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गोपी बाबू ने अपनी लाडली बिटिया सुषमा की शादी बड़ी धूमधाम से रचाई थी। पिता ने बताया था कि ससुराल वाले बड़े खानदानी हैं। घरबार भी बड़ा है। नई दुल्हनिया बनकर आई बहू का जमकर स्वागत हुआ। ससुराल आते ही उसे खूब आशीर्वाद मिले। बहु की बड़ाई भी खूब हुई। अब वह इस नये संसार में रच बस गई पिया की प्यारी दुल्हनिया। साल बीतते गए। छह-सात साल गुजर गए। लेकिन, नन्हें बच्चे की किलकारी सुनने को सब बेचैन हो उठे। जब उम्मीद चटखने लगी तो रिश्तों की डोर भी टूटने लगे। रिश्ते की मिठास भी खत्म होने लगी। अब बाझिन का कलंक थोपा जाने लगा। पति की दूसरी शादी कराने की तैयारी भी होने लगी। शादी की चर्चा भी होने लगी। लेकिन, सुषमा की तकदीर में पति का साथ लिखा था। पति ने उसके दर्द को समझा। दोनों ने साथ-साथ डॉक्टरी परीक्षण भी कराया। इलाज चला। गर्भ भी ठहरा तो पहले की तरह सुषमा का कद्र भी बढ़ गया। तिमरदारी भी खूब होनी लगी। वंश चलने की वाले चिराग की खुशी से पूरे घर का माहौल भी बदला हुआ था। पति परदेश में नौकरी करने चला गया था। वंश के लिए दकियानुसी सोच के बीच लड़की पैदा ली। जन्मीं नन्हीं कन्या शिशु के कारण घर की खुशी मातम में बदल गई। बड़े चुपचाप तरीके से शातिराना ढंग से बच्ची को मृत हुई घोषित कर दाई के हाथों दूर-दराज के इलाके में फेंकवा दिया गया। दैव योग से बची नन्हीं जान कुत्ते और सियार के ग्रास बनने से बच गई। किसी सहृदय महिला ने उसे अनाथालय के दरवाजे तक पहुंचा दिया। बच्ची घर में होकर भी बेघर हो गई।
इस आयातित (बिन मांगे)दु:ख बच्ची के भाग्य में तो तय था, लेकिन भाग्य ने करवट ली। नि:संतान विदेशी दंपती ने इस दत्तक पुत्री के रूप में इस बच्ची को अपने सीने से लगा लिया। अपनी माटी,अपनी आंगन,अपनी मां की गोद,पुचकार से विछिन्न होकर चली आई सात समुंदर पार। इस नई मां की नई दुनियां,नए पिता सब कुछ मिलने लगा था। अब बिटिया चली सपने को छूने। बड़ी हो चली। और बड़ी होते गई उसकी सोच। अपने परिश्रम के दम पर अपना परचम लिखने को ठानी। मेहनत और जग जीत लेने के जज्बे ने सफलता के उत्कर्ष जक उसे पहुंचा दिया। अब उसके पहचान को जोड़कर गर्व महसूस करने वालों का तांता लग गया। बेटियां ऐसी ही होती है। बस उसे प्यार और सुरक्षा की घूप -छांव चाहिए।
आज का दौर बरबारी का दौर कहा जाता है, लेकिन हकीकत कोई बराबरी नहीं आ पायी है। अनाथलयों के आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि आज भी संख्या बेटियों की ही ज्यादा है। इस अनाथालय की स्थापना 1925 में की गई थी। तब तीन या चार बच्चे हुए करते थे। आज यह संख्या बढ़कर 56 हो गई है। इनमें से अधिकांश संख्या बच्चियों की है। यही हाल सहरसा के अनाथालय का है। सहरसा अनाथालय में आज भी 11 लड़कियां मौजूद हैं। ये बालिकाएं भले ही देसी मां के लिए बोझ बनी हो, लेकिन विदेशी मां इन्हें सीने से लगा रही है। सहरसा अनाथालय से चार और भागलपुर से सोलह बच्चियों को गोद लिया जा चुका है। इस फर्क को हमें समझना होगा।
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