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बाढ़ की कश्मकश में नींद कहां

sanjay
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कोसी और सिमांचल के ज्यादातर इलाके इन दिनों बाढ़ की चपेट में है। हालांकि अब धीरे-धीरे पानी कम हो रहा है, लेकिन पानी कम होने के साथ-साथ लोगों की समस्या बढ़ती ही जा रही है। वहीं सरकारी आंकड़ों के अनुसार अब तक दो सौ से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि यह आंकड़ा और बढ़ेगा। जैसे-जैसे पानी कम हो रहा है, लाश की भी संख्या बढ़ रही है। बहरहाल उफनाती नदियां, चिखते चिल्लाते लोग और चारों तरफ पानी के अलावे कुछ दिखाई दे रहा है तो वो बाढ़ पीड़ितों के सपने। आस लगाए बैठे हैं कि अब तो कोई आएगा उड़न खटोला से जो मेरी बर्बादी के मंजर को जानने के बाद दुख के इस घड़ी में सहारा बनेगा, लेकिन न त कोई आया और न ही उनलोगों का हाल जानना चाहा।
फिलवक्त बाढ़ से होने वाली लोगों की समस्या और राहत शिविर की चर्चाएं तो बहुत हुई हैं, लेकिन बाढ़ से होने वाले नुकसान और इस तरह की भयवाह मंजर फिर कभी न आए इसपर कहीं कोई चर्चाए नहीं हो रही है। दरअसल हम बाढ़ के वक्त पानी से लबलबाते तस्वीर, मरने वालों की संख्या और राहत शिविरों के अलावा कुछ नहीं जानते। तो हम एक नजर बाढ़ में बह जाने वाले लोगों के द्वारा बनाए गए झोपड़ी व मकान के बारे में जानने की कोशिश करते हैं। क्योंकि यह भी जानना जरूरी है कि गरीब के द्वारा बनाए गए घर बाढ़ के पानी में बह जाने का मतलब क्या होता है। इस संदर्भ में मिली जानकारी के अनुसार बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में ज्यादातर फूस के घर बने होते हैं। 400 वर्गफुट में दो कमरे की फूस की झोपड़ी बन जाती हैं। इसकी लागत पचास हजार के करीब आती है। इसमें दो सौ बांस की आवश्यकता होती है। जिसमें एक बांस की कीमत 80 रुपये के करीब है। कुल मिलाकर सोलह हजार की बांस और रस्सी-कील लगभग पांच हजार रुपये लगते हैं। और झोपड़ी बनाने के लिए लगभग चार मजदूर की जरूरत पड़ती है, जो दस दिनों में बनाकर तैयार कर देते हैं। अब इनमें से एक मजदूर की मजदूरी औसतन तीन सौ होता है तो कुल मिलाकर लगभग बारह हजार की मजदूरी हो गई। साथ ही मिट्टी और अन्य चीजों की आवश्यकता होती है। इन घरों में रहने वाले ज्यादतर खेतिहर मजदूर, मजदूर और गरीब किसान होते हैं। इस तरह इनके द्वारा बनाए घरों के नुकसान का अनुमान लगया जाए तो यह आंकड़ा करोड़ों पहुंच जाएगा। साथ ही इनके फसल की बर्बादी को जोड़ा जाए तो यह आंकड़ा डबल हो जाएगा, लेकिन सरकार राहत के नाम पर चूड़ा और गुर बांट कर अपना पल्ला झाड़ लेती है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि हर साल बाढ़ के पानी से करोड़ो का नुकसान होता रहा तो बिहार विकास के रास्ते पर सिर्फ अग्रसर ही रहेगा, कभी विकसीत नहीं होगा।
बहरहाल बाढ़ रोकने की दिशा में जब तक कोई ठोस पहल नहीं की जाएगी, इसी तरह हर साल बाढ़ की चपेट में गांव का गांव बह जाएगा। और हम बस नेपाल से पानी छोड़ने की बात कह कर दिल को तस्सली देंगे। 1950 के दशक में फरक्का में बराज निर्माण के समय बंगाल के इंजीनियर कपील भट्टाचार्य ने कहा था कि फरक्का के कारण मालदह, मुर्शिदाबाद और बिहार के पूर्णिया, भागलपुर, बरौनी, पटना, मुंगेर हर साल पानी में डूबेंगे। क्योंकि फरक्का बैराज से गंगा की गति धीमी हो जाएगी और पानी में बहकर आई गाद गंगा के तल में जमने लगेगी जिससे गंगा उथली होने लगेगी। जैसे-जैसे गंगा उथली होगी वैस-वैसे उसके बाढ़ के प्रभाव क्षेत्र भी बढ़ेंगे। दरअसल सरकार सिर्फ गाद को लेकर योजना बनाने की चर्चाए कर रही है, लेकिन उस दिशा में कोई पहल नहीं की जा रही है। इससे गाद की समस्या दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है। मिली जानकारी के अनुसार गंगा पहले तीस से चालीस हाथ गहरी होती थी, लेकिन अब आठ से दस हाथ ही गहरी है। क्योंकि गाद जमा हो जाने के कारण इसकी गहराई कम होने लगी। और बाढ़ के प्रभाव क्षेत्र धीरे-धीरे बढ़ने लगे। सरकार के पास न तो नीति है और नीयत। यदि दोनों रहता तो इतने लोग मरते नहीं। इससे बड़ी त्रास्‍दी कुसहा की थी,लेकिन इस डायन बाढ़ ने ज्‍यादा लोगों को लील लिया।

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