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“मौन” सर्वोत्तम भाषण है!

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“मौन” रहने से मेरा तात्पर्य ‘मितभाषी’ होने से है, मौन रहने से जहां व्यक्ति की ‘ऊर्जा’ संरक्षित रहती है, वही उसे मानसिक शान्ति का भी अनुभव होता है। मौन रहकर ही हम किसी ‘विषय’ का गहरार्इ से ‘चिंतन’ कर सकते हैं और विषय की ‘तह’ तक पहुंच सकते हैं। जितने भी उच्चस्तर के संत-महात्मा-वैज्ञानिक तथा लेखक-कवि-साहित्यकार हुए हैं, उनके उच्च स्तर के ‘कृत्य’ व ‘कृति’ के पीछे मौन की ही साधना रही है। इसलिए ‘मौन रहो और अपनी सुरक्षा करो, मौन तुम्हारे साथ कभी विश्वासघात नहीं करेगा।1
“प्रगल्भ” होना एक अवगुण ही नहीं मूर्खता का भी लक्षण है। यह एक रोग भी है। ”रक्तचाप” पर शोध करने वाले डाक्टरों ने लिखा है-“बोलते समय हम अपने शरीरांगों में होने वाले परिवर्तनों से अनभिज्ञ रहते हैं, बोलने में हम केवल शब्दों का ही प्रयोग नहीं करते, अपितु शरीर के प्रत्येक अंग पर जोर डालते हैं जिससे ऊर्जा का क्षरण होता है। यह भी स्मरणीय है कि ‘सुखद वार्तालाप’ से भी हमारा रक्तचाप बढ़ता है, जबकि ‘बोलने’ और ‘सुनने’ की प्रक्रिया हमारे रक्तचाप को संतुलित रखती है। “कबीरदास” जी ने ठीक ही कहा है-
अति का भला न बोलना, अति की भलि न चुप
अति का भला न बरसना, अति की भलि न धूप
“गांधी जी” ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-“कम बोलने से मुझे दो फायदे हुये, एक- मैं जो भी बोला सोच-समझ कर बोला, दूसरा- कम बोलने से मेरा अज्ञान छुपा रहा, जो दूसरे के सामने प्रकट नहीं हो पाया।
एक अरबी कहावत है-“मौन के वृक्ष पर शांति के फल लगते हैं।” महात्मा “चाणक्य” ने भी कहा है-“मौने च कलहो नास्ति” अर्थात मौन रहने से (कलह) झगड़ा नहीं होता ।
व्यवहारिक जीवन का भी यही नियम है कि “वाकयुद्ध” में अन्तत: वही विजयी होता है जो कम बोलता है। यदि कोर्इ मेरी बात में विरोधाभाष देखे तो इस लोकोक्ति को ह्रदयगम कर ले-“एक चुप सौ को हराये”
“प्रगल्भ” न बने सोच-समझ कर बोले, जो बिना बात सुने बीच में कुछ भी बोल देते हैं, उन्हें बाद में पछताना पड़ता है, कहा भी गया है-
जीभरिया कह बावरी कहि गर्इ सरग पताल।
आपुनि कही भीतर भर्इ जूती खात कपार।।

इसलिए खामोश रहो या ऐसी बात करो जो खामोशी से बेहतर हों।2
“मौन साधना” में लीन जब “लेखक” किसी ‘विषय-विशेष’ पर गहरार्इ से चिंतन करता हैं तो उसका ‘सुपरचेतन मन’ सुदूर अंतरिक्ष में मंडरा रही उस ‘विषय-विशेष’ से संबंधित घटनाओं को अपनी ‘चुम्बकीय शक्ति’ से आकृषित करके उनसे तदात्म स्थापित कर लेता है, जिससे नर्इ-नर्इ बातें उस ‘विषय-विशेष’ के संबंध में उसके ‘मानस-पटल’ पर अंकित होती चली जाती है और “लेखक” एक “उत्कृष्ट-रचना” को जन्म देने की स्थिति में आ जाता है।
ध्यान की अनन्त गहराईयों में डूबा हुआ “लेखक” कभी-कभी “भविष्य” से भी तदात्म स्थापित कर लेता है। पाठकजनों! “टाइटेनिेक” नामक जहाज के बनने और डूबने से लेकर, सारे घटनाक्रम की तिथि से लगभग 50 वर्ष पूर्व एक “टाइटेनिक” नाम का उपन्यास लिखा गया था। जिसमें जहाज के नाम से लेकर उसमें सवार यात्रियों की संख्या, डूबने के कारण आदि का सटीक विवरण था। परन्तु ये उपन्यास तब सुर्खियों में आया जब “टाइटेनिक” बन और बिगड़ कर इतिहास बन चुका था। लेखक के “भविष्य-दृष्टा” तक बन जाने का ये उपन्यास एक सर्वोत्तम उदाहरण है। ऐसे अनेक उदाहरण “साहित्यिक-इतिहास” में भरे पड़े हैं, लेकिन ये “भविष्य कथनात्मक कृतियां” तब प्रसिद्धि पाती हैं।  जब वह “घटना-विशेष” घटित हो जाती है। जिसका वर्णन, लेखक अपनी ‘कृति’ में करता है।

अंत में,वामिक’ जौनपुरी की चार लाइनों के साथ अपनी बात समाप्त करता हूं-
मेरी  खामोशी  से  बरहम न हो ऐ  दोस्त,       बिगड़ नहीं
चलने वाले ही तो दम लेते हैं चलने के लिए
पी लिया करते हैं जीने की तमन्ना में  कभी
डगमगाना  भी जरूरी  है संभलने के लिए।


1जान ब्वायल

2पिथागोरस

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