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पोल खोलती बारिश!

SanjayTanha
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अच्छा है कि हमारे यहाँ साल में एक बार ही मानसून आता है,यदि बार-बार आए तो कोहराम मच जाए।हम पर एक बार का ही मानसून वज्र जैसा पड़ता है।यह हमारे विकास को आईना दिखा जाता है कि विकास अभी कितना ‘पानी’ में है। विकास बारिश में पानी माँगने लगता है।विकास पानी-पानी हो जाता है।विकास पर घड़ों पानी पड़ जाता है।
बारिश विकास की पोल खोल देती है।पानी जहाँ-जहाँ खड़ा हो जाता है विकास वहाँ-वहाँ बैठ जाता है। बारिश सैंकड़ों प्रश्न पूछती है और विकास निरुत्तर खड़ा रहता है।यह है हमारे विकास का हाल!!

नदियां ख़तरे के निशान से ऊपर बहकर यह बता और जता देना चाहती हैं कि मानवजाति पर ख़तरा मंडरा रहा है।बूंदें इमारतों की बाहर की सफ़ेदी उतार कर काई की परत चढ़ा कर बता देना चाहती हैं कि-चमचमाते मकानों में रहने से कुछ नहीं होता जब तक मन और विचार चमकीले न हों।नाले उफान पर आ कर सड़कों पर हड़ताल करने लगते हैं। जो कूड़ा कर्कट सफ़ाई की लम्बे समय से बाट जोह रहा था,वह पानी का साथ पाकर ख़ुद चल देता है।बारिश प्रशासन से लेकर सुशासन तक की पोल खोल देती है।कई विभाग और मंत्रालय बगलें झाँकने लगते हैं।उनसे जवाब देते नहीं बनता है।एक दूसरे पर कीचड़ उछालने लगते हैं और उनके दाग़ मूसलाधार बारिश में भी नहीं धुल पाते बल्कि और गहरा जाते हैं।

बारिश हमारी आधुनिकता और भौतिकता को आईना दिखा देती है।कुदरत इंसान को बता देती है कि उसके अत्याधुनिक साज़ो-सामान,उसके इंतज़ामात उसके(कुदरत) आगे ऊँट के मुँह में जीरे के समान हैं। पहली बारिश में ही,सड़क और परिवहन मंत्रालय की नई नवेली सड़कें और एक्सप्रेस वे दाँत दिखाने लगते हैं।जगह जगह गड्ढे कुकरमुत्तों की तरह उग आते हैं।गड्ढे अमीबा की तरह निरन्तर बढ़ने लगते हैं, एक से दो; दो से चार…और फिर गड्ढों में सड़क खोजना गधे के सिर पर सींग खोजने के समान हो जाता है। सड़कों के मेनहोल सड़क को पाताल तक खींच ले जाने पर आमादा हो जाते हैं। मेनहोल के ढक्कन भी तैर कर कहीं चले जाते हैं।सड़कों का जहाँ भी बैठने का मन करता है,बैठ जाती हैं।सड़कों के छोटे छोटे पत्थर नाव लेकर तारकोल को ढूंढने निकल पड़ते हैं।बड़े-बड़े फ्लाईओवर अपने भार से भरभरा कर गिर पड़ते हैं।अभियंताओं और ठेकेदारों तक जाँच तो आती है,पर आँच नहीं!

निगम की नालियाँ सड़कों पर फैल कर निगम की साख को चार चाँद लगाती हैं।नगर के घरों में निगम की नालियाँ आसरा पाने को आतुर दिखती हैं।हमारी आर्थिक राजधानी से लेकर देश की राजधानी तक मानसून की एक बारिश में पंगु हो जाती हैं और बाकी शहर बैसाखियों पर आ जाते हैं। जो इमारतें घूस देकर बन खड़ी हुई थीं,वो भर-भरा कर गिरने लगती हैं,लोग दबने लगते हैं, मरने लगते हैं; मगर बारिश रहम नहीं खाती है।अपार्टमेंटों में पानी घुस जाता है।बड़े-बड़े गड्ढों में छोटे छोटे तालाब जन्म लेने लगते हैं।गाँव के गाँव,शहर के शहर और राज्य के राज्य डूबने लगते हैं।कश्मीर से लेकर केरल तक भारत कराह उठता है और बारिश चली जाती है मुस्काती हुई।

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Sanjay tanha

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