Menu
blogid : 5503 postid : 732213

“ज्ञान” पर “प्रेम” की विजय!

social issu
social issu
  • 30 Posts
  • 669 Comments

udhav1हिन्दू दर्शन विश्व का एक मात्र दर्शन है, जिसमें ईश्वर के साथ भक्त ने, पिता, पुत्र, पति, मित्र जैसे प्रेम-संबंध स्थापित किये हैं! यह “प्रेमयोग” की परकाष्ठा ही है कि अनेेक भक्तों ने ईश्वर को इन्ही रूपों में भजा और उस महान सत्ता से साक्षात्कार किया।
श्रीकृष्ण अक्रुर जी के साथ कंस के निमंत्रण पर मथुरा गए और कंस को मारकर अपने पिता वासुदेव का उद्धार किया। वे लौटकर गोकुल वापस नहीं आये, तब नन्द यशोदा, राधा व सारे गोकुल वासी बड़े दुखी थे। मथुरा में कृष्ण के एक मित्र उद्धव जी थे। जो ज्ञानमाग्री व चिंतक थे, उन्हे अपने ज्ञान पर बहुत घमंड था। कृष्ण ने उद्धव जी के घमंड को दूर करने के लिए, उनको गोपियों को समझाने व ज्ञानमार्ग का उपदेश देने के लिए गोकुल भेज दिया, ताकि उद्धव प्रेम की गूढ़ता और तन्मयता को देख सकें। उद्धव कृष्ण का संदेश लेकर गोकुल पहुंचे। उद्धव ‘कृष्ण’ की पाती ‘राधा’ को देते हैं और अपने ज्ञान मार्ग का संदेश देना आरम्भ करते हैं, त्यों ही गोपियां कहती हैं-

udhav2
हम से कहत कौन सी बातें,
सुनी ऊधो हम समझत नाहीं, फिर बूझहि है ताते।
उद्धव के साथ कृष्ण पर भी गोपियां फबतियां कसती है-
ऊधो जानो ज्ञान तिहारो
जाये कहा राजगति लीला अन्त अहीर विचारा
कंस की एक दासी ‘‘कुब्जा‘‘ थी जिसे बाद मे कृष्ण ने अपनी सेवा मे रख लिया था, गोकुल में चर्चा हो गयी कि कृष्ण ‘‘कुब्जा‘‘ पर आसक्त हो गये हैं इसलिए वे गोकुल नहीं आते, गोपियां कहती हैं-
ऊधो! जाहु बोह हरि ल्याओ सुन्दर स्याम पियारो
ब्याहो लाख, धरौ दस कुबरी, अन्तहि कान्ह हमारो।
पाठकजनों!! परिहास के साथ ‘‘ब्याहो लाख’’ प्रेम की औदार्य व उच्च दशा का वर्णन सूरदास जी ने किया है। कहावत है कि ‘‘सौत तो चून की भी बुरी होती है‘‘, परन्तु यहां गोपियां लाखों विवाह करने के बाद भी कान्हा को अपना ही मानती हैं उद्धव, अपने ज्ञान का उपदेश देने लगते हैं, गोपियां कहती है जाओ! उद्धव! अपने होश की दवा करो-
ऊधो तुम अपना जतन करो।
हित की कहत कुहित की लागौ, किन बेकाज ररौ,
जाय करो उपचार अपनो, हम जो कहत हैं जी की
कछु कहत कछु कहि डारत, धुन देखियत नहिनी की।
गोपियां उद्धव से कहती है! ये तुम्हारा दोष नहीं है, जहां से तुम आ रहे हो, वहां ‘कृष्णता’ ही छायी रहती है-
विलग जानि मानहु, उद्धौ प्यारे!
यह मथुरा कागज की कोठरि जे आवहि ते कारै।
तुम कारे, सुफलकसुत कारे, कारे मधुप भवारे।।
गोपियां ज्ञान योग की कितनी खिल्ली उड़ाती है, देखिये! वे उद्धव जी से कहती हैं ‘अपने योग को कही भूल न जाना, गांठ से बांध कर रखना, कही छूठ गया तो फिर पछताना पड़ेगा-
ऊधौ! जोग बिसरि जनि जाहु!
बंजहु गांठि, कहुं जनि छूटै, फिर पाछे पछिताहु।।
ऐसी वस्तु अनूपम मधुकर! मरम न जानै और।
ब्रजबासिन के नाहिं काम की, तुम्हरे ही है ठौर।।
यहां पर तो गोपियां ऊद्धव जी को ‘ज्ञान’ का व्यापारी ही बना देती है, ‘‘ज्ञानयोग‘‘ पर कैसी मीठी टिप्पणी गोपियों के माध्यम से ‘सूरदास जी’ ने की है-
आओ घोस बड़ो व्यापारी!
लादि गड़री यह ज्ञान जोग की ब्रज में आय उतारी
फाटक दै कर हाटक मांगत भोरी निपट सुधारी।
पाठकजनों!! यह प्रेम की परकाष्ठा ही है, जहां प्रेमी निराश होेकर, प्रिय के दर्शन का आग्रह भी छोड़ देता है और उसका प्रेम इस अविचल कामना के रूप में आ जाता है, सूरदास जी लिखते हैं-प्रिय जहां भी रहे, सुख से रहे-
जंह-जंह रहौ राज करौ तंह-तंह लेहु कोटि सिर भार।
यह असीस हम देहिं सूर सुनु न्हात खलै जनि बार।।
विरह की अग्नि में जलती गोपियां कभी हंस पड़ती  है-आप खूब आये आपने हमारी इस दुखः दशा में अपनी बेढ़ब बातों से हमें हंसा दिया-
ऊधों! भलि करी तुम आये।
ये बातें कहि कहि या दुख में ब्रज के लोग हंसाए।।
कभी गोपियां उद्धव जी को भोला भाला आदमी ठहराकर उद्धव जी से पूछती हैं‘‘अच्छा यह तो बताओ जब कृष्ण तुम्हें संदेश देकर भेज रहे थे तब कुछ मुस्कराये भी थे?
ऊधो! जहु तुम्हें हम जाने।
संच कहो तुमको अपनी सौं, बूझहि बात निदाने।
सूर स्याम जब तुम्हें पठाए तब नेकहु मुसकाने?
उद्धव के ‘निराकार’ शब्द पर गोपियां की विलक्षण उक्ति का वर्णन ‘सूरदास’ जी ने बड़ी ही सुन्दरता से किया है। गोपियां, राधा को सम्बोधित करते हुए कहती हैं, तुम्हारे निरंतर कृष्ण का ध्यान करते रहने के कारण, ही कृष्ण ‘निरूप’ हो गये हैं-
मोहन मांग्यो अपनो रूप।
या ब्रज बसत अंचे तुम बैठी, ता बिनु तहां निरूप।
‘राधा‘ ऐसे ही बांकपन से ‘कृष्ण‘ के रूप का ध्यान ह्दय से न निकलने का कारण बताती हैं, कि कृष्ण की ‘त्रिभंगी‘ मूर्ति एक बार ध्यान में आने के बाद ह्दय से नहीं निकलती-
उर में माखन चोर गड़े।
अब निकहु निकसत नहिं, ऊधो! तिरछे है जो अड़े।।
ऊद्धव जी से ज्ञानयोग के बारे में सुनकर, उसे (ज्ञानमार्ग) अपने सीधे-सादे ‘प्रेम मार्ग’ की अपेक्षा दुर्गम और दुर्बोध जानकर गोपियां कहती हैं-
कहे को रोकत मारग सूधो?
सुनहु मधुप निर्गुन-कंटक तें राजपंथ क्यों रूधो?
उद्धव जी के बह्म निरूपण का कुछ आशय गोपियों की समझ में नहीं आता। वे पूछती हैं कि वह बिना रूप-रेखावाला ‘ईश्वर‘ तुम्हें कभी प्रत्यक्ष भी होता है, तुम्हे आकर्षित या मोहित भी करता है-
रेख न रूप, बरन जाके नहिं ताको हमैं बतावत
अपनी कहो दरस वैसे को तुम कबहुं हौ पावत।
स्त्रियों के स्वभाविक हावभाव भरे लक्षणों का वर्णन सूरदास जी ने बड़ी सुन्दरता से किया है- कसम है, हम ठीक-ठीक पूछती हैं, हंसी नहीं, कि तुम्हारा निर्गुण किस देश में रहता है-
निर्गुन कौन देस को वासी?
मधुकर! हंसि समझाय, सौंह दे बूझहि सांच न हांसी।
भक्ति और ज्ञान के सम्बन्ध में ‘सूरदास जी’ का मत था, कि वे ‘ज्ञान’ के विरोधी नहीं थे, बल्कि ‘भक्ति विरोधी’ ‘ज्ञान’ के विरोधी थे, गोपियों से वे उद्धव की बातों के अन्तिम सार के रूप में यही बात कहलवाते हैं-
बार-बार से बचन निवारो।
भक्ति विरोधी ज्ञान तिहारो।।

“ऊधव जी” गोपियों की बात सुनकर गहरे ध्यान में चले़ गये, कहा जाता है कि वे कई दिनों तक गोकुल की मिट्टी में समाधिस्थ रहे, अन्ततः उन्होेंने “ज्ञान” पर “प्रेम” की अधिनता स्वीकार कर ली। इसका विस्तृत विवरण “सूरदास जी” ने “भ्रमर गीत” में किया है।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh