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**दलित चिंतन का विष-वमन**

संजीव शुक्ल ‘अतुल’
संजीव शुक्ल ‘अतुल’
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इधर कई दशकों से दलित चेतना के नाम पर जो कुछ भी लिखा जा रहा है वह सिर्फ एकपक्षीय आलोचना (सवर्णवाद का विरोध) में सिमट कर रह गया है। यह चिंता का विषय है। दलित चिंतन और दलित राजनीति में कैद अंबेडकर को ठीक उसी तरह से इस्तेमाल किया जा रहा है,जैसे कांग्रेस वालों ने गांधीजी को जहाँ चाहा और जैसा चाहा इस्तेमाल किया। अंबेडकर का सवर्ण व्यवस्था के प्रति विरोध होते हुए भी पूर्वाग्रहों से मुक्त होना आज के पूर्वाग्रह से ग्रस्त दलित राजनीति को आत्ममंथन के लिए कहता है। अम्बेडकर सामाजिक एकता के पक्षधर थे जबकि आज उनके ही अनुयायी उनके चिंतन को गलत दिशा में मोड़कर बड़ी ही निष्ठुरता के साथ इसे आगे बढ़ा रहे हैं,एक सोंची-समझी साजिश के तहत ।
आज दलित चिंतकों की रूचि दलित समाज के बारे में कम, अपने हितसाधन और सवर्णों के विरोध में ज्यादा है। बसपा द्वारा पैसे लेकरके टिकट बाटें जाने की चर्चा प्रायः सुनने में आती है। इस पार्टी द्वारा व्यक्ति पूजा के अलावा ऐसा कौन सा काम किया गया जो दलित समाज के उत्थान से सम्बंधित हो। दलित चिंतन समन्वय की भावभूमि पर नही बल्कि विग्रह की भावभूमि पर टिका हुआ है। कहना आवश्यक नही कि इन दलित पैरोकारों के लिए सवर्णवाद का विरोध सत्ता प्राप्ति के शार्टकट रास्ते को हथियाने की रणनीति के रूप में हैं।
वोटबैंक की भूमिका निभाने वाली जातीय अस्मिता को सवर्णवाद के खिलाफ दुष्प्रचार करके ही मजबूत किया जा सकता है। यद्यपि आज के 5 0 साल पहले जातीय वयवस्था में शोषण के तत्त्व मौजूद थे फिर, भी सामाजिक सदभाव इस कदर नहीं खराब था जितना कि आज है। आखिर क्यों ? आज तो शोषण नहीं है। अगर कोई शोषित है तो वह है सिर्फ गरीब। यहाँ मेरा अभिप्राय शोषण वयवस्था को उचित ठहराना नहीं है ,बल्कि मानवीय संबंधों को बेहतर बनाने के सन्दर्भ में आवश्यक संयोजन के तत्वों की जानबूझकर की गयी उपेछा की तरफ इशारा करना भर है। जातीय अस्मिता को राष्ट्रीय अस्मिता से ऊपर रखकर हम दलित चिंतन को किस तरफ धकेले जा रहें है।
आज के दलित आग्रहों की राजनीति का स्वरूप कुछ कुछ महाभारतकालीन है। यदि एकलव्य और कर्ण राजपुत्र न होने के कारण द्रोणाचार्य का शिष्यत्व नही ग्रहण कर पाये तो 20 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देश की 50वीं वर्षगांठ के समय टी.एन.शेषन उच्च जाति में जन्म लेने की वजह से राष्ट्रपति चुनाव में गहरी मात खा गए थे।
आज वोट -बैंक की राजनीत में दलित समाज में जन्में महापुरुषों को उनकी योग्यता तथा उनकी प्रशासनिक कार्यकुशलता से कहीं ज्यादा उनके दलित होने को महत्व दिया जाता है। उनकी सारी योग्यताओ व विशिष्टताओ को महज संयोग मानने और दलित होने को एक स्वाभाविक व बड़े आधार के रूप में विज्ञापित करने के पीछे इन दलित आग्रहकर्ताओं की जो भी नियति रही हो लेकिन इतना निश्चित है कि यह उनके दलित चिंतन का सबसे नकारात्मक व घटिया पहलू है।
सवर्णों के विरोध को ही दलित चेतना की जाग्रति मानने वालों को अब गाँधी और लोहिया भी दलित विरोधी नजर आने लगे। आज गाँधी को शैतान की औलाद कहना आसान है जबकि आंबेडकर के प्रति की गयी तटस्थ टिप्पणी भी दलित विरोध की द्योतिका हो जाती है। गाँधी का दलित प्रेम व बिनोबा भावे का भूदान आन्दोलन दलित चिंतन की विषय -वस्तु नहीं हो सकता। यह दलित चिंतन की दलित मानसिकता है। गाँधी जी का दलित बस्तियों में जाकर सफाई करना इन्हें सिर्फ नाटक लगता होगा। क्या गाँधी ने यह सब अम्बेडकर को खुश करने के लिए किया था या वोट बैंक के लिए ? जिसे निराला और प्रेमचंद जैसे क्रान्तिपुरुषों को अपनाने से परहेज हो उसे क्या कहा जाय।
भारतीय संस्कृति को पुष्ट बनाने में कबीर, रैदास, तुलसी व सूर सभी का अप्रतिम योगदान है। भारतीय संस्कृति कबीर, रैदास के बिना अपूर्ण है। चिंतन की विभिन्न धाराओं को अपने में समेटना ही भारतीय संस्कृति का वैशिष्ट्य है। कबीर को साहित्य में स्थान दिलाने का श्रेय इन तथाकथित दलित चिंतन्कारों को नहीं जाता। क्योंकि इस दलित चेतना की उम्र १०० वर्ष से अधिक नहीं होगी, जबकि कबीर शताब्दियों से भारतीय वांग्मय का अभिन्न हिस्सा बने हुए हैं। रही बात तुलसी की लोकप्रियता की तो इसका प्रमुख कारण तुलसी के साहित्य का भारतीय जनमानस की अवतारवाद के प्रति आस्था से मेल खा जाना तथा सरल भाषा में लिखा गया गेय काव्य। विरोधी पक्ष के प्रति इतना भी विद्वेष क्या जो तर्क -वितर्क की स्वस्थ परंपरा को ही बाधित कर दे या भावनाओं का घटियापन भाषा में उतर आये।
दलित नायकों को भारतीय समाज में यथोचित स्थान दिलाने का आग्रह तो उचित है पर इन आग्रहों की ओट में उन महापुरषों पर कीचड़ उछालना गलत है ,जिन्होंने समाज मे समन्वय और समानता लाने की महती भूमिका निभाई है। इस तरह से न तो ऐतिहासिक चरित्रों को व्याख्यायित किया जा सकता है और न ही स्वस्थ बहस की परम्परा का सकुशल निर्वाह।।

— संजीव शुक्ल ‘अतुल’

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