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लोकगीतों में फगुआ

sanjay
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भारत में बसंत ऋतु एक बहुत ही सुहावनी ऋतु है क्योंकि इस समय प्राकृति में एक नया भाव भर जाता है। पेड़-पौधों की डालियों पर हरियाली छा जाती है। कलियां मुस्कुराती हैं और फूल भी खिलखिला कर हंसते हुए दिखते हैं। खेतों में पौधे तथा गेहूं की बलियां झूमझूम कर खुशियों के गीत गाती हैं। ऐसे रंगीन मौसम में बसंत बयार और रंग की फुहार में जन-जन का मन एक होकर अपने आप में उल्लासित हो उठता है और उसमें वैमनस्य तथा द्वेष के लिए कोई जगह नहीं रह जाती। इस समय राजा-रंक, अमीर-गरीब, ऊंच-नीच सभी बराबर हो जाते हैं। सभी लोग बेहिचक भेदभाव से रहित होकर एक दूसरे से गले मिलते हैं।
बिहार में फाग या होली का त्योहार अत्यन्त मस्ती और धूमधाम के साथ मनाया जाता है और होली के दिन सामाजिक उत्सव मनाकर इसका अंत किया जाता है। इस दिन होली गाने वाले सीमा की समस्त बंधनों, सबंध की समस्त वर्जनाओं और समय की समस्त पाबंदियों को भुलाकर एक मन, एक चित्त और एक रूप होकर होली गाते हैं।
सुन्दर नारि पलंग चढि़ बैठे, यौवन होत मलीना हो,
चोलिया के बंधन तड़कन लागे, चूबे घाम पसीना हो……..।
वहीं दूसरे दल के लोग हास्य और मस्ती से भरा रसीले फाग-
नकभेसर कागा ले भागा, सैंया अभागा न जागा,
उडि़-उडि़ काग कदम चढि़ बैठे, यौवन केसब रस ले भागा,
हो पिया अभागा न जागा, गाकर सम्पूर्ण वातावरण को रंगीन और आनंद बना देते हैं।
होली के समय सौन्दर्य एवं प्रेम का उन्माद अपनी पराकाष्ठा पर होता है। ऐसे में नायिका अपने प्रियतम से प्यार भरी होली खेलने के लिए बेचैन और अधीर हो उठती है। इस भाव का चित्रण चंद पंक्तियों में मिलता है –
तोहरे संग आज खेलब होली
फाग फगुआ खेलब पिया संग
चैत खेलब बलजोरी। तोहरे………….।

लोकगीतों में फगुआ-दो
होली के अवसर पर रंग-अबीर की इतनी धूम रहती है कि फाग के रस-रंग में भीगी नवयौवना अर्थ भरे भाव-भाव से अपने प्रियतम के हृदय को भी कोरा नहीं छोड़ती। अस्वीकारात्मक शब्दों के माध्यम से वह इच्छित लक्ष्य की ओर प्रेरित भी कर देती है :-
टीका हे पिया भरल अबीर
मत डाल हे पिया रंग-अबीर
हम लरकोरी पिया कोमल शरीर। वह केवल कोमलांगी और सौन्दर्यवती ही नहीं नवयौवना भी है।
होली के मादक सुलीले और रसभरे गीतों में राम और कृष्ण की लीलाओ के जितने भी रूप हो सकते हैं, सबका वर्णन है। दो युगों की सांस्कृतिक गरिमा होली के अवसर पर गाये जाने वाले गीतों में आदिकाल से सुरक्षित है के अवसर पर गाए जाने वाले गीतों में आदिकाल से सुरक्षित है और काल के प्रवाह के साथ अपने विस्तार में अक्षुण्ण रहेंगी।
पिता का आज्ञा मानकर राम वनवास पर जा रहे हैं। होली के गीत में राम वन-गमन के चित्र की एक बानगी प्रस्तुत है ।
डगर चले दोनों भाई वन को डगर चले
आगे-आगे राम चलत हैं पीछे लछुमन भाई,
ताके पिछे सिया सुन्दरी, शोभा वर्णनन न जाई।
राम-रावण युद्ध में लक्ष्मण को शक्तिवाण लगती है और वे मूच्र्छित हो जाते हैं। राम विलाप करते हैं। इस भाव का एक नमूना देखें
उठि बैठो लखन मोरे भ्राता, उठि बैठो……
उस विचारि जिय जागह तात
जग में ना मिलिहें सहोदर भ्राता, उठि बैठो……
निज जननी के एक कुमारा
तासु मात के प्राण अधारा, उठि बैठो…..।
कृष्ण का जन्म देवकी के गर्भ से मथुरा में होता है तथा नंद यशोदा के घर उनका लालन-पालन होता है। लोकगीतकारों ने इस दृश्य को होली में कितनी स्वाभाविकता के साथ प्रस्तुत किया है, वह द्रष्टव्य है-
कान्हा जन्म लिये हो मथुरा जन्म लिये,
निशि भादो के राति अंधेरिया कान्हा जन्म लिये,
राजा सोवे, पहरूआ सोवे, फाटक खुलि पड़े हो,
कान्हा जनम लिये हो मथुरा जनम लिये ….।
होली के गीतों में कृष्ण के विभिन्न रूपों का दर्शन किया जा सकता है। गोपियां जल भरने जा रही है। कृष्ण उसके गागर को फोड़ देते हैं। फलत: यशोदा को उलाहना सुनना पड़ता है :-
बरजो यशोदा जी कान्हा जात रही यमुना जल भरने,
मारग में हठिलाना, मारी बंशी गागर सिर फोड़ी,
अबीर मले मुख कान्हा, नयनवां से देई-देई ताना।
फागुन के महीने का पदार्पण होते ही बच्चे से लेकर बूढ़े तक की जुवान पर भर फागुन बुढ़ऊ देवर लगे चढ़ जाती है। होली के दिन साठ वर्ष की भौजी और पचास वर्ष के बुढ़ऊ देवर भी एक दूसरे के सामने होते हैं तो वर्षों पूर्व उनका पुराना उल्लास, उमंग और यौवन लौटकर वापस आ जाता है। कितने भी घूंघट में रहने वाली बुढिय़ा क्यों न हो, जरा सा किसी मनचले बुढ़ऊ ने कहा-भौजी तो झुर्री पड़े गालों की लाली देखते ही बनती है। बुढ़ापे की इस उमंग के सामने तो जवानी का जोश भी फीका पड़ जाता है। शाम को भौजी के हाथ मीठी पुआ-पकवान खा प्रत्येक देवर अपने जन्म को सार्थक समझता है।
होली के अवसर पर हास-परिहास संबंधी जोगीरा गाये जाते हैं-
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