली है?

जवाब : हां. ‘नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ पब्लिक फाइनेंस एंड पालिसी’, जो एक सरकारी संस्था ही है, के अनुसार हमारी अर्थव्यवस्था को मुद्रा-संकुचन का सामना करना पड़ रहा है, जिसका परिणाम होगा देश की विकास-दर का गिरना. अपना रोजगार छोड़कर लोग बैंकों में कतारों में खड़े हैं और उन्हें अपनी जमा राशि की निकासी से ही वंचित किया जा रहा है. बाज़ार में तरलता के अभाव के कारण न मजदूरों को मजदूरी मिल रही है, न उत्पादन के लिए कच्चा माल ही खरीद पा रहे हैं. ‘इंजीनियरिंग एक्सपोर्ट प्रमोशन कौंसिल’ के अनुसार इतने कम समय में ही टेक्सटाइल, ज्वेलरी, चमड़ा जैसे अनौपचारिक क्षेत्र में 4 लाख रोजगार ख़त्म हो गए हैं. 20 लाख प्लांटेशन मजदूर बेरोजगार हो गए हैं. असंगठित क्षेत्र के करोड़ों मजदूर प्रभावित हुए हैं. चूंकि आम जनता की क्रय-शक्ति गिर गई, इसका सीधा असर हमारे रोजमर्रा के कारोबारियों पर पड़ा है. ‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग द इंडियन इकॉनोमी’ के अनुसार इस नोटबंदी के कारण अगले 50 दिनों में हमारी अर्थव्यवस्था को 1.28 लाख करोड़ का नुकसान पहुंच रहा है. यदि यह संकट एक साल तक जरी रहता है, जिसकी पूरी संभावना है, तो यह नुकसान बढ़कर 9 लाख करोड़ रूपये पहुंच जाएगा. इसीलिए हमारे देश के अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि हमरे देश की जीडीपी वृद्धि-दर में 1% से ज्यादा की गिरावट आ सकती हैं. स्पष्ट है कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था चाहे-अनचाहे मंदी के दौर में प्रवेश कर रही है. अंतर्राष्ट्रीय मंदी के साथ जुड़कर यह मंदी हमारे देश के विकास के लिए बहुत घातक होगी. अतः नोटों में संचित एक लाख करोड़ रूपये के काले धन को निकालने के लिए हमारी अर्थव्यवस्था को इतनी क्षति पहुंचाने वाल फैसला ‘अक्लमंदी’ तो नहीं ही कहा जा सकता.

सवाल : लेकिन इस नोटबंदी से आतंकवादियों की फंडिंग तो बंद हो जायेगी न !

जवाब : यह भी आंशिक रूप से ही शी है, क्योंकि आतंकियों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मदद मिलती है और पूरे विश्व में आतंकी गतिविधियों को अमेरिका का संरक्षण हासिल है. आज दुनिया के जिस कोने में भी और जिस रूप में भी आतंकवादी गतिविधियां चल रही हैं, उसके लिए अमेरिकी नीतियां जिम्मेदार हैं और भारत के लिए भी यह उतना ही सही है. नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी (एनआईए) और इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टिट्यूट (आईएसआई), कोलकाता का मानना है, जिससे सरकार भी सहमत है, कि हमारे देश में हर 4000 नोटों में केवल एक नोट नकली है और इनका अधिकतम मुद्रा-मूल्य 400 करोड़ रूपये हैं, जो कि हमारी अर्थव्यवस्था के आकार और प्रचलित नोटों के मुद्रा-मूल्य की तुलना में ‘नगण्य’ है. हमारी मुद्रा व्यवस्था से इन नकली नोटों को बाहर करने की भी वर्तमान प्रणाली पर्याप्त है. अतः इस नगण्य राशि को रद्द करने के लिए नोटबंदी करना और देश की 125 करोड़ जनता के साथ देश की अर्थव्यवस्था को भी संकट में डालना ‘बचकानापन’ ही है. इसके अलावा, इन नए नोटों को भी आतंकी छाप सकते हैं. वास्तव में उन्हें ऑन-लाइन फंडिंग ही होती है. अतः नोटबंदी का आतंकियों की सेहत पर कोई ख़ास असर नहीं होने वाला. असल में उस राजनीति और उन संस्थाओं से लड़ने की जरूरत है, जो आतंकवाद पैदा करती है और उसके राजनैतिक इस्तेमाल के लिए उन्हें फंड मुहैया कराती है. लेकिन भाजपा, जो खुद ‘हिन्दू आतंकवाद’ को जन्म देती हो, उससे आतंकवाद के किसी भी रूप के खिलाफ लड़ने की आशा तो कतई नहीं की जा सकती.

सवाल : तो क्या भाजपा काले धन को ख़त्म ही नहीं करना चाहती?

जवाब : बिलकुल ! यदि वह काले धन को ख़त्म करने के प्रति जरा भी ईमानदार होती, तो उन जड़ों पर हमले करती, जिससे काला धन पैदा होता है. इसके बजाये :

  1. उसने बड़े औद्योगिक घरानों व धनाढ्यों का फरवरी में 2 लाख करोड़ रुपयों का बैंक-क़र्ज़ राईट-ऑफ कर दिया (बट्टे-खाते में डाल दिया). इसमें माल्या जैसे भगोड़े भी शामिल हैं.
  2. वह कांग्रेस की तरह ही हर साल पूंजीपतियों और कारपोरेटों को करों में 5-6 लाख करोड़ रुपयों की छूट देने की नीति जारी रखे हुए हैं.
  3. इन पूंजीपतियों और कारपोरेटों ने बैंकों का 11 लाख करोड़ रुपया हड़प लिया है, जिसे वसूलने में भाजपा सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं है. सिर्फ 57 लोग बैंक के 85000 करोड़ रूपये दबाये बैठे हैं.
  4. उसने नोटबंदी की प्रक्रिया ख़त्म होने से पहले ही 50% या 85% टैक्स देकर काले धन को सफ़ेद करने की योजना चालू कर दी.
  5. उसने ‘फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन रेगुलेशन एक्ट (एफसीआरए) में यह संशोधन कर दिया है कि राजनैतिक पार्टियां विदेशी कंपनियों से भी चंदा ले सकती है, जबकि जनप्रतिनिधित्व कानून में इसकी मनाही है. भाजपा ने वर्ष 2004-12 के दौरान ब्रिटेन स्थित वेदांता से चंदा लेकर एफसीआरए का उल्लंघन किया था. सजा से बचने के लिए उसने इस कानून में संशोधन करके तथा इसे पिछली तिथियों से लागू करके अपने बचाव का रास्ता खोज लिया.
  6. सत्ता में आने के बाद विदेशों में भेजे जाने वाले धन की प्रति व्यक्ति सीमा 75000 डॉलर से बढ़ाकर 2.5 लाख डॉलर कर दिया है.

इस प्रकार, काले धन के मामले में वह आम जनता से कह रही है जागते रहो, जबकि चोरों से कह रही है चोरी करो.

सवाल : लेकिन काले धन को ख़त्म करने के लिए तो वह कैशलेस इकॉनोमी लागू करना चाहती है?

जवाब : बिना कैश के कोई अर्थव्यवस्था नहीं चल सकती, क्योंकि कैश इकॉनोमी की जान है. अतः ‘कैशलेस इकॉनोमी’ भी ‘कैशलेस’ नहीं होती. हां, कैश और बैंकिंग प्रणाली का रूप जरूर बदल जाता है. दुनिया का एकमात्र देश स्वीडन है, जिसकी अर्थव्यवस्था का कैशलेस होने का दावा किया जाता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि अभी तक वह भी पूरी तरह कैशलेस नहीं बन पाया है और 3% नकदी की जगह बनी हुई है. शोधार्थियों का कहना है कि वर्ष 2030 से पहले वह पूरी तरह कैशलेस नहीं हो सकता. 97% कैशलेस होने के बावजूद स्वीडन के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वह भ्रष्टाचार और काले धन से मुक्त देश है. दुनिया के सबसे विकसित देश अमेरिका में भी कैशलेस इकॉनोमी नहीं है. जिस देश की 84 करोड़ जनता, सरकारी रिपोर्ट के अनुसार ही, 20 रूपये रोजाना खर्च करने की हालत में ही न हो – याने जो पहले से ही कैशलेस हो – वहां ‘कैशलेस इकॉनोमी’ की बात करना हास्यास्पद ही होगा. आज भी 5.8 करोड़ लोगों के पास आधार कार्ड नहीं है और अन्य जरूरी दस्तावेजों के अभाव में उनकी बैंकों तक पहुंच ही नहीं है. इंटरनेट का उपयोग एक बहुत छोटी आबादी तक ही सीमित है. आरबीआई के अनुसार ही, वर्ष 2015-16 में भारत में नकदीरहित लेन-देन केवल 11.3 लाख करोड़ के ही हुए हैं और मास्टरकार्ड एडवाइजर्स का आंकलन है कि कुल लेन-देन का यह मात्र 2% है. इस स्थिति में 100% कैशलेस इकॉनोमी की बात करना केवल एक ‘जुमला’ ही है. यह भी स्पष्ट है कि कैशलेस इकॉनोमी के लिए केन्द्र सरकार द्वारा विकसित ‘यूनिफाइड पेमेंट इंटरफ़ेस’ की योजना को दरकिनार करके पेटीएम जैसी कंपनियों को मुनाफा व एकाधिकार की अनुमति क्यों दी जा रही है.

सवाल : काले धन और भ्रष्टाचार पर रोक नहीं, आतंकी फंडिंग पर रोक नहीं, कैशलेस इकॉनोमी नहीं – तो फिर नोटबंदी का असली मकसद क्या है?

जवाब : यह कार्पोरेटों के हित में पूंजीवाद की आदिम संचय प्रणाली का एक व्यावहारिक रूप है. धनकुबेरों ने हमारे बैंकों को जिस प्रकार निचोड़ा है, उससे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक दिवालियेपन की कगार पर पहुंच चुके थे. इसकी चेतावनी आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम जी. रामन भी कई बार दे चुके थे. इससे बचने का केवल एक ही उपाय था कि किसी भी तरह आम जनता की बचत को बैंकों में पहुंचाया जाए, ताकि वे घाटे से उबर सके. नोटबंदी इसी का सफल प्रयास है. जनधन खातों में ही एक माह में 80000 करोड़ रुपयों से ज्यादा जमा हो गए. रिज़र्व बैंक का अंदाजा है कि 500 और 1000 रूपये के 90% से ज्यादा नोट उसके पास वापस आ जायेंगे. इसका अर्थ है कि इन नोटों के रूप में रखा गया काला धन भी सफेद हो ही गया.

सवाल : लेकिन फिर भी 10% नोट तो नहीं आ पायेंगे न ! क्या यह काला धन नहीं है?

जवाब : जी नहीं, यह विशुद्ध आम जनता द्वारा संकट के लिए बचाए गए धन का रद्दी के टुकड़ों में बदलना है. हमारे देश में 5-6 करोड़ से ज्यादा परिवारों की बैंकिंग तक पहुंच नहीं है. ये विभिन्न कारणों से लाइन में लगाकर अपने नोट बदलने में कामयाब नहीं हो पाए. ऐसे परिवार निम्नताम आय समूह में आते हैं, जिनकी अधिकतम मासिक आय 5000 रूपये हैं. एक सर्वे के अनुसार, यह समूह अपनी आय का 60% तक आपात संकट के लिए बचाकर रखता है. तो औसत बचत 3000 रूपये के हिसाब से 15-18 हजार करोड़ रूपये की गरीबों की बचत मिट्टी में मिल गई, क्योंकि रिज़र्व बैंक के गवर्नर को धारक को इसका मूल्य अदा नहीं करना पड़ा. इस नोटबंदी ने गरीबों की बचत पर ही लात नहीं मारी, बल्कि 100 से ज्यादा लोगों की भी जान ले ली. इससे समझा जा सकता है कि नोटबंदी के रूप में आदिम संचय की यह प्रक्रिया कितनी ‘अमानवीय’ है, जिसे मोदी सरकार ने आम जनता पर थोपा है.

सवाल : लेकिन फिर भी बैंक तो बच गए न?

जवाब : हां, लेकिन कब तक बचेंगे, कहा नहीं जा सकता. अब आम जनता की हजारों करोड़ रुपयों की बचत बैंकों में इकठ्ठा हो गई है. मोदी सरकार ने इसी जनता पर रोक लगा रखी है कि वे केवल सीमित मात्रा में ही अपने पैसे निकाल सकते हैं. एक बार फिर, इन पैसों को उन्हीं धनकुबेरों को सौंपा जाएगा, जो उसे डुबाने के लिए जिम्मेदार है. साफ़ है कि यदि बैंक नहीं बचेंगे, तो हमारी अर्थव्यवस्था भी नहीं बचेगी. यह वैसे ही ढह जाएगी, जैसे अमेरिका में आवास संकट के कारण हुआ था.

सवाल : इतना गड़बड़झाला है, फिर भी मोदी की लोकप्रियता क्यों बढ़ रही है?

जवाब : यह केवल मोदी एप का दावा है, सच्चाई से कोसों दूर. वह कार्पोरेट मीडिया भी मोदी का गुणगान कर रहा है, जिनके हितों की रक्षा के लिए वे जी-जान से जुटे हैं. टाइम्स ऑफ़ इंडिया के सर्वे में 56% लोगों ने नोटबंदी के खिलाफ वोट दिया है, जबकि 15% ने कहा है कि नोटबंदी के फैसले को सही तरीके से लागू नहीं किया गया है.

सवाल : तो फिर काले धन और भ्रष्टाचार पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता?

जवाब : पूंजीवादी व्यवस्था भ्रष्टाचार और काले धन की जननी है. इसलिए इस पर पूरा अंकुश तो नहीं लगाया जा सकता, लेकिन यदि निम्नलिखित कदम उठाये जाएं, तो इस पर काफी हद तक काबू जरूर पाया जा सकता है :

  1. हमारी व्यवस्था में जवाबदेही पैदा करने के लिए तत्काल लोकपाल की नियुक्ति की जाए.
  2. व्हिसल ब्लोअर्स एक्ट को मजबूत बनाकर घोटालों पर लगाम लगाई जाएं.
  3. सरकार धनकुबेरों को करों में दी जा रही छूट को वापस लें.
  4. भ्रष्टाचार निरोधक कानूनों का प्रभावी क्रियान्वयन सुनिश्चित हो.
  5. सरकार काला धन पैदा करने वाले मारीशस रुट पर लगाम लगायें.
  6. उन सभी लोगों के नाम सार्वजनिक करके प्रभावी कानूनी कार्यवाही की जाए, जो बैंकों का क़र्ज़ लेकर हड़प कर गए, या जिनके नाम पनामा पेपर्स, विकीलीक्स, सहारा-बिड़ला डायरी, स्विस बैंक आदि ने उजागर किये हैं.

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