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विश्व प्रसिद्ध श्रावणी मेला के कारण अपना अलग महत्व है। कांवर यात्रा को लेकर यहां कई लोक कथाएं प्रचलित हैं। यह इलाका अंग प्रदेश के नाम से विख्यात रहा है। यह क्षेत्र दानवीर कर्ण की राजधानी भी रही है। गंगा तट पर बसे इस शहर का अपना अलग इतिहास है। अजगबी मंदिर के पास से ही गंगा बहती है। यहां से जल भरकर बैद्यनाथ धाम में शिव भक्त जलाभिषेक करते हैं। किवदंती है कि मिथिला के राजा जनक सीता स्वयंवर के लिए यहीं से धनुष उठाकर ले गए थे। इस कारण इस स्थल का नाम अजगबीनाथ हो गया।
ऐसा कहा जाता है कि राजा भगीरथ ने अपने वंश के सात हजार पुत्रों के उद्धार के लिए कठिन तपस्या की थी। इस कारण गंगा धरती पर अवतरित होकर अविरल बहने लगी। सुल्तानगंज से ही सटे एक गांव है,जहांगीरा जहां जहान्वी मुनि तपस्या में लीन थे। गंगा की वेग के कारण उनकी तपस्या भंग हो गई। क्रोधित मुनि अंजली में लेकर गंगा को पी गए। इससे भगीरथ उदास हो गए। भगीरथ मुनि को मनाने के लिए वहीं तपस्या में बैठ गए। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगीरथ ने त्रिशूल से अपने जांघ को चीर कर गंगा को निकाल दिया। इस कारण गंगा का नाम जहान्वी भी हो गया। धार्मिक मान्यता के अनुसार जहान्वी की चर्चा चरकसंहिता में भी है। दूसरी किवदंती यह है कि राम और रावण ने कांवर यात्रा की शुरूआत की थी। सर्वप्रथम रावण के संबंध में कहा जाता है कि उसी ने कांवर यात्रा की थी,फिर राम ने सुल्तानगंज से गंगा जल लेकर बाबा बैद्यनाथ का जलाभिषेक किया। आज भी मंदिर प्रांगण में श्रीराम चौरा हैं। पंडित राहुल सांकृत्यायन ने सुल्तानगंज में छह वर्षो तक रहकर साहित्य सृजन का काम किया। इस दौरान उन्होंने विक्रमशिला विश्वविद्यालय पर शोध भी किया। शोध के दौरान पाया कि इस विश्वविद्यालय के अधीन छह महाविद्यालय थे। इनमें से एक सुल्तानगंज में भी था। यहां तंत्र विद्या की पढ़ाई होती थी। एक अन्य शोध में यह बात समाने आई है कि भगवान बौद्ध भी यहां चतुर्मासा के समय रहते थे। वे यहां बैठकर लोगों को ज्ञान भी बांटते थे। इसके अतिरिक्त यहां की एक पहाड़ी पर शिव के 108 आवतारों को रेखा चित्र के रुप में उभारा गया है। इसे आज भी देखा जा सकता है। ऐतिहासिक महत्व से भरपूर इस शहर को विकास के मामले में नजर अंदाज कर दिया गया। यहां के धरोहरों को बचाने की भी कोई कवायद नहीं की जा रही है। यदि सुख सुविधाएं बढ़ी होती तो पर्यटकों की संख्या और बढ़ती।
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