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बिहार की धरती उर्वर रही है। 10 अप्रैल 1917 को महात्मा गांधी कोलकता भाया पटना के रास्ते चंपारण पहुंचे थे। यहां नील की खेती बड़े पैमाने पर की जाती थी। गोरों का आदेश था कि हर किसानों को एक बीघा तीन कट्ठा में नील की खेती करनी है।
नील की खेती में नीलहों द्वारा पट्टा लिखवाने की बाध्यता ही सारी समस्या की जड़ थी। किसानों पर जबरन अत्याचार किया जा रहा था। इस कारण किसानों की स्थिति फटेहाल हो गई थी। किसान चाहकर भी विरोध नहीं कर पा रहे थे। उन्हें भय था कि यदि विरोध करेंगे तो हो सकता है कि अंग्रेज अधिकारी उन्हें तंग करेंगे। किसानों को इस बात का भी डर था कि उनके परिवार को यातना का शिकार होना पड़े।
इतिहास में इस बात का उल्लेख है कि अंग्रेजों ने पहली बार 1651 में बिहार में अपना वाणिज्यक केंद्र स्थापित किया था। इसके स्थापना के साथ ही अंग्रेजों ने किसानों और मजदूरों का शोषण शुरू कर दिया था। इतना ही नहीं निलहों के कहने पर चंपारण में एक विशेष अदालत का भी गठन कर दिया गया था। इस अदालत का काम था नील को लेकर दर्ज मुकदमों का सुनवाई करना। अधिकांश फैसले किसानों के खिलाफ ही दिए जाते थे। ऐसे में राजकुमार शुक्ल किसानों के लिए मसीहा बनकर समाने आए। उनके आमंत्रण पर गांधी जी चंपारण आए। यहां उन्होंने किसानों की हालत देखकर हैरानी हुई। उनके ही प्रयास से किसान गोलबंद हो कर आंदोलन में कूद पड़े। गांधी जी और उनके सहयोगियों की सक्रियता देखकर सरकारी व्यवस्था असमंजस में पड़ गई। अंग्रेज अधिकारी ने चंपारण इन्क्वायरी कमेटी का गठन किया । 4 अक्टूबर को सरकार को रिपोर्ट सौपी गई। 1मई 1918 को गवर्नर जनरल के हस्ताक्षर से चंपारण एग्रेरियन एक्ट के नाम से पास हुआ। इसके पास होने के बाद किसानों को मुक्ति मिल सकी। गांधी यदि चंपारण नहीं पहुंचे तो वहां के किसानों पर जुल्म होता रहता। चंपारण सत्याग्रह के बाद गांधी जी एक चर्चित व्यक्ति बन गए थे।
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